Vande Mataram Controversy: वंदे मातरम पर विवाद बढ़ता जा रहा है। इस लेख में इस तथ्य का विश्लेषण किया गया है कि कैसे बंकिम चंद्र के उपन्यास आनंद मठ में शामिल इस गीत ने आज़ादी के साथ-साथ धार्मिक विभाजन को भी जन्म दिया।
आनंद मठ उपन्यास लिखने वाले बंकिम चंद्र चट्टोपध्याय
कैसे बंकिमचंद्र का भक्ति गीत बना भारत की आत्मा का पहला नैतिक मोड़- धर्म और राष्ट्र के बीच 1. एक गीत, तीन अर्थ कुछ पंक्तियाँ वक्त से भी ज़्यादा लंबा सफ़र तय करती हैं। वंदे मातरम उन्हीं में से एक है। एक साथ स्तुति भी है, नारा भी, और ज़ख़्म भी।
जिस गीत ने कभी आज़ादी की लड़ाई को हिम्मत दी, उसी ने भारत को एक कठिन सवाल के सामने खड़ा किया- क्या सांस्कृतिक गर्व और धार्मिक पहचान, राष्ट्र की बुनियाद बन सकते हैं? इस गीत की ख़ूबसूरती इसकी भाषा में है, और ख़तरा- उसकी कल्पना में।
आनंदमठ और राष्ट्र की सीमाएँ
आनंदमठ इतिहास नहीं था, वो इतिहास से निकली एक राजनीतिक कल्पना थी- जहाँ अंग्रेज़ी अत्याचार के खिलाफ़ साझा संघर्ष एक धार्मिक युद्ध में बदल गया। “सन्यासी-फ़क़ीर आंदोलन” में हिन्दू साधु और मुसलमान दरवेश दोनों साथ थे। पर बंकिम के उपन्यास में वो एकता मिटा दी गई। कहानी में रह गए बस भगवा झंडे और एक धर्म की पुकार। यह गलती नहीं थी, यह चुनाव था। ब्रिटिश मजिस्ट्रेट रहते हुए बंकिम अंग्रेज़ों पर सीधा वार नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने ग़ुस्सा मोड़ दिया भीतर के “दूसरे” पर। और यहीं से शुरू हुआ धर्म की पहचान पर टिके राष्ट्रवाद का पहला प्रारूप।
बंगाल की मां से भारत माता तक जब बंकिम ने आनंदमठ लिखा (1882), तब “भारत माता” जैसी कोई एक राष्ट्रीय छवि नहीं थी। वो मां बंगाल की थी- घायल, गौरवशाली, जागती हुई। बंकिम की कल्पना सांस्कृतिक थी, सार्वभौमिक नहीं। बाद में श्री अरविंदो ने उस मां को नया अर्थ दिया- “राष्ट्रभक्ति भी एक धर्म है, और वंदे मातरम उसका मंत्र।” यही वो मोड़ था, जहाँ एक प्रांतीय मिथक राष्ट्र की विचारधारा बन गया।
अक्सर कहा जाता है कि यह गीत भद्रलोक हिन्दू समाज की असुरक्षा से उपजा- पर यह असुरक्षा ज़्यादातर कल्पनिक थी। क्योंकि उसी दौर में बंगाल का नवजागरण- शिक्षा, कला, साहित्य और पत्रकारिता का उत्थान- हिन्दू भद्रलोक के नेतृत्व में हो रहा था। उस बौद्धिक उभार की लहर सिर्फ़ बंगाल तक सीमित नहीं रही। मिर्ज़ा ग़ालिब से लेकर सर सैयद अहमद ख़ान तक, उत्तर भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवी भी उस जागरण की ऊर्जा से प्रभावित थे।
असल में मुसलमान समाज तब आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ था, और अपनी पुरानी सामाजिक हैसियत खो चुका था। फिर भी जो संवाद और आत्ममंथन उस समय पनपा, वह भारतीय आधुनिकता का साझा उद्गम बना। इसलिए वह “असुरक्षा” किसी वास्तविक ख़तरे से नहीं, बल्कि बदलते सामाजिक समीकरणों से जन्मी थी- जहाँ सत्ता घट रही थी, पर विचार फैल रहे थे, और जो अंततः एक लेखक के पूर्वाग्रहों को दर्शाती थी।
