जब मुख्यधारा का मीडिया यह सिद्ध करने में लगा हो कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस से कहीं अधिक योगदान और बलिदान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का था और राष्ट्रीयता की सच्ची भावना उन्हीं के भीतर भरी है तब येल विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रोहित डे और हाइफा(इजराइल) विश्वविद्यालय में एशियाई अध्ययन की एसोसिएट प्रोफेसर ओर्नित शानी ने सितंबर 2025 में आई ‘असेंबलिंग इंडियाज कांस्टीट्यूशनः ए न्यू डेमोक्रेटिक हिस्ट्री’(भारतीय संविधान का निर्माणः एक नया लोकतांत्रिक इतिहास) के माध्यम से एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
यह पुस्तक इस अभिजात दृष्टिकोण को नकारती है कि संविधान का निर्माण महज 299 विद्वानों, वकीलों और जनप्रतिनिधियों ने किया और उसकी बहस महज महज उतनी ही है जितनी संविधान सभा की पांच हजार पृष्ठों की बहस के नाम से प्रकाशित है। वास्तविकता यह है कि जिस समय भारत का संविधान बन रहा था उस समय देश के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों समेत अन्य तबकों के भीतर संविधान से नई अपेक्षाएं अंकुरित हो रही थीं। वे अपनी सभाओं में पारित प्रस्तावों के माध्यम से अपनी मांगों को संविधान सभा की सलाहकार समितियों के समक्ष रख रहे थे।
यह पुस्तक यह बताती है कि जनवरी 1947 में अकोला में हुए अखिल भारतीय महिला सम्मेलन ने किस प्रकार महिला अधिकारों का चार्टर तैयार किया था और उसे संविधान सभा को भेजा था। इसी तरह नाई जाति के लोगों ने किस तरह की मांग उठाई थी और उससे संविधान सभा को अवगत कराया था। संविधान निर्माण के दौरान न सिर्फ बच्चों के अधिकारों का सवाल उठा बल्कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सवाल भी उठा और वह संविधान सभा के बाहर होने वाली सभाओं के माध्यम से उठाया गया। किस तरह खासी राज्य के प्रतिनिधि सरदार पटेल से मिले और अपनी बात रखी।
दोनों लेखक बताते हैं कि मई 1947 में बंगाल में पद्मा नदी के मुहाने पर बसे मोसालची समुदाय के 2000 परिवार की ओर से संविधान सभा के अध्यक्ष को पत्र लिखा गया कि चूंकि अब तक सब कुछ अनिश्चित था इसलिए हमने अपनी कोई मांग नहीं रखी थी। लेकिन अब जबकि संविधान का निर्माण हो रहा है तो हम चाहते हैं कि हमारे साथ न्याय हो और हमें विधानसभा में अलग प्रतिनिधित्व दिया जाए साथ ही हमारी संस्कृति और परंपरा की रक्षा की जाए।
चूंकि यह समुदाय नदी की धारा से निरंतर बदलती रहने वाली धरती पर रह रहा था इसलिए उन्हें इस बात की चिंता थी कि कैसे अंतरराष्ट्रीय सीमा के बदलने के साथ वे दूसरे देश के नागरिक बन सकते हैं। वैसे तो वे इस्लाम के अनुयायी कहे जाते थे लेकिन उन्हें मुस्लिम समुदाय भी अपना हिस्सा नहीं मानता था। इसलिए वे अपनी एक सुनिश्चित स्थिति चाहते थे। ऐसे ही नाई समुदाय ने संविधान सभा को अपना ज्ञापन देते हुए मांग की थी कि उनके लिए आवास और रोजगार की व्यवस्था की जाए। उन्हें अपनी गरीबी की चिंता थी और यह भी चिंता थी कि संसदीय संस्थाओं में पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व कैसे होगा।
लेखकों ने बड़ी मेहनत के साथ उन तमाम दस्तावेजों को जमा किया है जो उत्तर में हिमालय की गोद में बसे लाहौल स्पीति में तैयार हो रहे थे तो दक्षिण के कुट्टेनगुंडम में बन रहे थे। एक ओर वे सौराष्ट्र देश और चिटगांव की पहाड़ियों में तैयार किए जा रहे थे तो दूसरी ओर स्टाकहोम और कैलीफोर्निया और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी बन रहे थे। एक ओर देसी रियासतों में बसी 9.3 करोड़ की आबादी अपने भविष्य के लिए चिंतित थी तो दूसरी ओर 3 करोड़ आदिवासी जनता अपने अस्तित्व को लेकर जागरूक हो रही थी।
रोहित डे और उनकी सहलेखिका ओर्नित शानी का मानना है कि तथ्यात्मक रूप से यह सही है कि संविधान का ढांचा 1919 और 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है और जब 9 दिसंबर 1946 को पहली बैठक हुई तब महज 205 लोग उपस्थित थे जिनमें दस महिलाएं थीं। लेकिन संविधान निर्माण की यह प्रक्रिया संसदीय कक्ष के भीतर तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उसके बाहर भारत जैसे विभाग भूभाग से लेकर भारत के बारे में चिंता करने वाले अंतराष्ट्रीय स्तर पर बसे समुदायों में भी तेजी से चल रही थी। लोग तरह तरह के असमंजस में थे। भारत का विभाजन हुआ नहीं था लेकिन उसके घने बादल छाए हुए थे। लोगों को मालूम नहीं था कि उनकी नियति क्या होगी। इसलिए उनकी सक्रियता बेचैनी भरी भी थी।
