हिन्दी बोलने पर इस ऑटो ड्राइवर को पालघर में पीटा गया
मुंबई के भाषा विवाद के बहाने लोगों का ध्यान एक बार फिर हिंदी पर चला गया है। भारतीय जनता पार्टी नीत महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में तीसरी भाषा के रूप में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने का आदेश जारी किया। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे की पार्टियों ने इसका विरोध किया। सरकार को आदेश वापस लेना पड़ा।
महाराष्ट्र सरकार के इस फ़ैसले के बाद तथाकथित हिंदी भाषी इलाक़ों में रोष देखा जा रहा है। सोशल मीडिया पर ‘हिंदीवाले’ अनेक लोग अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं। प्रतिक्रिया का कारण यह तो है ही कि तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ने से इनकार कर दिया गया बल्कि इसलिए भी है कि ‘मराठीवादियों’ ने कई लोगों पर यह कहकर हमला किया कि वे मुंबई में रहकर हिंदी क्यों बोल रहे हैं, मराठी क्यों नहीं। इसकी प्रतिक्रिया में यह कहा जा रहा है कि किसी को कोई भाषा बोलने से रोका नहीं जा सकता और किसी को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह एक ख़ास भाषा बोले।
इसमें कोई शक नहीं कि जो मराठी न बोल पाने के लिए लोगों को पीट रहे हैं उन्हें कोई मराठी की चिंता नहीं। वे एक प्रकार की बहुसंख्यकवादी राजनीति में विश्वास करते हैं। मराठी इस बहुसंख्यकवादी राजनीति का आधार है। यही बात उनके बारे में कही जा सकती है जो हिंदी का नारा लगा रहे हैं। उन्हें भी हिंदी से लेना देना नहीं। वे भी एक ख़ास तरह की बहुसंख्यकवादी राजनीति के अभ्यासी या पैरोकार हैं जिसका आधार हिंदी है।
जब कोई भाषा के नाम पर हिंसा करने लगे तब मसला भाषा का नहीं होता। वह वास्तव में उस हिंसा के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है।अपने समुदाय का। वह दूसरे को बतलाना चाहता है कि उसके इलाक़े में उसका दबदबा है। ख़ासकर जब भाषा के नाम पर सामूहिक हिंसा की जा रही हो।
हिंदीवालों का कहना है कि हमने तो कभी किसी पर हिंदी बोलने के लिए ज़बरदस्ती नहीं की, उनपर हिंसा नहीं की। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि दिल्ली हो या पटना या बनारस, वहाँ रहनेवाले तमिल या मलयाली या मणिपुरी लोगों ने ख़ुद ब ख़ुद कामचलाऊ या उससे आगे की हिंदी सीखी है। उन्हें किसी को यह कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी है। वे यह बिना किसी ज़ोर ज़बरदस्ती के ही करते हैं। प्रायः उनके बच्चे अपने स्कूलों में भी हिंदी सीखते हैं।
लेकिन तमिलनाडु या कर्नाटक में रहनेवाले स्थानीय निवासी लाज़िमी तौर पर हिंदी सीखें, इसका कोई तर्क नहीं है। यह तर्क कि हिंदी सीखने से भारतीय होने में उन्हें मदद मिलेगी, लचर है। क्या प्रामाणिक भारतीय होने के लिए हिंदी जानना ज़रूरी है? हिंदीवाले अपने आप ही भारतीय हो जाते हैं? बिना कोई और भाषा सीखे?
