13 जून 2025 को इज़राइल ने ईरान के नतांज़ और फोर्डो जैसे परमाणु ठिकानों पर ऑपरेशन ‘राइजिंग लायन’ के तहत हवाई हमले किए, जिसने मिडिल ईस्ट को एक नए युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया । इज़राइल का दावा है कि ये हमले ईरान के परमाणु खतरे को रोकने के लिए ज़रूरी थे। जवाब में, ईरान ने इज़राइल की राजधानी तेल अवीव पर मिसाइलें दागीं, जिसमें कम से कम तीन लोगों की मौत हुई।
इन हमलों में ईरान के छह परमाणु वैज्ञानिक और इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के कमांडर-इन-चीफ हुसैन सलामी सहित कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारी मारे गए। संयुक्त राष्ट्र में ईरान के प्रतिनिधि के अनुसार, 78 नागरिकों की जान गई और 320 से अधिक लोग घायल हुए।
यह टकराव न केवल क्षेत्रीय स्थिरता को खतरे में डाल रहा है, बल्कि कई सवाल भी खड़े कर रहा है: क्या इज़राइल ने अमेरिकी इशारे पर हमला किया? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ईरान से क्या चाहते हैं? और जब कई देशों के पास परमाणु हथियार हैं, तो ईरान का परमाणु कार्यक्रम ही इतना विवादास्पद क्यों है?
ईरान का परमाणु कार्यक्रम
ईरान के परमाणु कार्यक्रम का अमेरिका आज कड़ा विरोध कर रहा है, लेकिन कभी उसी के सहयोग से ईरान ने यह शुरू हुआ था। 1957 में अमेरिका के “एटम्स फॉर पीस” कार्यक्रम के तहत ईरान को परमाणु तकनीक दी गई1960 में अमेरिका ने ईरान को पहला परमाणु रिसर्च रिएक्टर प्रदान किया। उस समय शाह रज़ा पहलवी का शासन था, जो अमेरिका और इज़राइल का करीबी सहयोगी था।
शीत युद्ध के दौरान, सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए अमेरिका ने ईरान को परमाणु तकनीक के साथ समर्थन दिया। लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति ने सब बदल दिया। शाह की निरंकुश और पश्चिम समर्थक नीतियों के खिलाफ जनता में असंतोष पल रहा था। अयातुल्लाह रूहोल्लाह खोमैनी के नेतृत्व में क्रांति हुई और ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना जो अमेरिका व इज़राइल इसके कट्टर विरोधी बन गया। इसके बाद, ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर संदेह बढ़ा, और पश्चिमी देशों ने उस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए।
ईरान का दावा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम बिजली उत्पादन और चिकित्सा अनुसंधान जैसे शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। लेकिन यूरेनियम संवर्धन की प्रक्रिया, जो परमाणु तकनीक का आधार है, नागरिक और सैन्य दोनों उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल हो सकती है। परमाणु रिएक्टरों के लिए 3-5% संवर्धित यूरेनियम पर्याप्त है, जबकि हथियार बनाने के लिए 90% संवर्धन चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की जून 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, ईरान के पास 408.6 किलोग्राम 60% संवर्धित यूरेनियम है, जो 90% तक संवर्धित होने पर 9-10 परमाणु बम बनाने के लिए पर्याप्त है। IAEA का कहना है कि ईरान हथियार ग्रेड यूरेनियम से केवल एक कदम दूर है, जिसे वह दो हफ्तों में हासिल कर सकता है। ईरान ने नतांज़ और फोर्डो जैसे ठिकानों पर छठी पीढ़ी की सेंट्रीफ्यूज मशीनें तैनात की हैं, जो तेजी से संवर्धन कर सकती हैं। हालांकि, ईरान IAEA को पूरी जानकारी नहीं दे रहा, जिससे संदेह और गहरा रहा है।
JCPOA और ट्रंप
2015 में जॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA), यानी ईरान परमाणु समझौता, P5+1 देशों—अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, और जर्मनी—के साथ हुआ। P5+1 यानी सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायाी सदस्य देश और जर्मनी। इसके तहत ईरान ने अपने यूरेनियम संवर्धन को 3.67% तक सीमित करने और भंडार को 300 किलोग्राम तक रखने का वादा किया। बदले में, उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध हटाए गए।
शुरू में यह समझौता ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करने में सफल रहा।लेकिन 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने “सबसे खराब समझौता” करार देते हुए अमेरिका को इससे बाहर कर लिया।
उनका मानना था कि JCPOA ईरान को परमाणु हथियार बनाने से पूरी तरह नहीं रोकता और इसमें ईरान की बैलिस्टिक मिसाइलों या क्षेत्रीय गतिविधियों को नियंत्रित करने के प्रावधान नहीं थे। ट्रंप की “अधिकतम दबाव” नीति के तहत ईरान पर नए प्रतिबंध लगाए गए, जिसने उसकी अर्थव्यवस्था को चोट पहुँचायी। इज़राइल और सऊदी अरब जैसे सहयोगी देशों ने इस फैसले का समर्थन किया, जिसमें शिया-सुन्नी तनाव की भूमिका भी थी।
