क्या प्रधानमंत्री मोदी की नज़र में सुभाषचंद्र बोस और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर अपराधी हैं।

उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू पर राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को ‘काटने’ का अपराध करने का आरोप लगाया हैलेकिन यह अपराध तो कांग्रेस कार्यसमिति की उस समिति का था जिसने वंदे मातरम के प्रथम दो पदों को ही राष्ट्रगीत की मान्यता देने के गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के सुझाव को माना था।

 इस समिति में .नेहरू के अलावासुभाषचंद्र बोसमौलाना अबुल कलाम आज़ादआचार्य नरेंद्र देव भी थे।

फिर संविधान सभा के अध्यक्ष बतौर 24 जनवरी 1950 को डा.राजेंद्र प्रसाद ने जनगणमन को राष्ट्रगान घोषित करते हुए प्रथम दो पदों वाले वंदेमातरम को राष्ट्रगीत का सम्मान देने की घोषणा की थी। क्या वे भी अपराधी थे?
7 नवंबर को दिल्ली के इंदिरा गाँधी इनडोर स्टेडियम में आयोजित एक कार्यक्रम में स्मारक डाक टिकट और सिक्का जारी करके साल भर तक चलने वाले स्मरणोत्सव का उद्घाटन करते हुए पीएम मोदी ने जो कहा, वह इतिहास की दृष्टि से हास्यास्पद तो है ही, राजनीतिक कुटिलता का भी परिचायक है। पीएम मोदी ने कहा- “1937 में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने गीत के महत्वपूर्ण पदों को जानबूझकर हटा दिया था, जिससे गीत की 'आत्मा' को अलग कर दिया गया। यह कृत्य विभाजनकारी था और देश के विभाजन के बीज बोने जैसा था।“

पीएम मोदी के इस भाषण को विस्तार देते हुए बीजेपी के तमाम नेताओं और प्रवक्ताओं ने इसे ऐतिहासिक पाप करार दिया। पीएम मोदी ने अपने भाषण में युवा पीढ़ी से इस विवाद को जानने की अपील की। लेकिन उन्होंने ने यह नहीं बताया कि जब क्रांतिकारी वंदे मातरम गाते हुए फाँसी का फंदा झूल रहे थे या कांग्रेस इसके प्रथम दो पदों को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार कर रहे थे तो उनके वैचारिक पुरखे क्या कर रहे थे? 

सच्चाई ये है कि जिस आरएसएस की शाखाओं से प्रशिक्षित होकर पीएम मोदी निकले हैं उसने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा ही नहीं लिया। न कभी वंदे मातरम गाते हुए सड़कों पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जुलूस निकाला। न कभी आज़ादी की माँग ही की। यही नहीं, जिस मुस्लिम लीग ने “दुर्गा-स्तुति’ बताते हुए इस गीत का विरोध किया उसके साथ मोदी जी के प्रात स्मरणीय सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने सिंध और बंगाल में सरकार चला रहे थे।

इस गीत को राष्ट्रगीत की मान्यता देने के संबंध में माँगे गये सुझाव के जवाब में टैगोर ने पं. नेहरू को लिखा था-“ इस गीत के पहले हिस्से में  व्यक्त कोमल भाव और भक्तिपूर्ण भावनाएँ, तथा मातृभूमि के सुंदर-शिवम् पक्ष पर इसका ज़ोर मेरे लिए विशेष महत्व रखते है। यह महत्व इतना गहरा है कि इस हिस्से को कविता के शेष हिस्से तथा पुस्तक के उन अंशों से अलग करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती  जिसका यह अंग है। मैं इस बात को मुक्तभाव से स्वीकार करता हूँ कि बंकिम की पूरी वंदे मातरम कविता अगर अपने संदर्भ के साथ पढ़ी जाए तो इसकी व्याख्या इस तरह से हो सकती है कि मुसलमानों की भावना को चोट पहुंचे।"
कांग्रेस ने लंबे विचार-विमर्श के बाद इस गीत के पहले दो अंतरों को राष्ट्रीय गीत के रूप में 1937 के फ़ैजपुर अधिवेशन में मान्यता दी और बाद में संविधान सभा ने भी इस पर मुहर लगायी।

