पटना की दोपहर में गर्मी चुभती है। गंगा बहती है जैसे कोई भूली हुई कसम हो। बिहार अपने टूटे शीशे में खुद को देखता है। यह वही धरती है जिसने कभी सम्राटों और ज्ञान की रोशनी को जन्म दिया था। आज यह भारत का सबसे बड़ा विरोधाभास बन गया है। यह वही जगह है जहां प्राचीन गणराज्यों ने लोकतंत्र की नींव रखी थी। आज यहां गरीबी इतनी गहरी है कि नालंदा की संगमरमर की यादें भी फीकी लगती हैं।

2025 के विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। वोट 6 और 11 नवंबर को होंगे। नतीजे 14 को आएंगे। यह चुनाव सिर्फ नेता चुनने का नहीं है। यह आत्मा की लड़ाई है।

क्या बिहार फिर से जाति के धागों से सिले गठबंधनों को अपनाएगा या आईना तोड़कर कुछ नया देखने की हिम्मत करेगा? यह सिर्फ राजनीतिक सवाल नहीं है। यह अस्तित्व का सवाल है। बिहार जिसने आस्था और साहस को जन्म दिया वह सिर्फ ज़िंदा रहने से बेहतर का हकदार है।

बिहार में गरीबी

सच्चाई यह है कि बिहार भारत का सबसे गरीब राज्य है। 2024-25 में इसकी प्रति व्यक्ति आय सिर्फ ₹60000 है। यानी सालाना करीब $715। यह राष्ट्रीय औसत ₹1.7 लाख से बहुत पीछे है।

यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह सरकारी आँकड़ों की सच्चाई है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय और रिजर्व बैंक की रिपोर्ट यही कहती है। बिहार के 45000 गांवों में से आधे की प्रति व्यक्ति आय $400 से भी कम है।

उत्तर बिहार में बाढ़ आती है। दक्षिण में सूखा पड़ता है। सड़कें जो विकास का प्रतीक होनी चाहिए अब पट्टी की तरह लगती हैं। फिर भी यहां एक शांत चमत्कार होता रहता है। लोग गरीबी में खुश हैं या कम से कम उसे स्वीकार कर चुके हैं।

छोटे दुकानदार, रिक्शा चालक, सत्तू बेचने वाले जैसे छोटे उद्यम चलते हैं। बड़े सपने बहुत कम दिखते हैं। यह संतोष सहनशीलता से पैदा हुआ है। यह कोई हार नहीं है। यह जज़्बा है जो यादों में लिपटा हुआ है।

बिहार का गर्व उसके अतीत से आता है जो यहाँ के निवासियों के लिए इतना चमकदार है कि आज की कमियों को ढक देता है।

बिहार का गौरवशाली इतिहास

बोधगया की याद आती है जहां सिद्धार्थ ने धरती को छुआ और बौद्ध धर्म की शुरुआत की। वैशाली की बात होती है जहां महावीर ने अहिंसा का संदेश दिया। पटना में गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था जो सिख धर्म के दसवें गुरु थे।

हिंदू धर्म की बात करें तो सीता का जन्म मिथिला की मिट्टी में हुआ था। यह सब बिहार की पहचान का हिस्सा है। गांवों में बुजुर्ग नालंदा के 10000 विद्वानों की बात करते हैं जो ऑक्सफोर्ड से पहले थे। यह बातें आज की गरीबी के खिलाफ ढाल बनती हैं।

लेकिन यह गौरव तब फीका पड़ जाता है जब हम प्रवास की कहानी सुनते हैं। बिहार ने सिर्फ विचार नहीं भेजे। उसने अपने लोग भी भेजे।

1830 से 1917 तक ब्रिटिश राज में 15 लाख से ज्यादा भोजपुरी लोग गिरमिटिया मजदूर बनकर फिजी, मॉरीशस, कैरेबियन और अफ्रीका के खेतों में भेजे गए। वे गुलामों की तरह गए थे। उनके पास एक टिन का बक्सा और एक प्रार्थना थी।

आज उनके वंशज कई देशों के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। मॉरीशस के चार प्रधानमंत्री बिहार मूल के हैं। फिजी, त्रिनिडाड, गयाना में भी यही कहानी है।

उन्होंने गरीबी और जमींदारी से भागकर विदेशी जमीन पर राज किया। आज वे भारत को $2.5 अरब की रेमिटेंस भेजते हैं। लेकिन बिहार खाली होता जा रहा है। लोग दिल्ली या दुबई चले जाते हैं क्योंकि वहां पैसा है।

ब्रिटिश काल में बिहार 

यह पलायन कोई नई बात नहीं है। यह पुरानी कहानी है। ब्रिटिश काल में बिहार व्यापार का केंद्र था। पटना में व्यापार होता था, जमींदार कलकत्ता की मिलों को पैसा देते थे।

1901 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय मुंबई के बराबर थी। नील, अफीम और रेलवे से पैसा आता था। लेकिन 1947 के बाद सब बदल गया।

