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महँगी शिक्षा: सरकार फ़ीस बढ़ाकर डंडे बरसा रही है तो विपक्ष क्या कर रहा है?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू में फ़ीस बढ़ोतरी को लेकर विद्यार्थियों में उबाल है। जेएनयू एकमात्र संस्थान नहीं है जहाँ छात्रों पर लाठियों-डंडों से हमले हुए हैं। पिछले कुछ महीने के दौरान कई कैंपस अशांत हुए हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस बल का प्रयोग हुआ। देहरादून में फ़ीस वृद्धि को लेकर कॉलेजों में उग्र विरोध प्रदर्शन चला। इसके अलावा आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में फ़ीस बढ़ोतरी, एमटेक में बेतहाशा फ़ीस होने को लेकर भी विद्यार्थियों में ग़ुस्सा है। सोशल मीडिया की लड़ाई चाहे जिस दिशा में चल रही हो, लेकिन हक़ीक़त है कि जिन अभिभावकों को अपनी कमाई का मोटा हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर ख़र्च करना पड़ रहा है उनमें नाराज़गी है। वे फ़ीस बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ हैं और इसके विरोध को मौन समर्थन दे रहे हैं।

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दुर्भाग्य की बात है कि इतने बड़े मसले पर पूरा विपक्ष क़रीब-क़रीब लकवाग्रस्त नज़र आ रहा है। हर राजनीतिक दल के स्टूडेंट विंग हैं। नेताओं ने जेएनयू, बीएचयू और देहरादून के महाविद्यालयों के छात्रों की पिटाई पर बयान देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। कुछ नेताओं ने विद्यार्थियों की माँग का समर्थन भी किया है। लेकिन एक भी राजनीतिक दल ऐसा नज़र नहीं आता है, जो शिक्षा-व्यवस्था में सुधार की बात कर रहा हो। सबको मुफ़्त शिक्षा, मुफ़्त चिकित्सा की सुविधा देने का नारा लगाने का साहस किसी राजनीतिक दल में नज़र नहीं आता।

विश्व के तमाम ऐसे देश हैं, जहाँ शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से मुफ़्त है और उस देश में पैदा हुए हर नागरिक को एकसमान शिक्षा दी जाती है। जापान में इंटरमीडिएट तक की शिक्षा मुफ़्त और सबके लिए समान है। कनाडा, जर्मनी जैसे देशों में पूरी शिक्षा व्यवस्था का बोझ सरकार उठाती है। 

विकसित देशों में यह अवधारणा जगह बना रही है कि देश में पैदा हर बच्चे की शिक्षा और स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी सरकार की है।

आम लोगों को भी इससे तकलीफ़ नहीं होती है। जो अमीर हैं या जो ग़रीब हैं उनके बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता। बच्चों को देश का भविष्य मानते हुए सबके लिए समान व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। वहीं भारत जैसे देश में एक ऐसा तबक़ा सामने आया है, जो फ़ीस वृद्धि के समर्थन में और सरकार के पक्ष में तरह-तरह के तर्क गढ़ रहा है।

ध्यान रहे कि जब देश के आईआईटी और आईआईएम में फ़ीस बढ़ाई जा रही थी तो यह तर्क दिया जा रहा था कि इन संस्थानों में पढ़कर निकलने वाले बच्चे मोटे वेतन पर नौकरियाँ करते हैं। उन्हें मुफ़्त पढ़ाने की क्या ज़रूरत है? अब हालत यह हो गई है कि इन प्रीमियम संस्थानों की फ़ीस निम्न-मध्य वर्ग की पहुँच से बाहर है। मध्य वर्ग या उच्च-मध्य वर्ग के विद्यार्थी ही इन संस्थानों में पढ़ पाते हैं और क़र्ज़ लेकर पढ़ाई करने वाले मध्य वर्ग के विद्यार्थियों का नौकरी के शुरुआती पाँच साल का वेतन क़र्ज़ की किस्त चुकाने में चला जाता है।

उच्च-मध्य वर्ग इस मामले में ग़जब की मक्कारी दिखा रहा है। सरकारी इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेने की तैयारी कराने में लाखों रुपये ख़र्च हो रहे हैं। उन्हें यह अहसास है कि निम्न-मध्य वर्ग और ग़रीब तबक़ा इंटरमीडिएट तक की बेहतर शिक्षा अपने बच्चों को नहीं दे सकता। इसकी वजह यह है कि सरकारी प्राइमरी स्कूल और इंटर कॉलेज पूरी तरह बर्बाद किए जा चुके हैं। कोचिंगों का धंधा इतना महँगा चल रहा है कि सामान्य परिवार के वश में नहीं है कि वह अपने बच्चों को इंजीनियरिंग व मेडिकल की कोचिंग दिला सके। ऐसे में यह मक्कार मध्य वर्ग सोचता है कि निम्न-मध्य वर्ग और ग़रीब तबक़ा पहले से ही सरकारी इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई की दौड़ से बाहर है।

शिक्षा व्यवस्था देश की एक बड़ी आबादी के हाथ से निकल रही है। यह बड़ी आबादी सरकार से निराश और हताश है। भले ही वह आंदोलन न कर रहा हो, लेकिन आंदोलनों और सरकार की चालों पर नज़र बनाए हुए है।

विपक्ष क्या करे?