इस गीत के रचनाकार थे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय। वे ब्रिटिश भारतीय सिविल सेवा में थे। उन्होंने 1858 में डिप्टी मजिस्ट्रेट और डिप्टी कलेक्टर के पद पर नौकरी शुरू की थी और काफ़ी आगे तक गये थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें राय बहादुर और (CIE)  कम्पेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर' या भारतीय साम्राज्य के साथी की उपाधि से सम्मानित किया था। बंकिम चंद्र अपने समय के विख्यात लेखक और बुद्धिजीवी भी थे।
शायद लोगों को यह जानकर हैरानी हो कि इस गीत के जो दो अंतरे राष्ट्रीय गीत के रूप में मान्यता प्राप्त हैं, वही मूल गीत था। बंकिम ने इसकी रचना 1872 से 1875 के बीच  एक स्वतंत्र गीत के रूप में की थी। बाद में उन्होंने एक उपन्यास लिखा - आनंद मठ। यह उपन्यास बंकिम द्वारा प्रकाशित बंग-दर्शन पत्रिका में दिसंबर 1882 से जुलाई 1883 के बीच प्रकाशित हुआ। इसके तीसरे अध्याय में इस गीत को शामिल किया गया चार और अंतरों के साथ। उपन्यास में यह गीत देवी दुर्गा की आराधना का गीत बन चुका था। यह उपन्यास अठारहवीं सदी के मध्य बंगाल के संन्यासी विद्रोह पर आधारित था जिसमें निशाने पर बंगाल का नवाबी शासन था। उपन्यास पर मुस्लिम विरोधी भावनाएँ भड़काने के आरोप लगे और अंग्रेज़ों को भला इसमें क्या परेशानी हो सकती थी। 
बहरहाल, वंदे मातरम राष्ट्रीय भावना प्रकट करने का माध्यम बना और इसे कांग्रेस ने तुरंत स्वीकार कर लिया। पहली बार 1896 में कलकत्ता में कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान यह गीत गाया गया। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे रहमतुल्लाह सयानी। इसे खुद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने गाया था। उन्होंने ही देस रागिनी में इसका संगीत तैयार किया था। इस गीत को और लोकप्रियता मिली 1905 के आसपास जब बंगाल के विभाजन के ख़िलाफ़ स्वदेशी आंदोलन फूट पड़ा। 

बंग-भंग के ख़िलाफ़ रवींद्र नाथ टैगोर ने इस गीत को गाते हुए जुलूसों का ख़ुद नेतृत्व किया। यह गीत पूरे बंगाल का गीत बन गया। इस गीत में सप्तकोटि यानी सात करोड़ लोगों की बात की गयी थी और 1871 की जनगणना के हिसाब से बंगाल की आबादी इतनी ही थी (तब उड़ीसा और बिहार भी बंगाल का ही हिस्सा थे)। धीरे-धीरे यह राष्ट्रीय आंदोलन का उद्घोष बन गया। चाहे वे कांग्रेस जन हों, चाहे अनुशीलन समिति और जुगांतर जैसे संगठनों के क्रांतिकारी, सबकी ज़बान पर वंदे मातरम गूँज रहा था।
लेकिन जब राष्ट्रीय आंदोलन के सामने मुस्लिम लीग ने सांप्रदायिक प्रश्न खड़ा कर दिया तो इस गीत के चरित्र पर भी सवाल उठाना शुरू किया। 1930 यानी सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद यह मुद्दा गंभीर होता चला गया। मुस्लिम लीग ने आरोप लगाना शुरू किया कि कांग्रेस मुसलमानों पर दुर्गा की आराधना थोप रही है जबकि उनके लिए मूर्ति-पूजा हराम है। मुस्लिम लीग के इस रूख को हिंदू संप्रदायवादियों के रवैये से बल मिला जो इस गीत या नारे का मुस्लिम विरोध के रूप में इस्तेमाल करने लगे। बीसवीं सदी में तीस के दशक में राष्ट्रवाद की तीन अवधारणाएँ सामने थीं। एक धारा थी मुस्लिम राष्ट्रवाद की।
मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम राष्ट्रवाद की बात कर रहे थे जिसकी परिणति 1940 में अलग पाकिस्तान के प्रस्ताव पर गय।1937 में अंतरिम सरकार बनने के दौर में मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम को कांग्रेस के साथ सुलह न होने की बड़ी वजह बताया। वंदे मातरम के ख़िलाफ़ पर्चे बाँटकर मुसलमानों से अपील की गयी कि वे कांग्रेस से सावधान रहे। 
दूसरी अवधारणा हिंदू राष्ट्रवाद की थी। हिंदू महासभा सावरकर के नेतृत्व में सांप्रादायिक रुख़ ले चुकी थी। मदन मोहन मालवीय के समय जो हिंदू महासभा मुसलमानों के साथ सहअस्तित्व और सद्भाव की बात करती थी, अब वह घृणा का प्रचार करने लगी थी। यह वह काम था जिसके लिए सावरकर के माफीनामों को स्वीकार करते हुए अंग्रेज़ों ने रिहा किया था और वे अपने वादे पर खरे उतर रहे थे।

