उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि काँवड़ यात्रियों को बदनाम किया जा रहा है। काँवड़ियों को हिंसक और गुंडा कहे जाने पर उन्हें नाराज़गी है।उन्होंने दावा किया कि काँवड़ यात्रा एकता का अद्भुत प्रदर्शन है जिसमें धनी गरीब, हर जाति के लोग एक साथ पवित्र यात्रा पर साथ निकलते हैं। वे पहले  कह चुके हैं कि मुसलमानों को काँवड़ यात्रियों से सीखना चाहिए कि अनुशासन में रहकर कैसे कोई सामूहिक धार्मिक काम किया जाता है।
यह सुनकर तय करना मुश्किल है कि हँसें या रोएँ। लोगों ने सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री को जवाब देना शुरू किया उन तस्वीरों और वीडियो के ज़रिए जिनमें काँवड़ यात्री गाड़ियाँ तोड़ते, स्कूल बसों पर हमला करते, दुकानों को तहस-नहस करते, लोगों को पीटते हुए दिखलाई दे रहे हैं।सबने मुख्यमंत्री से पूछा कि इसमें कौन सा अनुशासन या सदाचार या एकता दिखलाई पड़ रही है। इस साल 11 जुलाई को सावन की इस यात्रा के शुरू होने के बाद एक एक हफ़्ते में ही गुंडागर्दी और हिंसा के लिए 170 से ज़्यादा काँवड़ यात्रियों पर मामले दर्ज किए गए हैं। लेकिन ज़्यादातर मामलों में देखा गया कि पुलिस हिंसक काँवड़ यात्रियों को किसी तरह हाथ-पाँव जोड़कर समझाने का काम कर रही है।
आख़िर ऐसा क्यों है कि काँवड़ यात्रियों की हिंसा को राजकीय संरक्षण हासिल है? ये वही सरकारें हैं जो सरकार विरोधियों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के समय भी उनपर मुक़दमे दायर करके उनपर सार्वजनिक संपत्ति  नष्ट करने का आरोप लगाकर उनसे हरजाना वसूल करती हैं। वे क्यों काँवड़ यात्रियों की हिंसा के प्रति इतनी सहनशील और सहानुभूतिशील हैं?  
काँवड़ पवित्र होती है, उसे अशुद्ध नहीं किया जाना चाहिए या उसे भंग करना पाप है, यह कहकर काँवड़ यात्रियों की हिंसा का औचित्य खोजा जाता है।अगर किसी की काँवड़ छू भी गई तो वह और उसके साथी मार पीट पर उतारू हो जाते हैं। 
पुलिस अधिकारी अलग-अलग जगह काँवड़ यात्रियों को पंखा झलते हुए, उनके पाँव दबाते और उनपर फूल बरसाते हुए देखे गए हैं ।काँवड़ यात्रा शुरू होने के पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने हेलीकॉप्टर से यात्रा के रास्ते का निरीक्षण किया। सरकारी चेतावनी दी गई कि अगर किसी ने यात्रा में बाधा पहुँचाने की कोशिश की तो सरकार सख़्त कार्रवाई करेगी।पिछले सालों के अनुभव के आधार पर चेतावनी कुछ और होनी चाहिए थी: काँवड़ यात्रियों को कहा जाना चाहिए था कि वे यात्रा के दौरान हिंसा, उपद्रव न करें। लेकिन दिल्ली की सरकार  ने भी उत्तर प्रदेश की नक़ल करते हुए धमकी दी कि यात्रा में बाधा पहुँचनेवालों को दंडित किया जाएगा। उन्होंने यात्रियों के आराम का इंतज़ाम करनेवालों को 10, 10 लाख रुपए देने की घोषणा की। 
यह साफ़ है कि काँवड़ यात्रा को एक राजकीय त्योहार की शक्ल देने की कोशिश की जा रही है। उत्तर प्रदेश में यात्रा के रास्ते में पड़ने वाले सारे स्कूल दो हफ़्ते के लिए बंद कर दिए गए। कई सड़कें भी आम आवागमन के लिए बंद कर दी गई हैं। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो यह सारे हिंदुओं का सबसे बड़ा पर्व हो।  जब सरकार बार -बार यह कहती है कि काँवड़ यात्रा की सुरक्षा का वह सारा इंतज़ाम करेगी और उसके ख़िलाफ़ कोई गड़बड़ी बर्दाश्त नहीं करेगी, तो यह इशारा किया जाता है कि इसके ख़िलाफ़ कोई साज़िश चल रही है।अमरनाथ यात्रा की तरह इस काँवड़ यात्रा की ‘सुरक्षा’ की बात की जाती है। इसमें एक दुष्ट संकेत छिपा हुआ है कि काँवड़ यात्रा पर आतंकवादी हमला हो सकता है। यह  हास्यास्पद है लेकिन सरकार इसपर  बड़ी गंभीरता से कार्रवाई करती है और वरिष्ठ अधिकारी भी। 
