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आख़िर हम क्यों राष्ट्रवाद के नाम पर मूर्खता ओढ़ लें?

विश्वविद्यालय पर हमेशा ही राष्ट्र के नाम पर कब्ज़ा करना आसान रहा है। यह सोवियत संघ में स्टालिन ने समाजवादी राष्ट्रवाद के नाम पर किया, हिटलर ने जर्मनी में किया, ईरान में इस्लामी राष्ट्रवाद के सहारे यह किया गया, अभी चीन में चीनी राष्ट्रवाद के नाम पर यही किया जा रहा है। भारत के विश्वविद्यालय प्रायः इससे मुक्त रहे हैं क्योंकि राष्ट्रवाद का भूत उन पर सवार नहीं रहा है। फिर आज क्या हम इतने कमजोर हो गए हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर मूर्खता ओढ़ लें?     
अपूर्वानंद
भारत में अब एक राष्ट्रवाद प्रमाणन बोर्ड स्थापित करने की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश सरकार के निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी क़ानून के मसविदे के प्रकाशित होने के बाद तो यह और भी ज़रूरी लगने लगा है। राज्य सरकार के इस नए अध्यादेश के अनुसार निजी विश्वविद्यालय का उद्देश्य होगा राष्ट्रीय एकता, धर्म निरपेक्षता, सामाजिक सामंजस्य, अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव, नैतिकता का निर्माण और देशभक्ति का विकास। साथ ही, जिस बात पर मीडिया का ध्यान सबसे अधिक गया है क्योंकि ऐसा करने का मक़सद भी यही रहा होगा, वह यह कि निजी विश्वविद्यालय को सरकार को यह हलफ़नामा देना होगा कि परिसर में किसी राष्ट्र विरोधी हरक़त की इजाजत नहीं होगी।
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नए विश्वविद्यालय को स्थापित करने से जुड़ी हुई ख़बरों में तलाशता रहा कि कहीं तो लिखा हो कि विश्वविद्यालय का मक़सद ज्ञान का निर्माण होगा।  निराशा हुई। शायद यह उम्मीद ही गलत थी। ज्ञान का निर्माण तो भारत के ऋषि-मुनि जाने कब कर गए हैं। अब हमें उस ज्ञान का कीर्तन भर करना है।
विश्वविद्यालयों को अब नौजवानों को यह बताते रहना है कि हम विश्व गुरु थे और सारा ज्ञान हमारे पूर्वज वेदों में जमा कर गए हैं। हमारा काम बस इसका जाप करते रहना है।
जिन्होंने इस अध्यादेश को मज़ाक में नहीं गंभीरता से लिया, उनके ख्याल अलग हैं। उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल कांग्रेस के एक नेता ने इसे ख़तरनाक बताया और कहा कि यह दरअसल विश्वविद्यालयों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को थोपने की कोशिश है। सरकार इस प्रावधान के माध्यम से यह धमकी भी दे रही है कि अगर उसने वहाँ किसी राष्ट्र विरोधी हरक़त की बू पाई तो वह विश्वविद्यालय की मान्यता रद्द कर देगी। उत्तर प्रदेश के निजी विश्वविद्यालयों के संघ के प्रतिनिधि को हालाँकि इस अध्यादेश से कोई ऐतराज नहीं है। उन्हें इसमें और स्वायत्तता दिख रही है। विश्वविद्यालय स्थापित करने वाले जो ज़्यादातर लोग हैं उनका मक़सद भी ज्ञान देना नहीं होता, उसके जरिए पैसा, और हो सके तो यश कमाना होता है। इसलिए वे कह रहे हैं कि इस अध्यादेश में कुछ भी नया नहीं है। वे लोग तो इन सारी बातों का ध्यान पहले से ही रखते रहे हैं।
अगर हम अभी भी यह मानते हैं कि विश्वविद्यालय एक ऐसी संस्था है जिसकी भारत को ज़रूरत है तो हमें उत्तर प्रदेश सरकार को कहना होगा कि विश्वविद्यालय की उसकी समझ में खोट है। विश्वविद्यालय का काम वह नहीं है जो सरकार उससे लेना चाहती है। उसका काम ज्ञान से जुड़ा हुआ है और ज्ञान के लिए पहली शर्त दिमागी आज़ादी है।

    कोई भी राज्य या वहाँ की सरकार विश्वविद्यालयों पर इस किस्म की बंदिश नहीं लगा सकती जो किसी भी तरह ज्ञान से जुड़े किसी भी काम को प्रभावित करे। उदाहरण के लिए, भारत के विश्वविद्यालयों में भारत की कश्मीर नीति पर चर्चा होगी या नहीं, वह उसके पाठ्यक्रम में शामिल होने योग्य मानी जाएगी या नहीं! अगर हाँ तो फिर वह चर्चा किस रूप में होगी? क्या उसके दौरान संजय काक की कश्मीर पर फ़िल्म दिखलाई जा सकेगी?

