पहलगाम आतंकी हमला सिर्फ एक दुखद घटना नहीं था— यह भारत की सुरक्षा व्यवस्था और ख़ुफ़िया तंत्र की गहरी विफलता की एक और दर्दनाक कहानी है। 26 बेगुनाह लोग मारे गए, और हम फिर से वही सवाल पूछने को मजबूर हुए हैं, जिनके जवाब देने की बजाय सत्ता प्रतिष्ठान अक्सर चुप्पी या दोषारोपण का सहारा लेता है।

इस बार मामला इसलिए भी गंभीर है कि खुफ़िया एजेंसियों को पहले से अलर्ट था। 4 अप्रैल को इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी ने चेताया था कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन पहलगाम में होटलों की रेकी कर रहे हैं। बावजूद इसके, न कोई अतिरिक्त सुरक्षा इंतज़ाम किए गए, न ही सतर्कता बरती गई। हमले के दिन बैसरन घाटी में एक भी पुलिसकर्मी मौजूद नहीं था। बहाना दिया गया कि घाटी जून में खुलती है— जबकि स्थानीय प्रशासन के मुताबिक, घाटी साल भर खुली रहती है।

यह एक साधारण प्रशासनिक चूक नहीं थी। यह एक ऐसी विफलता थी जिसे टाला जा सकता था— अगर चेतावनियों को गंभीरता से लिया गया होता।

जम्मू-कश्मीर जैसा इलाक़ा, जो दुनिया के सबसे सैन्यीकृत क्षेत्रों में गिना जाता है, वहाँ पाँच लाख से ज़्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात हैं। फिर भी एक प्रमुख पर्यटन स्थल पर सुरक्षा का इस कदर अभाव बताता है कि हमारी प्राथमिकताएँ किस तरह से विकृत हो चुकी हैं। सीमाओं पर फोकस ज़रूरी है, लेकिन अगर आतंकी ठिकानों से निकलकर पर्यटक स्थलों तक पहुँच सकते हैं, तो इसका मतलब है कि हमारी रणनीति में कोई भारी खामी है।

जम्मू-कश्मीर के खुफ़िया तंत्र की बहुलता भी कोई नई बात नहीं। आईबी, रॉ यानी RAW, मिलिट्री इंटेलिजेंस, एनआईए, जम्मू-कश्मीर पुलिस की सीआईडी— तमाम एजेंसियाँ हैं जिनका काम संभावित ख़तरों का आकलन करना है। ऊपर से मल्टी-एजेंसी सेंटर यानी एमएसी जैसी संस्थाएँ भी बनी हैं जो आपसी समन्वय सुनिश्चित करने के लिए हैं।

तमाम एजेंसियों के बावजूद अगर ऐसी घटनाएँ हो रही हैं तो इसका मतलब है कि या तो सूचनाओं का ठीक से विश्लेषण नहीं हो रहा, या फिर उच्च स्तर पर उन्हें नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।

इतिहास बताता है कि गुज्जर-बकरवाल जैसे स्थानीय समुदाय भी कभी-कभी सुरक्षा बलों के लिए आँख-कान बने हैं। करगिल युद्ध इसका उदाहरण है। लेकिन अगर आज वे भी सुरक्षा व्यवस्था से कटे महसूस कर रहे हैं तो यह ख़तरनाक संकेत है।

यह भी समझना ज़रूरी है कि आतंकवाद की चुनौती केवल सैनिक कार्रवाई से नहीं निपटी जा सकती। इसका एक बड़ा पहलू मनोवैज्ञानिक भी है। जब हमले के बाद देश के भीतर कश्मीरी नौजवानों पर हमले शुरू हो जाते हैं, तो हम वही कर रहे होते हैं जो पाकिस्तान चाहता है: भारत के भीतर धार्मिक विभाजन पैदा करना।

प्रधानमंत्री मोदी ने हमले के बाद दुबई दौरा रद्द कर चुनावी सभा करना ज़रूरी समझा, लेकिन न पहलगाम गए, न पीड़ितों से सीधे संवाद किया। उन्होंने आतंकवादियों को ‘कल्पना से बड़ी सजा’ देने का वादा किया, पर देशवासियों से यह नहीं कहा कि इस संकट का जवाब नफ़रत फैलाकर नहीं दिया जा सकता।

यह चुप्पी बहुत कुछ कहती है।

याद रहे, 2019 के पुलवामा हमले के बाद भी कुछ ऐसे ही वादे किए गए थे। तब भी कहा गया था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन आज, छह साल बाद भी उस हमले की जाँच अधूरी है। पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने खुद आरोप लगाया था कि सीआरपीएफ़ जवानों को हवाई मार्ग से न भेजने का फ़ैसला एक बड़ी भूल थी— और यह भूल दिल्ली में हुई थी।

देश अब थक चुका है सिर्फ़ कड़ी निंदा और वादों से। पहलगाम हमला एक चेतावनी है— और शायद आख़िरी चेतावनी।

अगर हम अभी भी नहीं चेते, अगर खुफ़िया तंत्र को राजनैतिक लाभ के लिए काम में लेने की आदत नहीं छोड़ी, अगर आतंकवाद को आंतरिक नफ़रत के हथियार में बदलने की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगी, तो आने वाले हमले सिर्फ़ संख्या में नहीं, बल्कि गहराई में भी और ज़्यादा दर्दनाक होंगे।

भारत को अब एक कठोर आत्म-मंथन की ज़रूरत है — न कि और एक चुनावी जुमले की।