हिंदी भारत में एकमात्र संपर्क भाषा है, यह मिथ टूट चुका है। अंग्रेज़ी यह काम अलग-अलग स्तर पर करने लगी है। कॉरपोरेट संसार में या सरकारी दफ़्तरों या विश्वविद्यालयों में एक दूसरे से बातचीत के लिए हिंदी की ज़रूरत नहीं है। टूटी फूटी या अपने अपने तरीक़े की अंग्रेज़ी से लोग काम चला लेते हैं। ऐसा नहीं कि हिंदी न जानने की हालत में भारत में किसी की ज़िंदगी कहीं मुश्किल होनेवाली है।
हिंदी के पक्षधर लोगों को हमेशा इस बात से हैरानी होती है कि महाराष्ट्र या तमिलनाडु या कर्नाटक में हिंदी का विरोध क्यों किया जा रहा है। या उन्हें उन क्षेत्रों की भाषा बोलने को बाध्य क्यों किया जा रहा है? यहाँ तक कि हिंदीवाले यह भी चाहते हैं कि उनसे राह रस्म के लिए दूसरे राज्यों के लोग अपने राज्यों में हिंदी सीखें। कुछ वक्त पहले एक वीडियो प्रसारित हुआ जिसमें बंगलोर में एक बैंककर्मी ग्राहक से ज़िद कर रही है कि वह उससे सिर्फ़ हिंदी में ही बात कर सकती है। आम तौर पर जनता के साथ कारोबार करनेवाले स्थानीय भाषा सीख लेते हैं, वे प्रशासनिक अधिकारी हों या डॉक्टर या खोमचेवाला। लेकिन अब यह बात उद्धतता के साथ कही जाती है कि हम कन्नड़ या मराठी या बांग्ला नहीं बोलेंगे, जो करना हो कर लो। इस अहंकार का स्रोत क्या है?
क्या हिंदीवाले यह समझते हैं कि हिंदुस्तान पर उनकी हुकूमत है क्योंकि उनकी संख्या सबसे अधिक है? क्या वे दूसरी भाषावालों को कमजोर मानते हैं क्योंकि उनकी तादाद कम है?क् या वे यह सोचते हैं कि दिल्ली की हुकूमत उनकी है और बाक़ी सब उनके सूबे हैं? क्या इसीलिए वे मानते हैं कि मुंबई में मराठी बोलना उनके लिए ज़रूरी नहीं जबकि मुंबईवालों को हिंदी बोलना चाहिए?
हिंदीवाले समझ नहीं पाते कि हिंदी फ़िल्में जहाँ बनती हैं, उस शहर के लोग हिंदी का विरोध क्यों कर रहे हैं? क्यों हर जगह हिंदी का विरोध होता है? वे कभी यह नहीं सोचते कि हर जगह हिंदी सरकार के कंधे पर चढ़कर जाती है। सरकारी आदेशों के माध्यम से, सरकारी पैसे से हिंदी का साम्राज्य फैलाया जाता है। और यह सब इसलिए होता है कि संसद में हिंदीवालों की संख्या सबसे अधिक है।
हिंदी पर भारत की सारी भाषाओं के मुक़ाबले सबसे अधिक पैसा खर्च किया जाता है। उसके लिए विदेशों में भारतीय दूतावासों में विशेष अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। अलग अलग जगह हिंदी अनुवादकों की सबसे अधिक बहाली होती है। सरकारी हिंदी में वहाँ भी ख़तोकिताबत की जाती है जहाँ उसकी कोई ज़रूरत नहीं। यह सब कुछ कन्नड़ या तमिल या बांग्ला बोलनेवाले देखते हैं और उसके पीछे की राजनीति समझते हैं।भारत के संसाधनों पर उनकी भाषाओं का भी अधिकार है। लेकिन पक्षपात हिंदी के साथ किया जाता है।
हिंदी दूसरे क्यों सीखें? हिंदीवालों को उसके बारे में कुछ भ्रम हैं। जैसे यह कि वह संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा है। अंग्रेज़ी के मुक़ाबले भी। वे भूल जाते हैं कि प्रत्येक भाषा के पास अपना व्याकरण है क्योंकि हरेक भाषा की अपनी व्यवस्था है। भोजपुरी की भी और बज्जिका की भी। आदिवासी भाषाएँ भी वैज्ञानिक हैं जैसे अंग्रेज़ी या अरबी। इसलिए हिंदी की ‘वैज्ञानिकता’ उसकी श्रेष्ठता और अनिवार्यता की दलील नहीं। हर भाषा वैज्ञानिक होती है।
