दिल्ली के गलियारों में चहल-पहल या बेंगलुरु की चमचमाती तकनीकी गलियों में कोई भी सोच सकता है कि भारत की अर्थव्यवस्था कोई रॉकेट है, जो सुपरपावर की ओर सरपट दौड़ रहा है।

सरकारी आंकड़े तो मानो रंगीन चश्मों से देखते हैं: 2025-26 की पहली तिमाही में जीडीपी यानी देश की अर्थव्यवस्था 7.8% की रफ्तार से बढ़ी, और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) कहता है कि 2025 में हमारी अर्थव्यवस्था 4.19 लाख करोड़ डॉलर की हो गई। 

लेकिन अर्थशास्त्रियों की खुसर-पुसर, और कभी-कभी चिल्ल-पों, बताती है कि ये चमक-दमक कोई स्थायी रोशनी नहीं, बल्कि ऐसी लौ है जो रास्ता भटकाकर दलदल में ले जाती है।

सितंबर 2025 में इंटरनेट पर एक तीखा सा संदेश वायरल हुआ, जिसमें भारत पर 2015 से आर्थिक आंकड़ों को “मसाला लगाकर” परोसने का इल्ज़ाम लगा।

कहा गया कि जीडीपी 2 लाख करोड़ डॉलर तक फुला दी गयी है! नोटबंदी को आर्थिक भूकंप और जीएसटी को लागू करने में गड़बड़झाला बताया। साथ ही ये दावा कि हमारी अर्थव्यवस्था विदेशों में पसीना बहाने वाले भारतीयों की कमाई पर टिकी है। भ्रष्टाचार को रोज़मर्रा का “गुप्त कर” बताया, और तंज कसा कि भारतीय अपनी धार्मिकता को समृद्धि से ज़्यादा प्यार करते हैं।
अब ये बातें थोड़ी लटके-झटके वाली हैं, लेकिन इनमें कम से कम चुटकी भर सच्चाई तो ज़रूर है। भारत की तरक्की की कहानी सच्ची है, पर इसमें गड़बड़ियां, लापरवाही और सिस्टम की सड़ांध भी भरी पड़ी है।

तो चलिए, इस मायाजाल को थोड़ा खोलकर देखें, ज़रा हल्के-फुल्के अंदाज़ में, पर गंभीरता के साथ।

जीडीपी का जादू-टोना

पोस्ट का जीडीपी को 2 लाख करोड़ डॉलर तक फुलाने का दावा तो ऐसा है जैसे कोई कहे कि हम चाँद ज़मीन पर उतार लाए हों! पोस्ट में जीडीपी को 2.3 लाख करोड़ डॉलर बताया, जो इटली और कनाडा से भी पीछे है। ये आंकड़ा मानो हवा से उड़कर आया हो।

असल में, 2025 के अनुमान कहते हैं कि भारत की जीडीपी 4.19 लाख करोड़ डॉलर है, और हम जापान को धूल चटाकर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए!

IMF का अप्रैल 2025 का अनुमान भी यही कहता है—4.187 लाख करोड़ डॉलर। लेकिन जीडीपी के “हवा में उड़ने” की बात बेसिर पैर की भी नहीं है! ये सवाल 2019 में अरविंद सुब्रमण्यम, भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, ने भी उठाया था। उन्होंने कहा था कि 2015 में बदली गई गणना विधि ने 2011 से 2017 तक हर साल जीडीपी को 2.5% ज़्यादा दिखाया। 

तब आधार वर्ष को 2004-05 से बदलकर 2011-12 किया गया और कॉरपोरेट मंत्रालय की फाइलिंग जैसे नए स्रोत जोड़े गए। आलोचकों का कहना है कि इससे 80 प्रतिशत रोजगार देने व असंगठित क्षेत्र का सही आकलन नहीं हो पाया और नोटबंदी जैसे झटकों ने तो इस क्षेत्र को और रौंद डाला।

2025 में भी ये शक कायम है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने अप्रैल-जून 2025 में 7.8% वास्तविक जीडीपी वृद्धि बताई, जो पाँच तिमाहियों में सबसे ज़्यादा है। कारखानों के उत्पादन  (7%) और सेवाएं (7.2%) ने इसे थोड़ी रफ्तार दी। 

लेकिन एचएसबीसी बैंक और गोल्डमैन सैक्स जैसे बड़े खिलाड़ी चिल्ला रहे हैं कि ये आंकड़े “हवाई” हैं। इनका कहना है कि जीडीपी डिफ्लेटर या मानक —जो मुद्रास्फीति हटाकर असली वृद्धि दिखाता है—बेहद कम है। 

एचएसबीसी का मानना है कि अगर सेवाओं के लिए सही डिफ्लेटर (5-6% उपभोक्ता मुद्रास्फीति) लिया जाए, तो आर्थिक बढ़त 5.5% तक गिर जाएगी!