    क्या उसमें कश्मीर की आज़ादी के पैरोकारों के पक्ष पर भी विचार संभव होगा? क्या इससे जुड़ी पाठ्य सामग्री के लिए सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रवाद प्रमाणन बोर्ड से स्वीकृति लेनी होगी? उसी प्रकार विनायक दामोदर सावरकर को पाठ्यक्रम में शामिल करते हुए क्या पढ़ना है और क्या नहीं, यह कौन बताएगा?

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    जोधपुर विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में निवेदिता मेनन के वक्तव्य को राष्ट्र विरोधी ठहराकर उनपर मुक़दमा कर दिया गया। आयोजक राजश्री राणावत को तो निलंबित ही कर दिया गया। हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्नेहसता मानव को महाश्वेता देवी की कहानी का मंचन करने के चलते राष्ट्र विरोधी कहा गया और उनके ख़िलाफ़ जाँच की तकलीफ़देह कार्रवाई हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के सेमिनार पर  भी राष्ट्र विरोधी होने का आरोप लगाकर उसे होने ही नहीं दिया गया।
    भारत भर में ऐसे सभी प्रसंगों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) के द्वारा ऐसे आरोप लगाये जाते हैं और इन्हें प्रायः विवि प्रशासन मान भी लेता है। तो अभी तक तो राष्ट्रवाद प्रमाणन का काम यही संगठन कर रहा है। आगे?
    राष्ट्रवाद के फायदों का पता भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को 2016 की फ़रवरी में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफ़जल गुरु की बरसी पर हुई एक छोटी मीटिंग को लेकर एबीवीपी द्वारा किए गए हंगामे के बाद पता चला। मुझसे पार्टी के एक नेता ने कहा कि हमने राष्ट्रवाद का दाँव चला और वह कामयाब रहा!
