ईरान के परमाणु स्थलों पर अमेरिकी हमलों ने उसकी राष्ट्रीय संप्रभुता पर बहस छेड़ दी है। स्तंभकार और जाने माने चिंतक अपूर्वानंद ने इसराइली लेखक गिदोन लेवी को कोट करते हुए कुछ सवाल उठाए हैं। जरूर पढ़िएः
हिंदुत्ववादी भारतीयों को अमरीका के उपराष्ट्रपति जे डी वैन्स का बयान सुनकर संतोष हो रहा होगा। बॉम्बर 2 से ईरान के 3 ठिकानों पर बम गिराने के बाद वैन्स ने कहा कि हमने ईरान पर हमला नहीं किया है। हमने उसके सैन्य ठिकानों पर हमला नहीं किया है। हमें उनके शहरी ठिकानों पर हमला नहीं किया है। हमने सिर्फ़ ईरान के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर हमला किया है।
ईरान की सीमा का अतिक्रमण करके उसके परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर हमला करने के बाद अमरीका के उपराष्ट्रपति ने सफ़ाई दी कि हमारा युद्ध ईरान से नहीं है, हमारा युद्ध उसके परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम से है। ईरान को युद्ध करना नहीं आता। उसे राष्ट्रपति ट्रम्प की शांति वार्ता का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए।
लगता है, अमरीका ने भारत सरकार से प्रेरणा ली है। क्योंकि उसका यह बयान कुछ कुछ भारत सरकार के बयान की तरह है जो उसने पाक ठिकानों पर हमला करने के बाद दिया। उसका भी कहना था कि उसने पाकिस्तान पर हमला नहीं किया है।सिर्फ़ वहाँ रह रहे आतंकवादियों के ठिकानों को निशाना बनाया है।
लेकिन जैसे पाकिस्तान ने भारत के बयान को अस्वीकार कर दिया, वैसे ही ईरान से अमरीका के बयान को नामंज़ूर कर दिया है। पाकिस्तान ने भारतीय जहाजों को मार गिराया और उसके ड्रोन के ज़रिए भारतीय सीमा के भीतर बमबारी की। ईरान ने अमरीका को उसके हमले के जवाब का इंतज़ार करने को कहा है।
अमरीका के भीतर एक दृष्टिकोण यह है कि ट्रम्प ने यह बमबारी क़रके इसराइल को एक बहाना दिया है कि वह अब पीछे हट जाए। इसराइल का मक़सद ईरान को परमाणु बम हासिल करने से रोकने का ही तो था! वह हमने कर दिया। ट्रम्प ने 3 ठिकानों पर बम गिराने के बाद डींग मारी है कि हमने ईरान से बम ले लिए हैं। यहाँ शायद इसराइल के प्रधानमंत्री को इशारा है कि भाई तुम हमसे जो चाहते थे, वह हमने कर दिया; अब तुम बस करो।
यह एक अलग बात है कि अनेक रक्षा विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अमरीका ने बम ज़रूर गिराए हैं लेकिन उसी ईरान की परमाणु ऊर्जा क्षमता को कोई निर्णायक हानि नहीं हुई है। वैसे ही जैसे भारतीय हमले मात्र सांकेतिक महत्त्व के थे।लेकिन दोनों में एक बड़ा फ़र्क है।भारतीय सरकार अपनी हिंदुत्ववादी जनता को संतुष्ट करना चाहती थी, वहाँ अमरीका नेतन्याहू को संतुष्ट करना चाहता है।
नेतन्याहू ने ईरान पर हमला करने के बाद ही कहना शुरू कर दिया था कि अमरीका को ईरान पर बम गिराना चाहिए। पहले तो ट्रम्प ने हिचकिचाहट दिखाई, फिर कहा कि 15 दिन बाद कुछ तय करेगा और यह कहने की रात ही अपने बमबाज जहाज ईरान में भेज दिए।