मां का बदलता चेहरा
गीत की शुरुआत में मां धरती है- मिट्टी, नदी, हवा- सबको जीवन देने वाली। वो सबकी है, सबके बीच है। पर जैसे-जैसे पद आगे बढ़ते हैं, मां तलवार थाम लेती है। वो अब दुर्गा है- रक्षक नहीं, दंड देने वाली। गीत जो कृतज्ञता से शुरू होता है, वो शुद्धिकरण की पुकार पर खत्म होता है। जो गीत जोड़ता था, वही अब बाँटने लगता है।
क्यों रखे गए सिर्फ़ दो पद
संविधान सभा ने इस द्वंद्व को ठीक-ठीक समझा। गीत महान था, पर उसका पूरा रूप धर्मनिरपेक्ष भारत की आत्मा से मेल नहीं खाता था। 24 जनवरी 1950 को तय हुआ- सिर्फ़ पहले दो पद ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार होंगे। क्योंकि वे नदियों, खेतों, हवाओं की बात करते हैं- देवी या दुश्मन की नहीं। वो जोड़ते हैं, बाँटते नहीं। भारत ने गीत का वही हिस्सा चुना जिसमें इंसानियत थी, ईश्वर नहीं।
टैगोर की चेतावनी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बंकिम की प्रतिभा की सराहना की, पर उनके प्रतीकवाद से सावधान भी रहे। उन्होंने कहा था- “जब राष्ट्रभक्ति धर्म बन जाती है, तब इंसान सोचता है कि उसका देश कभी ग़लत नहीं हो सकता।” टैगोर ने बहुत पहले देख लिया था- जब हम राष्ट्र को देवी बना देते हैं, तो वो इंसान के विवेक से ऊपर चली जाती है। वंदे मातरम का आधा हिस्सा जोड़ता है, आधा बाँटता है।
भाषा, सौंदर्य और असर
बंकिम की भाषा जादुई थी- लय, संवेदना और शक्ति से भरी। पर सुंदरता पूर्वाग्रह को धो नहीं सकती। वंदे मातरम दो गीतों का संगम है- एक जो ज़मीन का उत्सव मनाता है, और दूसरा जो आस्था को हथियार बनाता है। इतिहासकारों के शब्दों में- “बंकिम की कल्पना धार्मिक दायरे से बाहर नहीं निकली।” और “उनका राष्ट्रवाद सांस्कृतिक था, नागरिक नहीं।” यही द्वंद्व आज भी भारत के भीतर गूंजता है- संस्कृति बनाम नागरिकता, कविता बनाम राजनीति।
भारत ने जो चुना, वही उसकी आत्मा है। वंदे मातरम सिर्फ़ गीत नहीं- एक आईना है, जो हमें खुद दिखाता है। ये बताता है कि भक्ति कब नीति बन जाती है, और कविता कब राजनीति। बंकिम ने गढ़ा था हिन्दू बंगाल, अरविंदो ने बनाया हिन्दू भारत, पर 1947 में जन्मा था लोकतांत्रिक भारत- जिसने वही गाया जो जोड़ता है, और चुप कर दिया वो जो बाँटता है। वो चुप्पी डर नहीं थी- वो परिपक्वता थी। वो इस सभ्यता की समझ थी, जो जानती है- कवि का आदर कब करना है, उसके डर को कब पीछे छोड़ देना है, उसके पूर्वाग्रहों को कब ख़ारिज करना है- क्योंकि वह कदम धार्मिक राष्ट्रवाद से दूर जाने का था, जो बाँटता है; और व्यावहारिक, तर्कशील राष्ट्रवाद की ओर बढ़ने का, जो जोड़ता है।