2000 में झारखंड अलग हुआ और खनिज चले गए। लेकिन असली गिरावट पहले शुरू हुई थी। माल ढुलाई नीति ने बिहार के संसाधनों को बंदरगाहों तक पहुंचाया। स्थानीय उद्योग खत्म हो गया।

कांग्रेस की समाजवादी नीतियों ने विकास को रोक दिया। लालू के राज में अपहरण, घोटाले और अराजकता बढ़ी। बिहार की प्रति व्यक्ति आय अफ्रीका से भी नीचे चली गई।

2005 के बाद नीतीश कुमार ने विकास की कोशिश की। 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई लेकिन गरीबी अब भी 33.7 प्रतिशत है जो भारत में सबसे ज्यादा है। बिहार की जीएसडीपी सिर्फ 3 प्रतिशत है जबकि आबादी 9 प्रतिशत है।

बिहार में राजनीति की दिशा

अब बात करते हैं राजनीति की। बिहार में राजनीति जाति से चलती है, नीति से नहीं।
1947 से 1967 तक कायस्थों ने सत्ता संभाली श्रीकृष्ण सिंह और कृष्ण बल्लभ सहाय जैसे नेता कांग्रेस को चलाते थे।

1960 के बाद समाजवाद आया लेकिन ब्राह्मण ठाकुर जैसे ऊँची जाति के नेता सत्ता में रहे। जगन्नाथ मिश्र तीन बार मुख्यमंत्री बने। कर्पुरी ठाकुर का कार्यकाल छोटा रहा लेकिन असर बड़ा था।

1990 में लालू यादव की लहर आई। मंडल आयोग की सिफारिशों ने राजनीति बदल दी। यादव, कुर्मी, कोइरी जैसे ओबीसी नेता सत्ता में आए।

दलित, पिछड़े और मुसलमानों की राजनीति अलग हो गई। बीजेपी ने उत्तर भारत में सत्ता पाई लेकिन बिहार में नहीं क्योंकि यहां मंडल की जड़ें गहरी हैं।

बीजेपी ने गठबंधन बनाए। नीतीश कुमार के साथ, चिराग पासवान के साथ, लेकिन अकेले बहुमत नहीं मिला।

2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने जीत पाई। लेकिन विधानसभा की 243 सीटों के लिए और मेहनत चाहिए।
बिहार का युवा हमेशा आंदोलन करता रहा है। गांधी के चंपारण आंदोलन से लेकर जेपी आंदोलन तक आज के युवा बेरोजगार हैं। 10.8 प्रतिशत की दर से वे खाड़ी देशों, दिल्ली के कॉल सेंटरों में काम करते हैं। ₹1.5 लाख करोड़ की रेमिटेंस भेजते हैं।

मौजूदा चुनाव में हालात

तेजस्वी यादव 35 साल के हैं। मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे आगे हैं। उनका “10 लाख नौकरी” का वादा लोकप्रिय है।
बीजेपी के सम्राट चौधरी 52 साल के हैं लेकिन उन्हें युवा नेता कहा जाता है। उनका “बिहार फर्स्ट” नारा असरदार है लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि वे गठबंधन के जोड़ हैं, अकेले नेता नहीं।

चुनाव का नतीजा कांटे का होगा। आईएएनएस की रिपोर्ट कहती है एनडीए को 150 से 160 सीटें मिल सकती हैं और महागठबंधन को 75 से 85, जन सुराज को 15 से 20 सीटें। टाइम्स नाउ की रिपोर्ट कहती है बीजेपी को 90 सीटें मिल सकती हैं। जेडीयू को 60। चिराग को 30 और मांझी को 5।

ईबीसी यानी अति पिछड़ा वर्ग 36 प्रतिशत हैं। वे किंगमेकर बन सकते हैं।

पटना में 1.63 लाख नए वोटर जुड़े हैं लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि मुस्लिम यादव वोटर हटाए गए हैं।

बिहार का चुनाव कोई सीधा फैसला नहीं है। यह एक जटिल तस्वीर है। ऊंची जातियां अब गठबंधन का हिस्सा हैं। पिछड़े सशक्त हैं, लेकिन उलझे हुए हैं।

सम्राट चौधरी जैसे नेता बीजेपी की नई रणनीति का प्रतीक हैं। वे समझौते की राजनीति करते हैं।

लेकिन पुरानी राजनीति लौट सकती है। नीतीश और तेजस्वी का गठबंधन फिर बन सकता है।

एक युवा वोटर मुजफ्फरपुर में अपने विदेश में काम कर रहे भाई की रेमिटेंस देखता है। वह जाति नहीं, पैसा देखकर वोट करता है।

बिहार का आईना अब टूटे गौरव को नहीं, बल्कि नए जज़्बे को दिखा सकता है। यह क्रांति शोर शराबे से नहीं। चुपके से भी आ सकती है!