1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा का 19वां अधिवेशन हुआ जहाँ जहाँ सावरकर ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में अपने अध्यक्षीय भाषण में द्विराष्ट्र सिद्धांत को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि भारत में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं- हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। उनके इस विचार पर सबसे ज़्यादा ख़ुशी मो.अली जिन्ना को हुई। उन्होंने आभार जताया और भविष्य में यही सिद्धांत पाकिस्तान की अवधारणा का आधार बना।

लेकिन महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत एक तीसरे रास्ते पर जा रहा था। यह 'भारतीय राष्ट्रवाद' की धारा थी। इस धारा का मानना था कि धर्म निजी आस्था का विषय है। राष्ट्र का आधार धर्म नहीं, समता, स्वतंत्र और बंधुत्व जैसे मूल्य ही हो सकते हैं। भारतीय राष्ट्रवाद का आधार उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष है। नेहरू इस धारा के सबसे चमकदार चेहरे थे। कांग्रेस हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन सबका भारत बनाना चाहती थी।
वंदे मातरम के पहले दो अंतरे पर किसी को असहमति नहीं थी क्योंकि इसमें मातृभूमि को प्रकृति के रूप में चित्रित किया गया है। इसलिए इन्हीं दो अंतरों को स्वीकार करके मुस्लिम लीग के षड्यंत्र को नाकाम करने का प्रयास किया गया था जिसे आज मोदी जी की सेना पाप बता रही है।
1942  में जब देश ‘भारत छोड़ो’ के नारे से गूँज रहा था तो हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग तीन प्रांतों में सरकार चला रहे थे। पंजाब, सिंध और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत। इन विधानसभाओं में वंदे मातरम नहीं गूँज रहा था। पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित हो रहा था। मोदी जी के आदरणीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में उपमुख्यमंत्री थे। वे गवर्नर जनरल के सामने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए योजना पेश कर रहे थे। यही नहीं, हिंदू महासंघ और आरएसएस अंग्रेज़ी सेना में भर्ती का कैंप लगवा रहे थे जिसे सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज से लड़ना था।  
दरअसल, पीएम मोदी ही नहीं, आरएसएस और बीजेपी के तमाम नेताओं की आज़ादी के आंदोलन में भाग न लेने की कुंठा उन्हें कांग्रेस ख़ासतौर पर नेहरू पर हमलावर बनाती है। उन्हें लगता है कि जिस स्वतंत्रता संघर्ष से आज़ादी मिली है, उसमें ही खोट निकालो, नेहरू जी को कोसो ताकि उनकी ग़द्दारी का मसला छिप जाये। पर इतिहास बड़ा निर्मम  होता है। ग़द्दारी का यह अध्याय कभी छिप नहीं सकता।

कांग्रेस के तो हर अधिवेशन की शुरुआत आज भी वंदे मातरम से होती है और समापन जनगणमन से। लेकिन आरएसएस की शाखाओं में कभी वंदे मातरम नहीं गाया जाता। राष्ट्रीय ध्वज भी आज़ादी के 52 साल बाद ही आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर फहराया जा सका। आज़ादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस अगर आधा वंदेमातरम गा रही थी तो मोदी जी के पुरखों को पूरा गाने से किसने रोका था? लेकिन तब वंदे मातरम गाना तो छोड़िए, सिर्फ़ इसका उच्चारण ही जेल पहुँचा सकता था। तो हिम्मत नहीं पड़ी। 
ये नहीं भूलना चाहिए कि वंदे मातरम का राष्ट्र गीत के रूप में एक निश्चित स्वरूप निर्धारित है। 24 जनवरी 1950 यानी संविधान लागू होने के दो दिन पहले संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में डा.राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की कि भारत का राष्ट्रगान टैगोर रचित जनगणमन होगा और वंदे मातरम के स्वीकृत दो अंतरों को भी राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी जाएगी। इस पर कोई बहस नहीं हुई। यह संविधान सभा के अध्यक्ष का आदेश था। इसे स्वीकार करने वालों में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। 
पीएम मोदी आज संविधान सभा के फ़ैसले को अपराध बताकर भारतीय संविधान का भी अपमान कर रहे हैं जो दरअसल आरएसएस और बीजेपी की असल मंशा है। वे सरदार पटेल द्वारा पागलपन और डा.आंबेडकर द्वारा विपत्ति ठहराये गये ‘हिंदू राष्ट्र’ के जड़ विचार को मान्यता दिलाना चाहते हैं।
वंदे मातरम को काटने का हास्यास्पद आरोप लगाकर पीएम मोदी ने नेहरू को ही नहीं, नेता जी सुभाष चंद्र बोस और गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर को भी अपराधी ठहराया है। पर इससे उनके वैचारिक पुरखों की ग़द्दारी के ऐतिहासिक पाप धुलने वाले नहीं हैं।