loader

कृषि आय तो दोगुनी नहीं हुई, चार गुनी हो गयी यति नरसिंहानन्दों की संख्या!

आज़ादी के पहले ही, चालीस के दशक में भारत भीषण अकाल झेल चुका था। करोड़ों भारतीयों की मौत औपनिवेशिक नीतियों के चलते आए अकालों के कारण हो चुकी थी। इसके बाद जब 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ तो देश को दो महत्वपूर्ण चुनौतियों से लड़ना था। आज़ाद भारत की पहली चुनौती थी, 200 सालों की ग़ुलामी से उत्पन्न हुए ‘आर्थिक शोषण’ से निपटना और दूसरी चुनौती थी देश की उन विभाजनकारी ताक़तों से लड़ना जो भारत के विभाजन के साथ-साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के भी ज़िम्मेदार थे।

आर्थिक चुनौतियों में ही गुँथी हुई एक बड़ी चुनौती थी कि करोड़ों भारतीयों को खाना कैसे खिलाया जाए। देश में न पर्याप्त अवसंरचनाओं का विकास हुआ था और न ही आर्थिक हालत ठीक थी। आज़ादी की आशाएँ, आँखें खोले भारत की पहली सरकार से हर उस सपने का वादा चाहती थीं जो उन्हें औपनिवेशिक ग़ुलामी में कभी नसीब नहीं हुए थे। अंग्रेजों द्वारा किया गया शोषण कितना ख़तरनाक था यह इस बात से ही समझा जा सकता है कि जहाँ मुगल काल में (1700 AD) दुनिया की जीडीपी में भारत की हिस्सेदारी लगभग 25% थी वहीं 1950 में घटकर यह लगभग 4% ही रह गई।

ताज़ा ख़बरें

परंतु तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने धीरे-धीरे विकास की सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कीं। तीव्र विकास की बजाय समावेशी विकास को ज़्यादा महत्व दिया गया। और यही कारण था कि जो प्रति व्यक्ति जीडीपी, आज़ादी के समय, मात्र $70 थी वही 2014 में लगभग $1600 तक पहुँच गई। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए- व्यापारिक फसलों की जगह खाद्यान्नों को उगाए जाने, कृषि गहनता को बढ़ाने तथा कृषि योग्य बंजर तथा परती भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित करना शुरू किया गया। अथक प्रयास के बाद उत्पादन तो बढ़ा परंतु 1950 के दशक के अंत तक यह उत्पादन की वृद्धि स्थिर हो गयी। इस समस्या से उबरने के लिए विकेंद्रीकृत गहन कृषि ज़िला कार्यक्रम की शुरुआत की गयी। स्थितियाँ सुधर ही रही थीं कि तभी 1960 के दशक में लगातार दो बड़े अकालों के करण देश की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में पड़ गयी। देश को खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा ताकि लोगों को भूखा न रहना पड़े। साथ ही यह भी कार्यक्रम बनाया गया जिससे खाद्यान्नों की कमी कभी न हो। और इस तरह हरित क्रांति का जन्म हुआ।

लेकिन वर्तमान सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान जो प्रदर्शन किया वह बहुत निराशाजनक था। सरकार पहले तो मध्य प्रदेश में एक लोकतान्त्रिक सरकार को ‘गिराने’ में व्यस्त रही और उसके बाद 130 करोड़ लोगों पर अचानक लॉकडाउन थोप दिया। इस पर भी जब असफलता नहीं रुकी तो ‘तबलीगी-जमात’ के मुद्दे के बहाने लोगों को, सरकारी माइक बन चुके मीडिया घरानों के माध्यम से डराया गया।

कुल मिलाकर सामना करने की बजाय भाग जाने और मिथ्या प्रचार की नीति ने कोरोना काल में लाखों भारतीयों को निगल लिया। जिस तरह कोरोना और उसकी वैक्सीन के नाम पर बेतहाशा महंगाई, ढलती अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी को न्यायोचित ठहराया गया है उससे सरकारी नीतियों की विकलांगता नहीं छिपाई जा सकती।

डट कर समस्याओं का सामना करने के बजाय आज की सरकार देश के लोगों को भावनात्मक रूप से शोषित कर ‘आत्मनिर्भर भारत’ का शिगूफ़ा छोड़ने में लगी है। जिस देश की लगभग 70% आबादी $2 प्रतिदिन पर, जिसमें से 30 प्रतिशत आबादी तो मात्र $1.25 पर गुजर बसर कर रही हो वहाँ आत्मनिर्भर भारत अभियान किसी अभिमान का नहीं बल्कि अपमान का प्रतीक है।

समस्या आने पर सरकार अगर मजबूरियाँ गिनाने लगे तो आम नागरिक क्या करेंगे?

