दिल्ली में प्रदूषण के बढ़ते ही किसानों द्वारा पराली जलाए जाने को भी बड़ा दोष दिया जा रहा है। लेकिन क्या किसान ही इसके लिए ज़िम्मेदार हैं? औद्योगिक इकाइयाँ और वाहन ज़म्मेदार नहीं हैं? क्या सरकार की नीतियाँ ज़िम्मेदार नहीं हैं? इसके बावजूद क्या किसानों द्वारा पराली जलाया जाना कम नहीं हुआ है? और यदि पराली जलाए जाने को पूरी तरह ख़त्म करना है तो क्या सरकार की ओर से इसके लिए वैकल्पिक रास्ते तलाशे गए हैं? 

ये सवाल इसलिए क्योंकि पराली जैसी समस्या से निपटे बिना किसानों की फ़सलें प्रभावित हो सकती हैं और इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर होगा। प्रदूषण पर स्थिति को जानने से पहले यह जान लें कि भारत में कृषि की स्थिति क्या है। भारत में वैश्विक भौगोलिक क्षेत्र 2.4% है और जल संसाधन लगभग 4.2% है, लेकिन विश्व की जनसंख्या का 17.6% भरत में है। भारत की बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्यान अन्न उपलब्ध करवाना देश के लिए बड़ी चुनौतियों में से एक है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में वार्षिक 93 .5 मी.टन गेहूं, 105.24 मी. टन चावल, 22.26 मी.टन टन मक्का, 16.03 मी.टन ज्वार, बाजरा, रागी आदि, 341.20  मी. टन गन्ना, 7.79  मी. टन फाइबर, कपास, जूट, 18.3 मी. टन दालें, 30.90 मी. टन ऑइल सीड का उत्पादन खेतों में होता है।

किसानों की मजबूरी क्या

उतर भारत में किसान गेहूं और धान की फसलों को प्राथमिकता देते हैं। कृषि अवशेषों के प्रबंधन की उचित व्यवस्था न होने के चलते किसानों के लिए पराली को जलना मजबूरी बन जाता है, क्योंकि यह अवशेष धान की फसल के होते हैं जो चारा के काम नहीं आते क्योंकि उनमें सिलिका की बहुत अधिक मात्रा पायी जाती है जो पशुओं के खाने लायक नहीं मानी जाती और जिसका उपयोग केवल ऊर्जा या अन्य औद्योगिक कार्यों में ही किया जा सकता है।

यह आम तौर पर संयुक्त कटाई आधुनिक मशीन 'कंबाइन' द्वारा की जाती है। आधुनिक मशीनों से पकी हुई फसल में से दाने निकालने के बाद बचे हुए पौधे खेत में अवशेष के रूप में रह जाते हैं। रबी की अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने के लिए किसान के पास कम समय बचता है। यह प्रक्रिया अक्सर सितंबर के मध्य सप्ताह से अक्टूबर के अंत तक की होती है। मशीन द्वारा पकी हुई फसल के ऊपरी भाग से अनाज एकत्रित करके बाकी पौधे जमीन में छोड़ दिए जाते हैं जिन्हें बाद में अलग से काट कर खेत को साफ किया जाता है। खेत को फिर से जोत कर अगली फसल की बुआई की जाती है जिसका समय नवंबर अंत होता है। मुख्य रूप से पराली जलाना किसानों के लिए कृषि अवशेषों से निपटने का सरल तरीका है। हर वर्ष यह स्थिति बार-बार बन जाती है क्योंकि किसानों के लिए धान की फसल के अवशेष का कोई मूल्य नहीं रहता है।
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मशीनों की लागत काफी ज़्यादा

पराली प्रबंधन पर अतिरिक्त खर्च और मेहनत किसान को करना पड़ती है और उसके पास कोई सरकारी सहायता का विकल्प नहीं है। अधिकतर किसान छोटे और मध्यम श्रेणी के है इस लिए यह सरल विधि किसान अपनाता है। आधुनिक तकनीक में बेलर मशीन के उपयोग से बचे हुए कृषि अवशेषों को खेत में बड़ी गांठों में परिवर्तित करने का विकल्प है लेकिन उनके भारी निवेश और खर्च किसानों के बूते से बाहर की बात है। सुझए गए यंत्रों हैप्पी सीडर व सुपर सीडर के प्रयोग के लिए आवश्यक ट्रैक्टर की क्षमता को भी बढ़ाना ज़रूरी हो जाता जिसकी लागत बहुत अधिक हो जाती है। कृषि अवशेषों को नष्ट करने की प्रक्रिया उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों से एक है। एक निश्चित ऋतु में वायु प्रदूषण के स्तर के बढ़ने में अन्य कारण भी है लेकिन उनकी चर्चा कम होती है। विभिन्न शोधों के अनुसार पराली जलाने से कुल वायु प्रदूषण में 8-12% तक ही इसकी मात्रा पाई जाती है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारक हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब में जलाई जाने वाली पराली को माना जाता है। हर साल दिल्ली और आस-पास के शहरों में वायु गुणवत्ता का स्तर सामान्य जीवन के लिए घातक श्रेणी स्तर तक पहुँच जाता है। लेकिन इस समय में आम तौर पर अन्य त्योहारों को वायु प्रदूषण के मामले में छूट मिल जाती है। 2024 में केंद्र सरकार ने साफ़ तौर पर रिपोर्ट में बताया था कि वायु प्रदूषण में वाहन प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, भवन व अन्य निर्माण, बायोमास ज्वलन, कचरा ज्वलन आदि गतिविधियां बड़े स्रोत हैं। 