कांग्रेस की 4 बड़े राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में सरकारें हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल में ग़ैर बीजेपी सरकारें हैं। अगर इस समय विपक्ष अपना मानवीय चेहरा दिखाना चाहता है तो उसे यह घोषणा करनी चाहिए कि वह अपने स्तर पर अपने राज्यों में सस्ती शिक्षा मुहैया कराएगा।

इसमें सबसे अहम दायित्व कांग्रेस का नज़र आता है। उत्तर भारत के कांग्रेस के चारों मुख्यमंत्रियों को तत्काल यह घोषणा कर देने की ज़रूरत है कि वे अपने-अपने राज्य में जेएनयू मॉडल के विश्वविद्यालय खोलेंगे। सरकारों को चाहिए कि वह एक खाका तैयार करें और अपने राज्य में कम से कम 10,000 विद्यार्थियों को मुफ़्त शिक्षा और हॉस्टल देने के लिए विश्वविद्यालय खोलें, जहाँ जेएनयू की ही तर्ज पर पोस्ट ग्रेजुएशन, एम फिल, पीएचडी और पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च की सुविधा हो।

इतना ही नहीं, ऐसे विश्वविद्यालयों में कम से कम 10 प्रतिशत कोटा यानी 10,000 में से 1000 सीटें विदेशी विद्यार्थियों के लिए आरक्षित हों जिनमें 5 प्रतिशत यानी 500 सीट एशिया के विद्यार्थियों और 500 सीटें शेष विश्व के विद्यार्थियों के लिए आरक्षित की जाएँ, जिससे पूरे विश्व के मेधावी विद्यार्थियों को आकर्षित किया जा सके और उन्हें राष्ट्र निर्माण के कार्यों में लगाया जा सके।

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बजट बढ़ा तो शिक्षा सस्ती क्यों नहीं?

जिस समय जेएनयू की स्थापना हुई थी, उस समय देश में ज़्यादा सुविधाएँ नहीं थीं। केंद्र सरकार का बजट भी कम होता था। अब उतना बजट तमाम राज्य सरकारों का हो चुका है, जितना जेएनयू की स्थापना के समय केंद्र सरकार का था। उदाहरण के लिए पीआरएस इंडिया के आँकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक़ राजस्थान का 2018-19 का सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 9,29,124 करोड़ रुपये था और सरकार ने कुल व्यय 2,32,944 करोड़ रुपये रखा। पंजाब का जीएसडीपी 2019-20 में 5,77,829 करोड़ रुपये और कुल व्यय 1,58,493 करोड़ रुपये था। मध्य प्रदेश का 2019-20 में जीएसडीपी 9,62,430 करोड़ रुपये और कुल व्यय 2,28,888 करोड़ रुपये था। छत्तीसगढ़ का 2019-20 में जीएसडीपी 3,63,800 करोड़ रुपये और कुल व्यय 93,000 करोड़ रुपये था।

कांग्रेस पहल क्यों नहीं करती?

यह कोई कठिन काम नहीं है कि कांग्रेस शासित राज्य सरकारें जेएनयू के समानांतर और उसी के स्तर के 4 शोध विश्वविद्यालय हिंदीभाषी उत्तर भारत के राज्यों में अगले लोकसभा चुनाव के पहले बनाकर तैयार कर दें। एक लाख और दो लाख करोड़ रुपये के सालाना बजट से अगर सरकार की इच्छाशक्ति हो तो वह आराम से एक हज़ार करोड़ रुपये निकालकर यह काम शुरू कर सकती है।

थोथे जनवाद और विद्यार्थियों से सहानूभूति दिखाने की विपक्ष की कवायद उस पीड़ित तबक़े को नागवार गुज़र रही है, जिसे बढ़ी फ़ीस के कारण पढ़ने से वंचित किया जा रहा है। कांग्रेस के पास एक मौक़ा है कि वह अपना जनवादी चेहरा पेश करे। थोथी बयानबाज़ी से नहीं, अपने कर्मों से वह उदाहरण पेश करे कि वह जनता के दुख दर्द दूर करने की दिशा में क़दम बढ़ा रही है।

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प्रीति सिंह
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