नोमुरा भी कहता है कि आंकड़ों की बाजीगरी असली कमज़ोरियाँ छुपा रही है। कॉरपोरेट बिक्री की सुस्ती और निजी खपत (जीडीपी का 60%) की 7.4% मामूली बढ़ोतरी भी इस चमक को फीका कर देती है। 

आंकड़ों का गड़बड़झाला

कम डिफ्लेटर की वजह से कीमतों की बढ़ोतरी कम दिखती है। खासकर सेवाओं में, जो जीडीपी का 55% है। भारत का सेवा क्षेत्र डिफ्लेटर अक्सर सामान की थोक कीमतों (2% के आसपास) को मानता है, न कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और परिवहन की 5-6% मुद्रास्फीति को। ये कोई “जालसाजी” नहीं, जैसा पोस्ट चिल्लाती है, लेकिन गणना की गलती है, जो उम्मीदों को हवा देने लगती है।

विश्व बैंक और IMF ने भी शक जताया है। IMF का अनुमान है कि 2025 में 6.4% वृद्धि हुई है, जिसकी आवाज सरकारी ढोल से कहीं कम है। अगर ये सही है तो असली जीडीपी 4 की जगह 3 लाख करोड़ डॉलर के करीब हो सकती है। लेकिन 2 लाख करोड़ की बढ़ोतरी का दावा तो साजिश की तरह लगता है, जैसे गोद में चाँद उतर आया हो!

जीडीपी में टैक्स भरने वालों का अनुपात देखें तो शायद बात कुछ साफ़ हो सके। भारत का कर-से-जीडीपी अनुपात 18% है, जो भारत की प्रति व्यक्ति आय के बराबर खड़े देशों के मुकाबले कम है।

140 करोड़ की आबादी में सिर्फ 7% (10 करोड़) लोग टैक्स के काग़ज़ भरते हैं और सिर्फ 1.3 करोड़ लोग कर देते हैं। यानी हमारे असंगठित क्षेत्र अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा हैं जहां नकद लेन-देन टैक्स लेने वाले उन्हें पकड़ नहीं पाते।

विदेशी मुद्रा का तमाशा

2025 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 670 अरब डॉलर है, जो छोटे मोटे आर्थिक झटकों में हमारी ढाल बन सकता है! लेकिन पोस्ट सही कहती है कि 7 लाख रुपये ($8,400) से ज़्यादा की विदेशी मुद्रा ख़रीदने पर 20% टैक्स (TCS) लगता है, सिवाय शिक्षा और चिकित्सा (5%) के।  इससे समानांतर अर्थव्यवस्था को शह मिली है।

इससे लेन-देन मुश्किल हो जाता है और काला बाजार बढ़ता है। मध्यम वर्ग की जेब पर डाका पड़ता है, क्योंकि टैक्स रिटर्न से ही ये पैसा वापस मिलता है। ये तो वही बात हुई कि पहले पिटाई करो, फिर मरहम लगाओ!

नोटबंदी का ज़ख्म

2016 की नोटबंदी में 86% बेकार हुए नोट आज भी दिल दुखाते हैं। पोस्ट बिल्कुल सही कहती है: काला धन तो निकला नहीं, उल्टा अर्थव्यवस्था लुढ़क गई। जीडीपी वृद्धि 2016-17 में 8.3% से गिरकर 6.8% हो गई, और प्रभावित इलाकों में रोज़गार 1.5% कम हुआ। 

नकदी पर टिके छोटे धंधे बंद हो गए, मज़दूरों के पास काम नहीं बचा। एक अध्ययन कहता है कि नकदी-प्रधान इलाकों में उत्पादन 2-3% गिरा। सिर्फ 1.8% नोट वापस नहीं आए—काले धन का खजाना तो बस सपना रहा। आज जरूर यूपीआई से हर महीने 14 अरब लेन-देन हो रहे हैं, लेकिन इसके लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाने की क्या जरूरत थी?

कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था अगर मज़बूत है तो उसके पीछे सोची समझी नीतियाँ नहीं हैं। यह लोगों के जुझारूपन से आगे बढ़ रही है!