JCPOA से हटने के बाद, ईरान ने भी समझौते की शर्तें तोड़नी शुरू कीं। उसने संवर्धन की सीमा पार की और नई साइट्स पर काम शुरू किया। 2025 में सत्ता में लौटे ट्रंप ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि अगर ईरान संवर्धन नहीं रोकता, तो सैन्य कार्रवाई हो सकती है। 12 जून, 2025 को उन्होंने ट्रुथ सोशल पर लिखा कि ईरान को “सत्यापित परमाणु शांति समझौता” स्वीकार करना होगा, वरना गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामनेई ने इन मांगों को खारिज कर दिया, यूरेनियम संवर्धन को देश का अधिकार बताया।
अमेरिका के इशारे पर हमला
15 जून को ओमान की राजधानी मस्कट में अमेरिका और ईरान के बीच छठे दौर की बातचीत होने वाली थी। इज़राइल के हमले ठीक उस तीन दिन पहले हुए।सवाल उठता है कि क्या इज़राइल नहीं चाहता कि दोनों देशों के बीच कोई समझौता हो? अमेरिका ने हमलों में अपनी संलिप्तता से इनकार किया, लेकिन खुफिया सूत्रों का कहना है कि इज़राइल ने हमले से पहले वाशिंगटन को सूचित किया था।
अमेरिका और इज़राइल के बीच गहरा सैन्य और रणनीतिक गठजोड़ है, जिसमें इज़राइल को हर साल अरबों डॉलर की सैन्य सहायता मिलती है। फिर भी, विश्लेषकों का मानना है कि इज़राइल के हमले उसकी अपनी रणनीति का हिस्सा हैं, क्योंकि वह ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकना चाहता है।
ईरान का राजनीतिक परिदृश्य
ईरान का नेतृत्व सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामनेई के हाथों में है, जो नीतियों, सेना, और परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करते हैं। 2024 में चुने गए सुधारवादी राष्ट्रपति मसूद पेज़ेशकियान की भूमिका सीमित है। अमेरिकी प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यवस्था को चोट पहुँचायी है, जिससे तेल निर्यात और व्यापार प्रभावित हुआ।
फिर भी, खामनेई ने परमाणु कार्यक्रम को देश की संप्रभुता का प्रतीक बताते हुए इसे जारी रखने का ऐलान किया। ईरान की “एक्सिस ऑफ रेजिस्टेंस” नीति, जिसमें लेबनान का हिज़बुल्लाह, यमन के हूती विद्रोही, और सीरिया की सरकार भी शामिल थी जब वहाँ असद का शासन था।
ये धुरी इज़राइल और अमेरिका के खिलाफ है। यह नीति क्षेत्रीय तनाव को बढ़ाती है। अमेरिका और इज़राइल का डर है कि परमाणु हथियारों से लैस ईरान इस गठजोड़ को और मजबूत करेगा, जिससे मिडिल ईस्ट में शक्ति संतुलन बिगड़ सकता है।
परमाणु हथियार और NPT
वर्तमान में नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, और इज़राइल (हालांकि इज़राइल ने इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं की)। इनके पास कुल मिलाकर लगभग 13,000 परमाणु हथियार हैं, जिनमें से अधिकांश अमेरिका और रूस के पास हैं। ये देश नहीं चाहते कि ईरान इस सूची में शामिल हो।
1970 में लागू न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन ट्रीटी (NPT) का उद्देश्य है परमाणु हथियारों का प्रसार रोकना, निरस्त्रीकरण को बढ़ावा देना, और शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा के उपयोग को प्रोत्साहित करना। 191 देश इसके सदस्य हैं, लेकिन भारत, पाकिस्तान, इज़राइल, और उत्तर कोरिया (जो 2003 में इससे हट गया) इसके बाहर हैं।
ईरान NPT का सदस्य है, लेकिन उस पर संधि का उल्लंघन करने का आरोप है। अमेरिका और रूस ने START संधियों के तहत अपने परमाणु हथियार कम किए हैं, लेकिन रूस और चीन जैसे देश अपने शस्त्रागार को आधुनिक बना रहे हैं, जिससे वैश्विक तनाव बढ़ रहा है।
सह-अस्तित्व की ज़रूरत
6 और 9 अगस्त, 1945 को अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए थे, जिसमें लाखों लोग मारे गए। आज के परमाणु हथियार उस समय के बमों से सैकड़ों गुना शक्तिशाली हैं, जो पूरी धरती को नष्ट कर सकते हैं। वही अमेरिका, जो एकमात्र देश है जिसने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल किया, आज शांति की बात करता है। लेकिन उसकी नीतियां वैश्विक तनाव को बढ़ा रही हैं।
ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना महत्वपूर्ण है, लेकिन असल सवाल यह है कि ऐसे विनाशकारी हथियार पृथ्वी पर हों ही क्यों जो मानवता और ग्रह को खत्म कर सकते हैं? सह-अस्तित्व का सिद्धांत अपनाना होगा। जैसा कि कहा जाता है: “सह-अस्तित्व या कोई अस्तित्व नहीं।” ईरान का परमाणु कार्यक्रम, JCPOA की नाकामी, और इज़राइल-ईरान संघर्ष हमें वैश्विक निरस्त्रीकरण और संवाद की ज़रूरत की याद दिलाते हैं।
यह समय है कि विश्व समुदाय शक्ति प्रदर्शन से हटकर शांति और सहयोग की दिशा में कदम उठाए, ताकि मानवता का भविष्य सुरक्षित हो सके।