2025 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 670 अरब डॉलर है, जो छोटे मोटे आर्थिक झटकों में हमारी ढाल बन सकता है! लेकिन पोस्ट सही कहती है कि 7 लाख रुपये ($8,400) से ज़्यादा की विदेशी मुद्रा ख़रीदने पर 20% टैक्स (TCS) लगता है, सिवाय शिक्षा और चिकित्सा (5%) के। इससे समानांतर अर्थव्यवस्था को शह मिली है।
इससे लेन-देन मुश्किल हो जाता है और काला बाजार बढ़ता है। मध्यम वर्ग की जेब पर डाका पड़ता है, क्योंकि टैक्स रिटर्न से ही ये पैसा वापस मिलता है। ये तो वही बात हुई कि पहले पिटाई करो, फिर मरहम लगाओ!
नोटबंदी का ज़ख्म
2016 की नोटबंदी में 86% बेकार हुए नोट आज भी दिल दुखाते हैं। पोस्ट बिल्कुल सही कहती है: काला धन तो निकला नहीं, उल्टा अर्थव्यवस्था लुढ़क गई। जीडीपी वृद्धि 2016-17 में 8.3% से गिरकर 6.8% हो गई, और प्रभावित इलाकों में रोज़गार 1.5% कम हुआ।
नकदी पर टिके छोटे धंधे बंद हो गए, मज़दूरों के पास काम नहीं बचा। एक अध्ययन कहता है कि नकदी-प्रधान इलाकों में उत्पादन 2-3% गिरा। सिर्फ 1.8% नोट वापस नहीं आए—काले धन का खजाना तो बस सपना रहा। आज जरूर यूपीआई से हर महीने 14 अरब लेन-देन हो रहे हैं, लेकिन इसके लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाने की क्या जरूरत थी?
कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था अगर मज़बूत है तो उसके पीछे सोची समझी नीतियाँ नहीं हैं। यह लोगों के जुझारूपन से आगे बढ़ रही है!
जीएसटी का झोल
2017 में जीएसटी को “एक देश, एक कर” का तमगा दिया गया, लेकिन ये तो झमेला बन गया। कई स्लैब (0%, 5%, 12%, 18%, 28%), खराब ऑनलाइन पोर्टल, और उलटे टैक्स ढांचे ने छोटे कारोबारियों की नींद उड़ा दी। निर्यात अटके, रिफंड रुके। अब राजस्व 224 अरब डॉलर सालाना है, लेकिन जटिलता बरकरार है।