विमर्श से ख़ास

तमाम संकटों के बावजूद आज़ादी के बाद की सरकार ने तरह-तरह की समस्याओं का डटकर सामना किया और वैज्ञानिक सोच व पर्याप्त निवेश से उस हरित क्रांति को जन्म दिया जो न सिर्फ़ 2013 के खाद्य सुरक्षा की क़ानूनी गारंटी का आधार बनी बल्कि लगभग हर मोर्चे पर नाकाम वर्तमान सरकार की लाज बचाने के लिए लाखों टन खाद्यान्न के रिज़र्व का भी आधार बनी। आज का मुफ़्त राशन हरित क्रांति का क़र्ज़दार है।

देश की कृषि और किसानों के पास बहुत सारी समस्याएँ हैं जिनका समाधान सरकारी स्तर पर होना चाहिए न कि ‘विधायी गुंडागर्दी’ से। जैसा कि तीन कृषि क़ानूनों के संसद से पारित होने की प्रक्रिया के मामले में हुआ। भारत में हरित क्रांति किसी जुमले के भरोसे नहीं आयी।

2022 तक कृषि आय को दोगुना करने के लिए सरकार को अपना विवेक रचनात्मक कार्यों में लगाना था पर सरकारी अनदेखी से आय तो दोगुनी नहीं हुई परंतु यति नरसिंहानन्द उर्फ दीपक त्यागी जैसे लोगों की संख्या ज़रूर चार गुनी हो गयी जो ना सिर्फ़ देश की एकता, अखंडता, क़ानून और न्यायपालिका का मज़ाक़ बना रहा है बल्कि देश के चुने हुए प्रतिनिधि और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी मज़ाक़ बना रहा है। मज़ाक़ ही तो है जब एक आदमी खुलेआम करोड़ों भारतीयों की हत्या के बारे में ताल ठोककर बोले और प्रधानमंत्री का उसे डर ही ना हो। 

india agriculture income vs yati narsinghanand hate speech - Satya Hindi

देश को विकास पथ पर लाने के लिए नरसिंहानंदों को नहीं सिंचित क्षेत्रों को दोगुना और तिगुना करना होता है। 1950-51 में देश में कृषि का जो सिंचित क्षेत्र 208 लाख हेक्टेयर था वही 2001 आते आते 546 लाख हेक्टेयर तक आ पहुँचा। भारतीयों के पेट भरने का कार्यक्रम चल पड़ा था। लोग भूखे न रहें इसलिए कम से कम संसाधनों के बावजूद हर संभव प्रयास किए गए। 1960 से 2001 की अवधि में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में 15 गुना की वृद्धि हुई। इस दौरान उर्वरकों के मामले में जहां वैश्विक औसत 90 किग्रा प्रति हेक्टेयर था वहीं भारत का 91 किग्रा प्रति हेक्टेयर। पिछली सरकारों ने ऐसे उर्वरकों को बढ़ावा दिया जो कृषि उत्पादन को बढ़ा रहे थे और बहुत तेजी से पूरे भारत की पेट की भूख का इंतजाम कर रहे थे। न कि ऐसे ‘उर्वरकों’ को जो मस्जिद के सामने लाउड स्पीकर से मुस्लिम महिलाओं के बलात्कार की धमकी दे रहे हों, जो खुलेआम मुस्लिमों के नरसंहार का आह्वान कर रहे हों। ऐसे ‘उर्वरक’ देश की मिट्टी खराब कर रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जिन लोगों को यह देश भरोसे और विश्वास के साथ सौंपा गया है वो इन पर कार्यवाही न करने को ही अपना गौरव समझ बैठे हैं।