अमरीका के हमलों के बाद सारे पश्चिमी देशों ने ईरान से ही कहा कि अब उसे शांति के लिए तैयार हो जाना चाहिए। उनकी नक़ल करते हुए भारतीय सरकार ने भी कहा अब आक्रामकता में कमी आनी चाहिए।यह भारत के प्रधानमंत्री ने इसराइल या अमरीका को नहीं, ईरान को कहा। जिस पर हमला किया जा रहा है उसी को सलाह दी जा रही है कि पीछे हट जाओ।
लेकिन क्या मक़सद सिर्फ़ ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने का था? नेतन्याहू ने हमले के बाद बार-बार कहा कि उसका मक़सद ईरान में सत्ता परिवर्तन करने का है। उसने ईरान के प्रमुख सैन्य अधिकारियों की हत्या की है और धमकी दी कि वह ईरान के प्रमुख आयतुल्लाह ख़ामेनई की भी हत्या करेगा। ट्रम्प ने नेतन्याहू के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि वह चाहे तो ख़ामेनई की हत्या कर सकता है।
इसराइली लेखक और स्तंभकार गिडियन लेवी ने पूछा कि क्या किसी देश को दूसरे देश के प्रमुख की हत्या करने का अधिकार होना चाहिए? क्या किसी देश को दूसरे देश में सत्ता पलट करने का अधिकार होना चाहिए? अगर यह ट्रम्प कह सकता है तो क्या कोई और ट्रम्प के बारे में नहीं कह सकता? क्या नेतन्याहू कह सकता है कि वह ईरान के प्रमुख की हत्या कर सकता है तो यही बात उसके बारे में नहीं कही जा सकती?
लेवी पूछते हैं, “किन वैज्ञानिकों की हत्या की जा सकती है? ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों की, हाँ? इसराइली परमाणु वैज्ञानिकों की, नहीं? किस आधार पर? दोनों ही हत्या के सबसे भयानक उद्योग की सेवा में लगे वैज्ञानिक हैं। इससे स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि क्या एक देश को परमाणु हथियार रखने का अधिकार है जबकि दूसरे को नहीं।”
लेवी आगे लिखते हैं,“किसी भी पक्ष की तरफ़ से राष्ट्राध्यक्षों की हत्या की मांग जायज नहीं है। हमारा नेतन्याहू अब ग़ज़ा में हजारों लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार है। क्या वहां बचे हुए राष्ट्र को बचाने के लिए उसकी हत्या की मांग करना जायज़ है? कई इसराइली भी सोचते हैं कि वह एक तानाशाह है, कि वह देश को नष्ट कर रहा है और इसराइली लोकतंत्र को बर्बाद कर रहा है, कि वह इतिहास का सबसे घृणित यहूदी है … फिर भी, यह आशा की जानी चाहिए कि कोई भी उसकी हत्या पर चर्चा करने की कल्पना भी नहीं करेगा।”
अफ़सोस! ये सवाल कोई नहीं कर रहा। क्यों इसराइल को परमाणु बम रखने का अधिकार होना चाहिए और ईरान को नहीं। आख़िर पिछले 40 सालों में इसराइल ने जितने युद्ध किए हैं, ईरान ने नहीं।फिर बड़ा ख़तरा कौन है? इस बड़े ख़तरे इसराइल को क्यों नहीं शस्त्र विहीन किया जाना चाहिए?
जो सवाल कुछ इसराइली बुद्धिजीवी कर रहे हैं, वह दूसरे देशों में कोई नहीं कर रहा। अफ़सोस की बात है कि भारत जैसे देश भी यह सवाल नहीं कर पा रहे। अमरीका को एकतरफ़ा तौर पर तय करने का अधिकार दे दिया है कि किस देश पर कौन हमला करेगा। कौन परमाणु ऊर्जा विकसित कर सकता है और कौन नहीं? क्या अब यह तय हो गया है कि जिसके पास ज़्यादा बम होंगे, वह दुनिया पर राज करेगा? क्या राष्ट्रों की संप्रभुता के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी गई है?