फ्रांसेस्का ऑर्सिनी का उर्दू- हिन्दी संबंधों और वैचारिकता पर क्या कहना है? वीजा विवाद को अलग रखकर बात सिर्फ लेखन दृष्टि और शोध वैचारिकता की। उन्हें जानना है तो उनके काम को बिना किसी पूर्वाग्रह के जानना होगा।
ऑर्सिनी पर आरोप यह भी है कि वे उर्दू और हिन्दी के अंतरसंबंधों पर अधिक जोर देती हैं, उनके इतिहास को कुछ अधिक ही सकारात्मक रूप से रेखांकित करती हैं, और इस प्रकार आज की परिस्थितियों में इस 'विवाद' को बढ़ाने की भी जिम्मेदार हैं। पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने हिन्दी और उर्दू साहित्य के बीच जो संबंध खोजे, वे केवल भाषिक या व्याकरणिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आंशिक रूप से राजनीतिक हैं।
उन्होंने अपने शोध कार्यों से साबित करने का प्रयास किया कि हिन्दी और उर्दू दो अलग दिशाओं में जाने वाली भाषाएँ नहीं हैं, बल्कि एक साझा सांस्कृतिक परंपरा के दो प्रवाह हैं। उनका यह दृष्टिकोण औपनिवेशिक और उत्तर–औपनिवेशिक भाषा–राजनीति को चुनौती देता दिखता है, जो हिन्दी और उर्दू को एक-दूसरे का ‘विरोधी’ या ‘प्रतिद्वंद्वी’ बनाकर देखती रही।
ताज़ा ख़बरें
उनकी किताब Before the Divide: Hindi and Urdu Literary Culture (2010) इस विषय पर एक मील का पत्थर है। इस ग्रंथ में उन्होंने यह तर्क दिया है कि भारत में हिन्दी और उर्दू का अलगाव कोई प्राचीन या प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह औपनिवेशिक शासन और 19वीं सदी के बाद की सांप्रदायिक राजनीति का परिणाम था। उन्होंने कहा कि विभाजन से पहले, उत्तर भारत में भाषा का संसार बहुत अधिक सह-अस्तित्वकारी था। साहित्य, कवि–सम्मेलन, कहानी–कथाएँ, गीत–ग़ज़ल—ये सब हिन्दुस्तानी सांस्कृतिक जीवन का साझा हिस्सा थे।
ऑर्सिनी ने अपने विश्लेषण में ब्रज, खड़ीबोली, फारसी और अवधी के साथ-साथ दरबारी और लोकभाषाओं को भी समान रूप से देखा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब दिल्ली और लखनऊ जैसे सांस्कृतिक केन्द्रों में कविता और गद्य रचा जा रहा था, तो वह एक ही “भाषाई वातावरण” में हो रहा था। उदाहरण के लिए, मीर, ग़ालिब, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, इन सबकी भाषा में फर्क तो था, पर सांस्कृतिक दृष्टि से ये सभी “हिन्दुस्तानी साहित्य” की एक निरंतर कड़ी थे।
उनका एक प्रसिद्ध लेख “Afterword: The Hindi–Urdu Divide” में वे यह सवाल उठाती हैं कि क्या हमें इन दोनों भाषाओं के इतिहास को दो अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में देखना चाहिए, या एक साझा भाषायी और साहित्यिक सद्भाव के रूप में? उनका उत्तर था; न हिन्दी शुद्ध थी, न उर्दू, बल्कि दोनों का जन्म और विकास परस्पर आदान–प्रदान से हुआ।

ऑर्सिनी ने यह भी बताया है कि किस तरह औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ी प्रशासन ने भाषा को धर्म से जोड़कर एक नई पहचान–राजनीति गढ़ी।

उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा कहा गया, जिससे पहले से मौजूद साझा परंपराएँ टूटने लगीं। उन्होंने दिखाया कि 19वीं सदी के अख़बारों, पत्रिकाओं, नाटकों और कवि–सम्मेलनों में दोनों भाषाओं का प्रयोग समान रूप से होता था। उस समय ‘रीडरशिप’ एक ही थी, और पाठक सहजता से दोनों लिपियों (देवनागरी और नस्तालीक़) में लिखे ग्रंथ पढ़ लेते थे।
उनका मानना है कि “साहित्य का धर्म नहीं होता, उसकी भाषा उसका संसार बनाती है।” यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी और उर्दू के विभाजन को ‘राजनीतिक निर्मिति’ कहा। वे यह भी कहती हैं कि किसी भी भाषा की समृद्धि उसकी “दूसरी भाषाओं से बातचीत” में होती है, न कि अलगाव में। उनके लिए हिन्दी और उर्दू का संबंध वही था जो दो पड़ोसी नदियों का होता है— कभी साथ बहती हैं, कभी अलग होती हैं, पर एक ही धरातल से जन्म लेती हैं।
उन्होंने अपने कई लेखों में उर्दू कविता और हिन्दी गद्य के समानांतर विकास की तुलना की। उदाहरण के लिए, उन्होंने दिखाया कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और मीर अनीस दोनों ने अपने-अपने समाज की नैतिकता, आधुनिकता और नागरिकता के प्रश्नों को लगभग एक ही ऐतिहासिक बिंदु से देखा। हिन्दी नाट्य परंपरा और उर्दू शायराना मिज़ाज दोनों ही नवजागरण के सामाजिक विमर्श में सक्रिय थे।
ऑर्सिनी का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने इन दोनों भाषाओं के अध्ययन में “साझी संस्कृति” की अवधारणा को पुनर्जीवित किया। उन्होंने यह माना कि हिन्दी और उर्दू को समझने के लिए हमें केवल व्याकरण या शब्द–कोश नहीं, उनकी सामाजिक स्थितियों, धार्मिक अनुभवों और जनता के जीवन–प्रसंगों को भी पढ़ना होगा।
उन्होंने यह भी रेखांकित किया है कि आज भी कई हिन्दी–उर्दू लेखक इस विभाजन को अस्वीकार करते हैं। फहमीदा रियाज़, अली सरदार जाफ़री, अमृता प्रीतम, गुलज़ार या कुंवर नारायण जैसे लेखकों में वही “भाषिक पुल” दिखता है, जिसकी ओर ऑर्सिनी ने इशारा किया था।
फ्रांसेस्का ऑर्सिनी का यह दृष्टिकोण भारतीय भाषाओं के अध्ययन में एक उपयुक्त बौद्धिक हस्तक्षेप की भांति है। उन्होंने हमें सिखाया है कि भाषा मात्र पहचान का माध्यम नहीं, संवाद का पुल भी है। अगर हम हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग खेमों में बाँटते हैं, तो हम उस बहुलता को खो देते हैं जो इस उपमहाद्वीप की आत्मा है।
उनके शोध और लेखन के लिए हिन्दी–उर्दू का रिश्ता सिर्फ भाषायी नहीं, बल्कि मानवीय है, जहाँ शब्द नहीं, भावना बोलती हैं। आज जब हम भिन्न-भिन्न तरह की सीमाएँ खींचने के दौर में हैं, तब ऑर्सिनी का यह संदेश प्रासंगिक  है कि भाषा का असली स्वभाव मेल में है, न कि विभाजन में।
(मनीष आज़ाद के फेसबुक पेज से साभार)