शायद आपको नहीं पता चल रहा हो लेकिन आपका वाट्सऐप आपसे झूठ बोलता रहा। कोई लगातार ‘भैया जी’ के सम्बोधन से सुबह 5 बजे आपको खेल खेलने के बहाने बुलाता रहा। असल में वह आपके और भारत के भविष्य से खेल गया। आपको बताया गया कि कॉंग्रेस ने कुछ नहीं किया, आपको बताया गया कि कॉंग्रेस और उसके नेता भ्रष्ट हैं। 

लेकिन आपको यह नहीं बताया गया होगा कि राफ़ेल की अनायास बढ़ी कीमतें देश की जेब से वसूली गईं। पेगासस की ‘आँखों’ से संविधान के अनुच्छेदों के फैब्रिक को मिटा दिया गया। कर्नाटक, गोवा और मध्य प्रदेश की चुनी हुई सरकारें संत परम्परा से नहीं बदली गयीं।

उसमें निस्संदेह राजनैतिक भ्रष्टाचार हुआ। जिसने संविधान और नागरिक मतों से धोखा किया। वर्तमान में भारत के बैंक, उनसे लिया कर्ज और और पिछले 7-8 सालों में बैंकों के डूबे हुए पैसे न सिर्फ भारत के वित्तीय प्रशासन की पोल खोल देते हैं बल्कि वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति पर भी प्रश्न उठाते हैं।

लेकिन आपको जो बताया गया वो हमेशा से ग़लत था। सच तो यह है कि स्वतंत्र भारत की पहली सरकार से लेकर बाद की विभिन्न सरकारों ने जो किया उसी का परिणाम है कि भारत में 1960-61 में जितनी बंजर और व्यर्थ भूमि थी (12%) उसे अथक प्रयासों व समुचित योजनाओं के द्वारा घटाकर आधा कर दिया गया (6%, 2008-9)। अर्थात लगभग 50%, बंजर भूमि को कृषि के लायक बनाया गया। साथ ही ऐसी भूमि जो कृषि योग्य थी लेकिन व्यर्थ पड़ी हुई थी उसमें भी लगभग 50% का सुधार हुआ है (2008-9)। 70 के दशक में 4.4%, 90 और 2000 के दशक में 5.5% और इसके बाद लगभग एक दशक तक 7.1% की विकास दर भारत की धीमी किन्तु अत्यधिक मज़बूत आर्थिक व्यवस्था बनने की प्रक्रिया की ओर इशारा करती है। विविधता से भरा ‘ट्रेड बास्केट’ और विश्व स्तर पर विविधतापूर्ण व्यापारिक साझेदार, इस बात का आश्वासन हैं कि दुनिया के किसी भी हिस्से में आया ‘स्लोडाउन’ भारत को बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं करेगा (पूनम गुप्ता और फ्लोरियन ब्लम, 2018)।

ख़ास ख़बरें
इसके बावजूद यूक्रेन और रूस के युद्ध के बहाने सरकार एलपीजी, सीएनजी, पेट्रोल और डीजल के दामों में ख़तरनाक स्तर पर वृद्धि करने में लगी हुई है। मानो सरकार की सारी नीतियाँ और नीतिज्ञ अब पूरी तरह असफल हैं और देश में नीतियों की अपंगता से उत्पन्न खालीपन को आम आदमी की जेबों से भरने की कोशिश की जा रही है। मुझे बिल्कुल नहीं पता कि देश की सरकार को इस बात की फिक्र है भी कि नहीं कि देश में जब 80 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर हैं तब ऐसी भीषण महंगाई में उनमें से कितने लोग हरी सब्जियां खा पाते होंगे? उनके बढ़ते हुए बच्चों को कैसे पोषण मिलता होगा? आख़िर कब तक देश के आम लोगों को इतना निचले स्तर का नागरिक समझा जाएगा? 130 करोड़ की आबादी में 80 करोड़ लोग सरकारी राशन पर हैं, बाकी बची 50 करोड़ जनता जो अपनी आमदनी से जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है कब तक सरकारी अकर्मण्यता और राष्ट्रभक्ति की बीन के आगे नाचती रहेगी। सरकार के माथे पर तनाव की एक भी लकीर नहीं है। शायद उसे भ्रम हो गया है कि चुनाव ही लोकतंत्र है और लोकतंत्र ही चुनाव है। 
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
वंदिता मिश्रा
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विमर्श से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें