कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने उठाया ऐतिहासिक कदम, कैबिनेट ने लंबे समय से लंबित जाति आधारित जनगणना रिपोर्ट को दी मंज़ूरी। जानिए इसका राजनीतिक और सामाजिक असर।
कर्नाटक की राजनीति में एक बार फिर हलचल मच गई है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने लंबे समय से लंबित सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट को आधिकारिक तौर पर स्वीकार कर लिया है। इसे आमतौर पर जाति सर्वेक्षण के रूप में जाना जाता है। इस सर्वेक्षण को 2015 में सिद्धारमैया के पहले कार्यकाल में शुरू किया गया था। यह पिछले एक दशक से राजनीतिक और सामाजिक विवादों का केंद्र रहा है। इस क़दम को सिद्धारमैया का एक साहसिक फ़ैसला माना जा रहा है, क्योंकि यह रिपोर्ट लिंगायत और वोक्कालिगा जैसे प्रभावशाली समुदायों के विरोध के कारण अब तक ठंडे बस्ते में थी।
कर्नाटक में जाति सर्वेक्षण की शुरुआत 2015 में सिद्धारमैया सरकार ने की थी। इसका उद्देश्य राज्य की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का व्यापक आकलन करना था। इस सर्वेक्षण में 1.6 लाख कर्मचारियों ने हिस्सा लिया और लगभग 1.3 करोड़ परिवारों को कवर किया गया। इसकी लागत क़रीब 169 करोड़ रुपये थी। 2017 में डेटा संग्रह पूरा होने के बावजूद यह रिपोर्ट 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक नुक़सान की आशंका के कारण सार्वजनिक नहीं की गई। बाद की सरकारों ने भी इस रिपोर्ट को दबाए रखा। इसमें बीजेपी और जेडी(एस) गठबंधन सरकार भी शामिल थी।
फरवरी 2024 में कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस रिपोर्ट को सिद्धारमैया सरकार को सौंपा था, लेकिन तब से इसे लागू करने को लेकर कैबिनेट में मतभेद उभर रहे थे। अब, 11 अप्रैल 2025 को, कैबिनेट ने इस 50 खंडों वाली रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है और इसे विस्तार से चर्चा के लिए 17 अप्रैल को एक विशेष बैठक बुलाई गई है। इस क़दम को कांग्रेस की सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता और विशेष रूप से राहुल गांधी के राष्ट्रीय जाति जनगणना के आह्वान के संदर्भ में देखा जा रहा है।
जाति सर्वेक्षण हमेशा से कर्नाटक में एक संवेदनशील मुद्दा रहा है, क्योंकि यह आरक्षण नीतियों और राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित कर सकता है। राज्य के दो प्रमुख समुदाय लिंगायत और वोक्कालिगा इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों को लेकर चिंतित हैं। 2018 में लीक हुई एक प्रारंभिक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि लिंगायत और वोक्कालिगा की आबादी क्रमशः 9.8% और 8.2% है। लेकिन आम धारणा रही है कि उनकी आबादी क़रीब 17% और 15% है। इन समुदायों को डर है कि यह सर्वेक्षण उनकी राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव को कम कर सकता है। इसके चलते उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार जैसे वोक्कालिगा नेता और मंत्री ईश्वर खांड्रे जैसे लिंगायत नेताओं ने इसकी वैज्ञानिकता पर सवाल उठाए हैं।
विपक्षी बीजेपी ने इस सर्वेक्षण को अवैज्ञानिक और राजनीति से प्रेरित क़रार देते हुए इसे खारिज कर दिया है। विपक्ष के नेता आर. अशोक ने आरोप लगाया कि यह सर्वेक्षण सिद्धारमैया के निर्देशों पर तैयार किया गया है और इसका उद्देश्य जातियों के बीच फूट डालना है। बीजेपी का कहना है कि यदि जाति जनगणना करानी ही है तो इसे केंद्र सरकार के तहत कराया जाना चाहिए।
सिद्धारमैया ने शुरू से ही इस सर्वेक्षण को वैज्ञानिक और सामाजिक न्याय के लिए ज़रूरी बताया है। उन्होंने दावा किया है कि यह रिपोर्ट विभिन्न समुदायों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति को समझने में मदद करेगी, जिससे सरकार को बेहतर नीतियाँ बनाने में सहायता मिलेगी।
हालाँकि, कैबिनेट में उनके अपने सहयोगियों विशेष रूप से लिंगायत और वोक्कालिगा नेताओं के विरोध ने उनके लिए स्थिति को जटिल बना दिया है। डीके शिवकुमार ने सतर्क रुख अपनाते हुए कहा है कि रिपोर्ट का पहले अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे जल्दबाजी में लागू नहीं किया जा सकता है।
सिद्धारमैया के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपनी पार्टी के एएचआईएनडीए यानी अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग और दलित गठबंधन को मजबूत रखें, साथ ही प्रभावशाली समुदायों के गुस्से को भी शांत करें। कांग्रेस ने 2023 के विधानसभा चुनावों में जाति सर्वेक्षण को एक प्रमुख वादा बनाया था और इसे लागू करना सिद्धारमैया की विश्वसनीयता की परीक्षा होगी।
कैबिनेट ने अभी केवल रिपोर्ट को स्वीकार किया है, लेकिन इसके निष्कर्षों को लागू करने का फ़ैसला 17 अप्रैल की बैठक में लिया जाएगा। मीडिया रिपोर्टों में सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि सरकार इस रिपोर्ट को एक उप-समिति को सौंप सकती है या इसके निष्कर्षों को और परिष्कृत करने के लिए विशेषज्ञों का एक पैनल गठित कर सकती है। यह भी संभावना है कि सरकार इसे सार्वजनिक करने से पहले और समय लेना चाहेगी, ताकि राजनीतिक नुकसान को कम किया जा सके।
जाति सर्वेक्षण का भविष्य न केवल कर्नाटक की आरक्षण और कल्याण नीतियों को प्रभावित करेगा, बल्कि यह राज्य के राजनीतिक माहौल को भी बदल सकता है।
यदि यह रिपोर्ट लागू होती है, तो यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम हो सकता है, लेकिन इसके साथ ही यह सिद्धारमैया सरकार के लिए एक जोखिम भरा दांव भी साबित हो सकता है।
सिद्धारमैया ने जाति सर्वेक्षण को स्वीकार करके एक साहसिक क़दम उठाया है, लेकिन यह क़दम उतना ही विवादास्पद भी है। कर्नाटक की राजनीति में जाति हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रही है और इस रिपोर्ट का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार इसे कैसे संभालती है। 17 अप्रैल की कैबिनेट बैठक अब सभी की नजरों में होगी, क्योंकि यह तय करेगी कि क्या यह सर्वेक्षण सामाजिक बदलाव का आधार बनेगा या फिर राजनीतिक उथल-पुथल का कारण।