जीएसटी का झोल

2017 में जीएसटी को “एक देश, एक कर” का तमगा दिया गया, लेकिन ये तो झमेला बन गया। कई स्लैब (0%, 5%, 12%, 18%, 28%), खराब ऑनलाइन पोर्टल, और उलटे टैक्स ढांचे ने छोटे कारोबारियों की नींद उड़ा दी। निर्यात अटके, रिफंड रुके। अब राजस्व 224 अरब डॉलर सालाना है, लेकिन जटिलता बरकरार है।

जीएसटी में अब स्लैब कम किए गए हैं पर फर्स्ट बैंक कहता है कि इससे 20 अरब डॉलर का नुकसान होगा। जीएसटी ने औपचारिकता बढ़ाई, लेकिन असंगठित क्षेत्र की चमक को धूल चटा दी।

रेमिटेंस की रीढ़

2024 में भी देशों से 129 अरब डॉलर की आमदनी हुई जो जीडीपी का 3.5% है! इसने अर्थव्यवस्था को थोड़ा सहारा दिया। खाड़ी के मज़दूर, अमेरिका के “टेक” वाले, और यूरोप की नर्सें रुपये को मज़बूती देती हैं। ये पैसे न आयें तो ग्रामीण मांग की कमज़ोरी और 17% से ज़्यादा युवा बेरोज़गारी (2024) अर्थव्यवस्था को डुबो दे।

पोस्ट का दावा सटीक है कि रेमिटेंस ने डूबने से बचाया जैसे जब घर में आग लगी हो, तो पड़ोसी का पानी काम आए!

कारोबार का कांटों भरा रास्ता

पोस्ट भारत को दुनिया भर में कारोबार के लिए “सबसे मुश्किल” जगह बताता है। विश्व बैंक की 2020 रैंकिंग में भारत 63वें नंबर पर था, जो पहले से सुधरा है लेकिन साथ में उम्मीदें भी बढ़ी हैं! पर नौकरशाही का जंगल अभी भी घना है—कंपनिया चलाने के लिए 1,500 से ज़्यादा नियम अभी भी हैं और रोज़ बढ़ ही रहे हैं। ज़मीन खरीद और पुराने टैक्स के झगड़े, जैसे वोडाफोन का केस, निवेशकों को सताते हैं। ये तो वही है कि मेहमान को घर बुलाओ, पर दरवाज़ा बंद रखो!

रिश्वतखोरी का रोग

पोस्ट का भ्रष्टाचार पर ज़ोर बिल्कुल सही है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2024 रैंकिंग में भारत 180 देशों में 96वें नंबर पर है। 60% से ज़्यादा भारतीयों को लगता है कि रिश्वतखोरी बढ़ी है! कम तनख्वाह (क्लर्क को 25000 रुपए महीना), जटिल नियम (फैक्ट्री के लिए 69 मंजूरियाँ), और “चाय-पानी” की आदत इसकी जड़ हैं। छोटी-मोटी रिश्वत सालाना 10 अरब डॉलर का नुकसान करती है।

अडानी जैसे बड़े घोटाले अविश्वास को और गहराते हैं। फिर भी, आधार से जुड़ी सब्सिडी ने 30 अरब डॉलर बचाए और डिजिटल टेंडर ने रिश्वत कुछ कम की। लेकिन ये तो वैसा है जैसे बुखार में पसीना निकालने की कोशिश—रोग तो अंदर ही रहता है।

धर्म और दौलत का खेल

पोस्ट का तंज कि भारतीय “धर्म को समृद्धि से ज़्यादा प्यार करते हैं” थोड़ा रूढ़िगत है। जीडीपी की शेखी पर सीना चौड़ा होता है, लेकिन प्रति व्यक्ति जीडीपी $2,600 (143वां स्थान) सुनकर नाक-भौं सिकुड़ती है। ये सुधार की चाह जगाता है, जैसे मोदी का “विकसित भारत” 2047 तक 30 लाख करोड़ डॉलर का सपना। 

विश्व खुशी रिपोर्ट 2024 में भारत 126वें नंबर पर है, लेकिन ग़रीबी के बीच त्योहारों की धूम कम नहीं। ये तो वही है कि पेट खाली हो, पर मुँह में मिठाई है!

आगे की राह

भारत की अर्थव्यवस्था कोई मायाजाल नहीं, लेकिन गड़बड़ियां ढेर सारी हैं। फूले हुए आंकड़े संसाधनों का गलत इस्तेमाल कराते हैं; रिश्वतखोरी ताकत चूसती है। इलाज? स्वतंत्र सांख्यिकी जांच, आसान टैक्स व्यवस्था और डिजिटल सख्ती। विदेशी मुद्रा की आमदनी से थोड़ी साँस मिली लेकिन कारखानों में और कौशल चाहिए।

कोई न कोई चुनाव हमेशा सिर पर रहता है और वैश्विक चुनौतियाँ (ट्रंप के टैरिफ?) बढ़ रही हैं। इन सबसे लड़ने के लिए हमें सच को गले लगाना होगा।

भारतीयों को सिर्फ भक्ति नहीं, बल्कि समृद्धि चाहिए। रास्ता काँटों भरा है, लेकिन मंज़िल पुकार रही है।