    चार साल बाद भी बीजेपी के लिए राष्ट्रवाद दुधारू गाय है। लोकसभा का ताज़ा चुनाव भी इसी नारे पर जीता गया है। इसलिए इसमें राजनीतिक संभावना बनी हुई है। यही उत्तर प्रदेश सरकार के इस क़दम से भी साबित होता है। लेकिन जो बीजेपी के लिए लाभकारी है वह अनिवार्यतः देश के लिए शुभ हो, ऐसा नहीं है। बल्कि यही देखा गया है कि वह देश के लिए हानिकारक ही होता है।
    राष्ट्रवाद बहुसंख्यकों की गोलबंदी के लिए कारगर साबित हुआ है लेकिन वह विश्वविद्यालय के लिए घातक है। राष्ट्रवाद हर देश में बहुसंख्यकवाद का सम्मानजनक नाम है। हमेशा ही उस पर राज्य का और उसकी ओर से सरकार का कब्जा रहता है। राष्ट्रवाद क्या है और क्या नहीं, यह सरकार तय करती है। और सरकार आख़िरकार एक राजनीतिक संस्था है। जिस दल की सरकार होती है, उसी की विचारधारा सरकारी होती है। इसलिए राष्ट्रवाद भले ही सुनने में व्यापक लगे लेकिन जनता के लिए उसका अर्थ हमेशा सत्ताधारी दल तय करता है। देश में चाहे राष्ट्रवाद की गर्द ने आँखों के आगे पर्दा डाल दिया हो, विश्वविद्यालय का काम उसकी परीक्षा करने का है न कि उसका अनुकरण करने का या प्रवक्ता बनने का।
    विश्वविद्यालय का काम क्या है? उदाहरण के लिए आप येल यूनिवर्सिटी को देखें। ज्ञान का विस्तार और साझेदारी, नवाचार और आगामी पीढ़ियों के लिए सांस्कृतिक और वैज्ञानिक जानकारियों को संरक्षित करना। यह उसका मक़सद है। दूसरे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों के उद्देश्य भी इसी प्रकार के हैं। वे कोई राष्ट्रवाद के प्रशिक्षण गृह नहीं हैं। न तो ऑक्सफ़ोर्ड, न ही हार्वर्ड राष्ट्रवाद को अपना लक्ष्य मानते हैं। क्या भारत में ही नालंदा का यह उद्देश्य था?
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    विश्वविद्यालय का लक्ष्य एक विश्वजनीन दृष्टि का विकास है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह स्थानीयता से विच्छिन्न है। फिर से अगर येल का उदाहरण लें तो वह अमेरिका से नहीं, जिस जगह वह है, उस न्यू हैवन में ख़ुद को अवस्थित करता है। पूरे विश्व में लोगों और संस्थाओं से संपर्क और आदान-प्रदान के माध्यम से वह सांस्कृतिक समझ में इज़ाफा करता है, मानवीय स्थिति को बेहतर बनाता है, ब्रहमांड के रहस्यों में गहरे तक डूबता है और विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों के लिए नेतृत्व तैयार करता है। यही एक वास्तविक विश्वविद्यालय का काम होना चाहिए।
    अभी राष्ट्रपति ने संसद के अपने अभिभाषण में रवीन्द्रनाथ टैगोर  का नाम स्मरण किया। उन्होंने यह रस्मी तौर पर किया हो! कुछ का कहना है कि बीजेपी अब बंगाल पर नज़र लगाए है, इसलिए टैगोर का नाम आया। जो हो, टैगोर ने आज से सौ साल पहले देश और विश्व को राष्ट्रवाद के ज़हर से सावधान किया था। जापान जैसे राष्ट्रवादी देश में  जाकर उन्होंने यह चेतावनी दी। जापान के लोग उनसे दुखी और नाराज़ हो गए लेकिन टैगोर ने लोकप्रियता के लोभ में आकर अपना स्वर मंद नहीं किया।
    टैगोर को पढ़ने पर समझ में आता है कि राष्ट्रवाद वस्तुतः एक नशा है जो लोगों को आनंद की अनुभूति देता है लेकिन उन्हें निर्णय और कार्य करने की क्षमता से वंचित करता है।
    विश्वविद्यालय पर हमेशा ही राष्ट्र के नाम पर कब्ज़ा करना आसान रहा है। यह सोवियत संघ में स्टालिन ने समाजवादी राष्ट्रवाद के नाम पर किया, हिटलर ने जर्मनी में किया, ईरान में इस्लामी राष्ट्रवाद के सहारे यह किया गया, अभी चीन में चीनी राष्ट्रवाद के नाम पर यही किया जा रहा है। भारत के विश्वविद्यालय प्रायः इससे मुक्त रहे हैं क्योंकि राष्ट्रवाद का भूत उन पर सवार नहीं रहा है। फिर आज क्या हम इतने कमजोर हो गए हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर मूर्खता ओढ़ लें?     
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