बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर ज़ोर-शोर से कराये गये स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन यानी एसआईआर का नतीजा तमाम सवालों को जन्म दे रहा है। चुनाव आयोग ने इसे 'शुद्धिकरण अभियान' के रूप में प्रचारित किया था लेकिन हकीकत इसके उलट है। आयोग की अंतिम मतदाता सूची में 14.35 लाख से अधिक डुप्लिकेट नाम मौजूद हैं जबकि इस गड़बड़ी को रोकने के लिए आयोग के पास सॉफ्टवेयर उपलब्ध था। यह कोई लापरवाही नहीं बल्कि साजिश का संकेत है जो तटस्थ अंपायर बतौर आयोग की भूमिका को संदिग्ध बना रहा है।
21वीं सदी में नाड़ी देख रहा है आयोग
21वीं सदी में जब मेडिकल साइंस एक बूंद खून से बीमारियां पकड़ लेती है, तब नाड़ी देखकर बीमारी बताना मूर्खता है या शातिरपन। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने SIR के बीच यही सब किया। SIR में नेशनल इलेक्टोरल रोल्स प्यूरीफिकेशन (NERP) का इस्तेमाल ही नहीं किया गया जिसे पूर्व CEC डॉ. नसीम जैदी ने 2016 में 'सुपर टूल’ की तरह लॉन्च किया था। यह सॉफ्टवेयर मशीन लर्निंग के जरिए नाम, उम्र, पता, फोटो मैच कर इंट्रा-, इंटर-कॉन्स्टिट्यूएंसी और इंटर-स्टेट डुप्लिकेट पकड़ता है। 2018 में इसे चुनाव अधिकारियों के EROnET ऐप से भी जोड़ दिया गया था। मतदाता सूची को ठीक करने में इसका काफ़ी अच्छा इस्तेमाल हो सकता था और 2024 लोकसभा चुनावों में भी इसका इस्तेमाल हुआ। लेकिन जिस बिहार में SIR को लेकर काफ़ी विवाद था, वहाँ आयोग जैसे ‘स्मृतिलोप' का शिकार हो गया। इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल ही नहीं किया। यही नहीं, राज्य CEO को इसका एक्सेस भी नहीं दिया गया। ज़ाहिर है, यह सब एक इरादे के तहत किया गया और मतदाता सूची में 14 लाख से ज़्यादा डुप्लीकेट वोटर बन गये हैं।
पारदर्शिता पर पर्दा
रिपोर्टर्स कलेक्टिव की टीम (आयुषी कार, विष्णु नारायण) ने इस सिलसिले में विस्तार से रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट के मुताबिक़:
- बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों की अंतिम मतदाता सूची में 14.35 लाख डुप्लीकेट वोटर हैं।
- इन मतदाताओं का नाम, पता, रिश्तेदार एक हैं पर उम्र में 0-5 साल का फ़र्क़ है।
- इनमें 3.42 लाख मतदाताओं की उम्र में भी कोई फ़र्क़ नहीं है।
- 1.32 करोड़ मतदाताओं का पता संदिग्ध है या उसका अस्तित्व ही नहीं है।
- ऐसे पते भी हैं जिन पर पाँच सौ से लेकर आठ सौ तक मतदाता दर्ज हैं।
रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने इस सिलसिले में केंद्रीय चुनाव आयोग और बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी विनोद सिंह गुंजियाल को ईमेल से सवाल भेजे लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। उनके कार्यालय जाने पर भी किसी जूनियर अधिकारी ने बात नहीं की। काफ़ी जद्दोजहद के बाद जब सीईसी मिले तो उन्होंने डुप्लीकेट वोटर पकड़ने वाले सॉफ्टवेयर के संबंध में जवाब देने से इंकार कर दिया। यही नहीं, धमकी भी दी कि 'मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट लागू है, रिपोर्ट करने से पहले सोच लो!'
सीईसी विनोद सिंह गुंजियाल भूल गये कि आचार संहिता दलों-नेताओं के लिए है, पत्रकारों के लिए नहीं। ये रवैया साबित करता है कि आयोग ऊपर से नीचे तक डुप्लिकेट मतदाताओं को रोक सकने वाले सॉफ्टवेयर की उपलब्धता को छिपाता रहा। साफ़ है कि ऐसा किसी के इशारे पर किया गया वरना उसके लिए यह सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए।
डुप्लिकेट वोटर या राजनीतिक हथियार?
2020 चुनाव में एनडीए (नीतीश-BJP) और महागठबंधन (RJD-कांग्रेस-लेफ्ट) का वोट शेयर लगभग बराबर (37.2%) था। दोनों के बीच महज 11,150 वोटों का फर्क था। NDA ने 125 सीटें और महागठबंधन ने 110 सीटें जीती थी। हालाँकि नीतीश कुमार 9 अगस्त 2022 को NDA छोड़ RJD के साथ गये थे और इंडिया गठबंधन की धुरी बन रहे थे। लेकिन 28 जनवरी 2024 को फिर उन्होंने पलटी मारी और NDA में शामिल हो गये।
यानी मौजूदा स्थिति 2020 जैसी ही है। काँटे का मुकाबला है। लेकिन एक फ़र्क़ ये आया है कि नीतीश कुमार की सेहत पर सवाल हैं और राहुल गांधी का EBC-केंद्रित सामाजिक न्याय एजेंडा और जाति जनगणना से पैदा हुए नए समीकरण बिहार का राजनीतिक संतुलन बदल सकते हैं। ऐसे में लाखों डुप्लिकेट वोटर (एक से ज्यादा वोट डालने की क्षमता) चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। अगर आयोग ने क्षमता होने के बावजूद उन्हें रोका नहीं तो इशारा किसी बड़े षड्यंत्र की ओर है।