काँवड़ यात्रियों को यह अहसास दिला दिया गया कि वे सरकारी संरक्षण में हैं। उनकी हिंसा को शिव भक्तों का क्रोध कहकर बाक़ी जनता को उसे बर्दाश्त करने को कहा जाता है। 

क्या यह हमेशा से ऐसे ही था? 2014 के पहले काँवड़ यात्रा का यह रूप नहीं था। 2015 पहला साल था जब हमने काँवड़ यात्रा में तिरंगे झंडे देखे।यह उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखण्ड के इलाक़ों में देखा गया। स्पष्ट था कि इस धार्मिक अवसर में राष्ट्रवाद की घुसपैठ कराई जा रही थी।यह निश्चय ही स्वतःस्फूर्त नहीं था। तिरंगे और भगवे को साथ साथ लेकर चलने वाले काँवड़ यात्री दो तरह के कवच से लैस थे: धर्म और दूसरा राष्ट्रवाद। वे धर्म और राष्ट्र के रक्षक थे। उसके वाहक भी। बाक़ी सारे लोगों का काम उनकी सेवा करना था।

तक़रीबन इसी समय से यह चर्चा भी सुनाई पड़ने लगी कि काँवड़ यात्री इस दौरान पूर्ण सात्विक भोजन करते हैं इसलिए यात्रा के रास्ते में किसी प्रकार की माँस-मछली की दुकान खुली नहीं होनी चाहिए। यह सीधे सीधे मुसलमानों के कारोबार पर हमला था। एक महीने के लिए माँस की दुकानों को बंद करने का सरकारी और ग़ैर सरकारी अभियान चलाया जाने लगा।किसी ने नहीं पूछा कि माँस की दुकानें क्या काँवड़ यात्रियों को माँस खाने के लिए उकसाती हैं। वे अगर एक पवित्र उद्देश्य से तपस्या कर रहे हैं तो उन्हें इन दुकानों की ओर देखने की ज़रूरत ही क्या है? उनके कंधे पर काँवड़ है, हृदय में शिव हैं और लक्ष्य उन तक पहुँचना है तो फिर किसी और चीज़ पर उनका ध्यान जाए ही क्यों? 
उसके कुछ सालों बाद, 2024 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस शाकाहार और सात्विक आहार के मसले को एक और रूप दिया। कहा गया कि हर दुकानदार, होटल, ढाबे वाला अपना और अपने कर्मचारियों का नाम बड़े बड़े अक्षरों में प्रदर्शित करेगा जिससे मालूम हो कि वे किस धर्म के हैं।ऐसा इसलिए किया जा रहा था कि काँवड़ यात्री यह तय कर सकें कि वे  किसकी दुकान से सामान लेंगे और किस होटल में खाएँगे।यह इसलिए कि वे यात्रा के दौरान सात्विक भोजन करते हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे उसी दुकान में जाएँ जहाँ सात्विक सामग्री मिलती है।
इस आदेश में यह साफ़ लिखा नहीं था लेकिन इशारा साफ़ था कि मुसलमानों की दुकानों से काँवड़ यात्री सामान न लें या उनके होटल में न खाएँ, यह निश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि वे स्पष्ट तौर पर जान सकें कि दुकान किसकी है। या मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का अप्रत्यक्ष तरीका था। सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ अर्जी लगाई गई और अदालत ने यह आदेश स्थगित किया। लेकिन  इस साल फिर यह आदेश नई शक्ल में जारी किया गया। इस बार कहा गया कि सभी दुकान वालों को ऐसा क्यू आर कोड बार लगाना होगा जिससे मालिक का नाम पता चले। इसके ख़िलाफ़ भी फिर अदालत  का दरवाज़ा खटखटाया गया है और उसने सरकार से जवाब माँगा है।