रोहित डे अपने नए किस्म के इतिहास के माध्यम से यह कह रहे हैं कि अब तक भारत के विभिन्न राजनेताओं और विद्वानों ने संविधान के दायरे को सीमित करते हुए यह व्याख्या की है कि भारतीय संविधान पर तो विदेशी प्रभाव है और उसमें भारतीय परंपरा के तत्व अनुपस्थित हैं। उसमें भारतीय समाज की समझ और उसका जीनियस अनुपस्थित है। इसी आधार पर संघ परिवार ने भी आरंभ में संविधान को मानने से इंकार कर दिया था और उसका कहना था कि जब हमारे पास ‘मनुस्मृति’ पहले से है तो हमें नए संविधान की क्या आवश्यकता है। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी संविधान निर्माण में अपना अधिकतम श्रेय लेने से नहीं चूकती।
ग्रैनविल आस्टिन जैसे अमेरिकी इतिहासकार ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संविधान का निर्माणः एक राष्ट्र की आधारशिला’ में यह कहा है कि संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया कांग्रेस के चार नेताओं राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभभाई पटेल और मौलाना अबुल कलाम आजाद के इर्द गिर्द घूम रही थी। वे ही लोग कांग्रेस पार्टी के प्रमुख थे, वे ही अंतरिम सरकार में थे और वे ही संविधान सभा को संचालित कर रहे थे। उधर यह कहने वाले भी हैं कि संविधान का निर्माण तो अकेले डॉ भीमराव आंबेडकर ने अपनी सेहत को दांव पर लगाकर तैयार किया इसलिए संविधान के पिता और निर्माता तो वे ही हैं।
हालांकि डॉ आंबेडकर ऐसा कोई भी श्रेय लेने से इंकार करते हैं। दूसरी ओर समाजवादी, गांधीवादी और साम्यवादियों की एक जमात ऐसी है जो संविधान सभा के प्रतिनिधियों के आधे अधूरे प्रतिनिधित्व के कारण उससे असहमत रही है और यही वजह है कि वे संविधान सभा में शामिल नहीं हुए। उन लोगों ने अपना-अपना संविधान अलग अलग बनाया था।
रोहित डे ने व्यक्ति केंद्रित, पार्टी केंद्रित, विचारधारा केंद्रित संविधान निर्माण की इस बहस को अपनी इस किताब से एकदम नया मोड़ दे दिया है। उन्होंने न्यायालय, वकील और बौद्धिकों तक केंद्रित संविधानवाद से दूर खड़े होकर उसे लोक संविधानवाद से जोड़ दिया है।
मशहूर न्यायविद उपेंद्र बख्शी ने तो इसे नए किस्म का विधिशास्त्र कहा है। वे और दूसरे कई संविधान विशेषज्ञ कहते हैं कि रोहित डे और ओर्नित शानी ने संविधान लेखन का दायरा 299 सदस्यों के घेरे से निकाल कर करोड़ों भारतीयों तक पहुंचा दिया। यानी संविधान तो करोड़ों गैर पढ़े लिखे भारतीय लिख रहे थे। मालूम हो कि भारत के विभाजन से पहले जो संविधान सभा बनी थी उसमें 389 सदस्य थे। लेकिन विभाजन के बाद यह संख्या घटकर 299 रह गई थी। उन्होंने जाति, धर्म और विचारधारा के संकुचित दायरे से निकालकर उस वास्तविक भारत माता की तलाश की है जो न तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर जारी सिक्के पर अंकित है और न ही नायकत्व का आख्यान रचने वाले व्यक्ति केंद्रित इतिहासकारों के सीमित दायरे में।
इसमें संविधान निर्माण की अदृश्य दुनिया को दृश्य बनाया गया है और हम भारत के लोग की असली पहचान की गई है जिसे संविधान आज तक ढूंढ रहा है और जिसके पास तक पहुंचते पहुंचते रुक जाता है। हालांकि रोहित डे इससे पहले अपनी चर्चित पुस्तक ‘ए पीपुल्स कांस्टीट्यूशनः द एवरी डे लाइफ आफ लॉ इन द इंडियन कांस्टीट्यूशन’ में यह व्यक्त कर चुके हैं कि किस प्रकार तमाम मुकदमों के माध्यम से इस देश की जनता ने संविधान को अपने जीवन में अंगीकार किया है।
अंगीकरण की यह प्रक्रिया आज भी जारी है लेकिन दिक्कत यह है कि कॉरपोरेट और धार्मिक संस्थाओं ने उस पर अपनी सत्ता की आकांक्षा की धुंध बिखेर रखी है। वे संविधान से ऊब चुके हैं और अपनी विकास की आकांक्षाओं के लिए उसे तोड़ना चाहते हैं। जरूरत है हम भारत के लोगों के इन अथक प्रयासों को जाति और वर्ग के संकीर्ण दायरे से निकाल कर उसे वास्तविक रूप में व्यक्त करने की। संविधान जिंदा दस्तावेज है और उसे जनता ने बनाया है इस तथ्य को जनता के बीच ले जाने की