आम लोगों की निगाह में पंजाब और हरियाणा के किसान ही आते हैं जिन्हें कटघरे में खड़ा किया जाता है। बड़ी औद्योगिक इकाइयां, कल-कारखाने, निर्माण कंपनियां और वाहन उत्सृजन पर ज्यादा ध्यान किसी का जाता नहीं।

सरकारी नीति कितनी सफल?

औद्योगिक इकाई ऑटोमोबाइल, जनसंख्या, छोटे कल कारखाने, नगरीकरण, निर्माण की गतिविधियों के कारण प्रदूषण पर नियंत्रण में सरकारी तंत्र की विफलता पहले से ही स्पष्ट है।

भारत में 500 मी. टन कृषि अवशेष हर साल बचता है। 2014 में केंद्र सरकार द्वारा कृषि अवशेष प्रबंधन नीति की घोषणा की गई थी। राज्य को केंद्र की सहायता से पराली के उचित प्रबंधन के लिए कई विकल्प सुझाए गए हैं। किसानों को पराली न जलने और उसके उचित प्रबंधन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने का सुझाव सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को दिया गया है। लेकिन आधुनिक मशीनों पर निवेश और इनके सामूहिक उपयोग को लागू करने में विफलता भी राज्य सरकारों के सामने आ रही है। केंद्र और राज्य के वित्तीय आर्थिक अनुदान का सही समय पर सामंजस्य इसमें में बड़ी बाधा है। हालांकि 2021 के मुकाबले 2024 में पराली जलाने की घटनाओं में 85% तक की कमी हुई है लेकिन वायु प्रदूषण का कोई स्थायी समाधान सरकार अभी तक कर नहीं पायी है।

राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) भारत सरकार द्वारा वायु प्रदूषण को कम करने के लिए 2019 में शुरू किया गया एक कार्यक्रम है। इसका मुख्य लक्ष्य 2026 तक 131 शहरों में PM10 और PM2.5 को 40% तक कम करना है, जो कि वायु गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं कर पाए हैं। इस कार्यक्रम में वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क का विस्तार करना, प्रदूषण से निपटने के लिए क्षमता बढ़ाना और वायु प्रदूषण के बारे में जन जागरूकता बढ़ाना शामिल है। 
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राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार ने स्वच्छ वायु कार्यक्रम के तहत आवंटित अपने बजट से केवल एक तिहाई ही खर्च किया है। सवाल उठता है कि सरकार की यह उपेक्षा राजनीतिक कारणों से है या कुप्रबंधन का परिणाम। नोएडा में आवंटित 30.89 करोड़ में केवल 3.44 करोड़ ही वायु प्रदूषण नियत्रण पर खर्च किया गया। हरियाणा में फरीदाबाद में 107.14 करोड़ आवंटित राशि से 28.60 करोड़ खर्च किया गया।

इसके अलावा पंजाब में आम आदमी पार्टी सरकार के बड़े बड़े दावों के विपरीत धान पराली अवशेषों के औद्योगिक इस्तेमाल के लिए कोई बड़े सयंत्र लगाने में रुचिकर निवेशकों को प्रदेश में स्थापित कर पाने की विफलता भी सामने साफ दिखाई देती है। नए शोध और नई मशीनों की खोज से समाधान की संभावना बन सकती है, अगर सरकार गंभीरता से नीति निर्माण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आमजन के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हो।

क्या किसानों को कटघरे में खड़ा, करना दंडित करना कोई स्थायी समाधान है? क्या यह पूंजीवादी प्रवृत्ति का मिथ्या का प्रचार-प्रसार नहीं है? वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन को संतुलित करने में वांछित जंगलों के साथ साथ खेतों में पेड़-पौधों, फसलों द्वारा किया गया संतुलन भी अहम है जिसका कोई मुआवजा किसानों को कभी प्राप्त नहीं होता।