फिर दूसरों के लिए उसकी क्या उपयोगिता है? क्या वह संसार के ज्ञान का आगार है? क्या उसके ज़रिए हम भारत और दुनिया के साहित्य से आसानी से परिचित हो पाते हैं? क्या इसके लिए कोई तमिलभाषी हिंदी सीखना चाहेगा? इस मामले में भी वह भारत की दूसरी भाषाओं की मदद नहीं कर पाती। यह ठीक है कि पिछले 70 साल से नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी और दूसरे संस्थानों ने हिंदी में अनुवाद करवाया है। अव्वल तो वह बहुत कम है, और वह भी प्रायः रचनात्मक साहित्य है। यह सब कुछ हिंदी के पहले अंग्रेज़ी में उपलब्ध हो जाता है। फिर हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं बचती।
हिंदी का सबसे बड़ा उपयोग राजनीतिक है। हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए हिंदी अनिवार्य है। इस पर हमने विचार नहीं किया कि हिंदुत्व के सिद्धांतकारों ने हिंदी को हिंदुत्व का सबसे कारगर वाहक क्यों माना। इसका कारण यह था कि सबसे अधिक ‘हिंदू संख्या’ उन्हीं इलाक़ों से तैयार की जा सकती थी जो ‘हिंदीभाषी’ इलाके हैं। उसी से हिंदू बहुसंख्या का निर्माण किया जा सकता था। हिंदी एक तरह से हिंदुत्ववादी राजनीति का बाहुबल है।
जबलपुर के मेरे एक बंगाली मित्र ने बतलाया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी ने, जो ख़ुद बांग्लाभाषी हैं, बंगालियों की एक सभा को बांग्ला की जगह हिंदी में संबोधित किया। यह ख़ासी हिमाक़त है कि बंगालियों से एक बंगाली हिंदी में बात करे। यह जोखिम आर एस एस के उस अधिकारी ने क्यों उठाया? उस स्वयंसेवक ने बंगालियों को समझाया कि सारे बंगाली कन्नौज से बंगाल गए थे इसलिए हिंदी ही उनकी असली भाषा है। आर एस एस ने बंगाल जाकर यह नारा क्यों लगाया: नो दुर्गा, नो काली, ओनली राम ऐंड बजरंगबली?
दुर्गा की जगह राम वास्तव में बांग्ला को हिंदी से विस्थापित करने की कोशिश है। वैसे ही जैसे केरल में बाली की जगह वामन को स्थापित करने का प्रयास मलयालम की जगह हिंदी लाने की कोशिश है। फिर स्पष्ट करना ज़रूरी है कि यह हिंदी हिंदुत्ववादी राजनीति का उपकरण या हथियार है, यह गाँधी, प्रेमचंद ,महादेवी वर्मा, मुक्तिबोध, अज्ञेय या ओमप्रकाश वाल्मीकि की हिंदी नहीं है।यह वह हिंदी है जिससे सारे उर्दू शब्दों को छाँट छाँटकर बाहर किया जाता है और शुद्ध हिंदू बनाया जाता है या संस्कृत की पुत्री के रूप में उसका संस्कार किया जाता है।
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यह शिकायती, क्रोधी और हिंसक हिंदी है और हिंदुत्व की सवारी है। इसीलिए सुहास पलशीकर ने ठीक लिखा है कि हिंदी का विरोध करनेवाले राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे को मालूम होना चाहिए कि अगर वे हिंदुत्व की राजनीति करते रहेंगे तो हिंदी से बचना कठिन होगा।उन्हें हिंदुत्व की हिंदी को देखना चाहिए। वे जो करें, हिंदीवालों को अपने स्वास्थ्य के लिए इस हिंदीवाद से छुटकारा पाना और जल्दी से जल्दी यह करना बहुत ज़रूरी है।