बी बी सी ने काँवड़ यात्रा के रास्ते में पड़ने वाले ढाबों  और दुकानों की हालत पर रिपोर्ट में लिखा है कि इस दौरान प्रायः  मुसलमान अपनी दुकान बंद कर देते हैं और मुसलमान कामगारों को महीने भर एक लिए काम छोड़ना पड़ता है।हिंदुत्ववादी संगठन इस बीच ‘मैं हिंदू हूँ’ लिखी हुई झंडियाँ ठेलों, दुकानों पर लगा रहे हैं। इससे स्पष्ट रूप से एक विभाजन दिखलाई पड़  रहा है। इशारा है कि जिन दुकानों में यह झंडी नहीं लगी है,उनसे कुछ नहीं ख़रीदना है। 
इस कदम को यह कहकर जायज़ ठहराया जा रहा है कि मुसलमान भी तो हलाल प्रमाणपत्र देखकर सामान ख़रीदते हैं। यह कहते समय लोग भूल जाते हैं या छिपा ले जाते हैं कि मुसलमान यह नहीं देखते कि दुकान हिंदू की है या ईसाई की। वे सिर्फ़ हलाल प्रमाणपत्र देखते हैं और वह सामान पर लगा होता है।लेकिन यह सबको मालूम है कि असल मक़सद सात्विक आहार सुनिश्चित करना नहीं है बल्कि मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करना है।

इस तरह काँवड़ यात्रा का उद्देश्य ही बदल दिया गया है। उसका मक़सद अब शिव का आशीर्वाद लेना नहीं है बल्कि मुसलमानों को प्रताड़ित करना है। इस बहाने हिंदुओं को यह भी कहा जा रहा है कि सड़कें उनकी हैं, सार्वजनिक स्थलों पर उनका क़ब्ज़ा है और वहाँ वे जैसे चाहे बर्ताव कर सकते हैं। ताक़त का यह अहसास राज्य हिंदुओं को दे रहा है।

काँवड़ यात्रा में काँवड़ियों को पूरी छूट को मुसलमानों पर बढ़ती पाबंदियों के साथ मिलाकर देखिए। वे सड़क पर नमाज़ नहीं पढ़ सकते, अज़ान के चलते मुअज़्ज़िन गिरफ़्तार किया जा सकता है, अपनी छत पर भी वे सामूहिक नमाज़ नहीं पढ़ सकते। राज्य साफ़ साफ़ कह रहा है  कि सार्वजनिक स्थलों पर हिंदुओं का पूरा अधिकार है, मुसलमानों को अपनी हद में रहना होगा। 
यह सब कहते हुए हमें ध्यान रखना पड़ेगा कि यह अभी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में हो रहा है। बिहार और झारखंड में सुल्तानगंज से बैद्यनाथ धाम तक की काँवड़ यात्रा में वह उपद्रव, हिंसा नहीं देखी जाती जो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड या दिल्ली में काँवड़ यात्रा की विशेषता है।यहाँ माँस को लेकर कोई बेचैनी नहीं है।हाल में जनता दल (यू) के नेता ललन सिंह ने अपने यहाँ भोज करवाया जिसमें माँस भी परोसा गया। उन्होंने कहा कि जो सावन मानते हैं उनके लिए अलग भोजन है और जो नहीं मानते हैं, उनके लिए अलग भोजन है। खाने वालों में हिंदू ही अधिक रहे होंगे। किसी ने आपत्ति नहीं की। इसका मतलब साफ़ है: आम  हिंदुओं का स्वभाव हिंदुत्ववादी शाकाहार और सात्विकता से विकृत नहीं हुआ है। भाजपा ने कोशिश न की हो ऐसा नहीं लेकिन 
बिहार और झारखंड में राज्य सरकारों ने इस अवसर का राजनीतीकरण नहीं होने दिया है। इसीलिए इस यात्रा पर हिंदुत्व का रंग इन राज्यों में अब तक नहीं चढ़ पाया है।
यह न मानना चाहिए कि बिहार या झारखंड या पंढरपुर की वारी यात्रा या दूसरी ऐसी तीर्थ यात्राएँ बची रह जाएँगी।हिंदुओं के हर धार्मिक अवसर का हिन्दुत्वीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है। अब उसमें राज्य शामिल हो गया है।क्या हिंदू कभी यह समझ पाएँगे कि वे अब हिंदुत्ववादी परियोजना के हथियार मात्र बनकर रह गए हैं?