भारत की गैर-लाभकारी संस्था 'एजुकेट गर्ल्स' ने 2025 का प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया है। यह पहली भारतीय संस्था है जिसे इस सम्मान से नवाजा गया है। इसे एशिया के नोबेल पुरस्कार के रूप में माना जाता है। संस्था की संस्थापक सफीना हुसैन लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की स्नातक हैं। उन्होंने 2005 में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में अपनी नौकरी छोड़कर भारत लौटने का फ़ैसला किया था, ताकि ग्रामीण और शैक्षणिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा के लिए काम कर सकें। 

'एजुकेट गर्ल्स' की स्थापना 2007 में राजस्थान के सुदूर गाँवों में सफीना हुसैन ने की थी। इसका उद्देश्य उन लड़कियों को स्कूलों में लाना था, जो शिक्षा से वंचित थीं, और उन्हें ऐसी शिक्षा देना था, जो उन्हें उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए सक्षम बनाए। रेमन मैग्सेसे पुरस्कार फाउंडेशन यानी आरएमएएफ़ ने 'एजुकेट गर्ल्स' को लड़कियों और युवतियों की शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक रूढ़ियों को तोड़ने, उन्हें निरक्षरता के बंधनों से मुक्त करने और उन्हें कौशल, साहस और स्वायत्तता प्रदान करने की प्रतिबद्धता के लिए चुना।
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संस्था ने अब तक 11 लाख से अधिक लड़कियों को स्कूलों में नामांकित किया है और 15 लाख लोगों पर इसका सकारात्मक असर पड़ा है। 'एजुकेट गर्ल्स' ने 'टीम बालिका' मॉडल के माध्यम से लगभग 20,000 सामुदायिक स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया है, जो गाँव-गाँव जाकर परिवारों को लड़कियों की शिक्षा के लिए प्रेरित करते हैं। संस्था ने 2015 में दुनिया का पहला 'डेवलपमेंट इम्पैक्ट बॉन्ड' शुरू किया। इसके अलावा, 'प्रगति' नामक एक ओपन-स्कूलिंग कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके तहत 15-29 वर्ष की युवतियों को शिक्षा पूरी करने का अवसर मिलता है। इस कार्यक्रम ने 31,500 से अधिक युवतियों को लाभ पहुँचाया है।

सफीना हुसैन की यात्रा

54 वर्षीय सफीना हुसैन का जीवन प्रेरणा का प्रतीक है। दिल्ली के स्लम क्षेत्रों में बचपन बिताने वाली सफीना को 13 वर्ष की उम्र में स्कूल छोड़ने और शादी करने के लिए मजबूर किया गया था। लेकिन उनकी मौसी के दखल से वे न केवल अपनी पढ़ाई पूरी कर पाईं, बल्कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से स्नातक भी हुईं।
1998 से 2004 तक सैन फ्रांसिस्को में 'चाइल्ड फैमिली हेल्थ इंटरनेशनल' की कार्यकारी निदेशक के रूप में काम करने के बाद सफीना ने 2005 में भारत लौटकर 'एजुकेट गर्ल्स' की नींव रखी। उनका मानना था कि भारत को G20 देशों में महिलाओं के लिए सबसे खराब स्थिति वाला देश माना जाता था। सफीना ने कहा, 'जब एक लड़की शिक्षित होती है तो वह अपने साथ दूसरों को भी ले जाती है, जो परिवारों, पीढ़ियों और राष्ट्रों में बदलाव लाता है।' उनकी इस सोच ने 'एजुकेट गर्ल्स' को एक वैश्विक मंच पर पहुँचाया। एचटी की रिपोर्ट के अनुसार फाउंडेशन ने कहा, 'इसकी शुरुआत 50 पायलट गांव स्कूलों से हुई और अंततः यह भारत के सबसे वंचित क्षेत्रों के 30,000 से अधिक गांवों तक पहुंच गई, इससे दो मिलियन से अधिक लड़कियों को लाभ मिला।
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किन भारतीयों को मिले पुरस्कार 

रेमन मैग्सेसे पुरस्कार को एशिया का नोबेल पुरस्कार माना जाता है। यह उन व्यक्तियों और संगठनों को दिया जाता है, जिन्होंने समाज के लिए निस्वार्थ सेवा की हो। 'एजुकेट गर्ल्स' पहली भारतीय संस्था है, जिसे यह सम्मान मिला है, हालांकि भारत से पहले मदर टेरेसा (1962), जयप्रकाश नारायण (1965), सत्यजीत रे (1967), किरण बेदी (1994), अरुणा रॉय (2000), अरविंद केजरीवाल (2006), सोनम वांगचुक (2018) और रवीश कुमार (2019) जैसे व्यक्तियों को यह पुरस्कार मिल चुका है।

2025 के अन्य विजेताओं में मालदीव की शाहिना अली को पर्यावरण संरक्षण के लिए और फिलीपींस के फ्लावियानो एंटोनियो एल. विलानुएवा को गरीबों और बेघरों के लिए काम करने के लिए सम्मानित किया गया है। पुरस्कार समारोह 7 नवंबर 2025 को मनीला के मेट्रोपॉलिटन थिएटर में होगा, जहाँ विजेताओं को मेडल, प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार दिया जाएगा।
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'एजुकेट गर्ल्स' किन किन राज्यों में

'एजुकेट गर्ल्स' ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सरकार के साथ साझेदारी कर 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' और शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत काम किया है। इसकी 'टीम बालिका' ने सामुदायिक स्तर पर मानसिकता बदलने में अहम भूमिका निभाई है। 

'एजुकेट गर्ल्स' का रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जीतना भारत के सामाजिक विकास क्षेत्र की परिपक्वता और नवाचार को दिखाता है। सफीना हुसैन की अगुवाई में यह संस्था न केवल लाखों लड़कियों के जीवन को बदल रही है, बल्कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर एक समावेशी समाज की नींव रख रही है। यह पुरस्कार भारत में लड़कियों की शिक्षा के लिए चल रहे जन-आंदोलन को वैश्विक मंच पर ले गया है और आने वाले समय में इसके और बड़े प्रभाव की उम्मीद है।