बीकानेर संभाग के मेरे आदरणीय सुच्चासिंह जी ने आज सवेरे-सवेरे बताया कि काफी दिन से कुछ मित्र "जल्द ही कुछ बड़ा होने वाला है" का संकेत दे रहे हैं और अब तो गरम सिंदूर को रगों में बहते देखने के बाद एक ख़ुशख़बरी है। वे बोले, मेरे ख़राब घुटने अब एकदम ठीक हो गए हैं; क्योंकि मैंने पूरा सिंदूर घोलकर पी लिया है। मैं अब एकदम उसैन बोल्ट हो गया हूँ। अब तो मेरा वह डॉक्टर भी हैरान है, जो कह रहा था : "सर, अब तो बत्तीसी ठीक चल रही है, पर घुटने रिटायर हो चुके हैं।"

मैंने कहा कि चाचा ये चमत्कार किंवें होया? तो कहने लगे, भतीज बस हो गया चमत्कार। मैंने नेताजी का भाषण सुना और मैं जो मोहल्ले के बेंच पर बैठकर पिछले पाँच साल से पेनकिलर और राजनीति दोनों को चबा रहा था, अचानक उठा और उसैन बोल्ट की आत्मा को चुनौती देते हुए, गली के कुत्तों और सड़क पर दौड़ लगाते फौजियों को पीछे छोड़ते हुए 100 मीटर का स्प्रिंट मार दिया!

वह बोला, हमें मेडिकल कॉलेज में पढ़ाया गया था कि स्प्रिंटिंग में शरीर की सीमा होती है। मांसपेशियों में फॉस्फोक्रिएटिन 30 सेकंड बाद जवाब दे देता है और एनारोबिक ग्लाइकोलाइसिस से एसिडोसिस हो जाता है। लेकिन नेताजी के भाषण में फॉस्फोक्रिएटिन का भी विकल्प होता है। हमने इसे नाम दिया है, "झुनझुना ग्लूकोज़ वादा सिरप"। इसे सुनते ही भक्त का शरीर कहता है: "ध्यान मत दे मांसपेशियों को, देश दौड़ रहा है। तू क्यों रुके? सुच्चे, तू भी दौड़। नाश्ते-वाश्ते की फिक्र मत कर।"

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चाचा सुच्चासिंह दौड़ते रहे। लोग पीछे चिल्लाते रहे, "कहाँ जा रहे हो?" चाचे ने कहा, "1000 मीटर का वादा था, 100 मीटर में ही धुआं निकल रहा है। बाकी 900 मीटर झूठ का ट्रैक बचा है!" अब तो पूरा होना ही था। चाचा ने कर दिया। चाचा के जिस्म की रगों में सिंदूर वाला लहू दौड़ रहा था। चाचा सुच्चासिंह बता रहे थे कि प्राचीन ओलंपिक खेलों में स्प्रिंट होता था। आजकल चुनावी ओलंपिक में होता है। तब एथलीट दौड़ता था गोल्ड के लिए, अब जनता दौड़ती है "डालर सपनों और फ्री वाई-फाई के लिए या फिर ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर के लिए। ब्रेकफास्ट बलूचिस्तान, लंच लाहौर और डिनर डेरा इस्माइल खान या डेरा गाजी में! चाचा ने बताया कि वे सुबह जब दौड़ते-दौड़ते गिर गए तो एक बड़े भक्त ने कहा कि देखो-देखो, सिंदूर से हमारे बूढ़े भी कितने फिट हैं।

चाचा तो चाचा हैं और इस बार उन्होंने बहुत दिन बाद याद किया तो कहने लगे, अब तक तो सर जी के भाषणों में "विकास" की ध्वनि ही होती थी, वादों का एरोबिक होता था, लेकिन इस बार खून में सिंदूर भी घुला हुआ था तो ताली बजाने की एनर्जी ने भतीजे पूरा गदर बना दिया गदर। और तुम्हें क्या बताऊँ कि फिज़ियोलॉजी, एसिडोसिस और स्प्रिंटिंग थ्योरी सब पीछे छूट गए। क्योंकि जब नेताजी बोलते हैं : अबकी बार...तो जनता के घुटनों में भी स्प्रिंग लग जाते हैं। और अबके जब बोला कि मेरे खून में गरम सिंदूर बहता है और दिमाग ठंडा है तो मुझे लगा कि अब सारा सामान बांध लिया जाए।

अब पासपोर्ट या वीजे वाजे की ज़रूरत नहीं, बस प्लेट, चम्मच और डिनर सेट चाहिए। किसी सवेरे-सवेरे लाहौर में फ्रेंच क्रोइसाँ और हॉट चॉकलेट का नाश्ता होगा, क्योंकि वैष्णव खिचड़ी अब ग्लोबल नहीं लगती। किसी दोपहर इस्लामाबाद में कंटिनेंटल पास्ता विद अल्फ्रेडो सॉस और गार्लिक ब्रेड होगा; क्योंकि राजस्थान की सेव-गट्टे की सब्ज़ी अब सिर्फ सोशल मीडिया पर ट्रेंड करती है और रात का खाना कराची में जापानी सुशी, थाई ग्रीन करी और हल्के में सीज़र सलाद...बिलकुल वैसा, जैसा "विकास" डिनर में परोसता है।

चाचा सुच्चासिंह बोले जा रहे थे और मेरे दिलो-दिमाग़ ओह सॉरी, मुँह में पानी भरता जा रहा था। वे कह रहे थे : शर्बत और शयन पेशावर में, जहाँ रेड वाइन के गिलास में हमारे लोकतंत्र की परछाईं हिलोरें मारती है। "जूस" अब मासूमों के लिए है। बड़े तो कॉन्यैक और जैक डेनियल्स में देशभक्ति घोलते हैं। चाचा बोले, कराची में समंदर किनारे एक स्मार्ट होम चाहिए मुझे। गूगल होम और एलेक्सा से लैस, जहाँ वाई-फाई की स्पीड से हम इतिहास को री-स्ट्रीम कर सकें। पेशावर में एक कोठी हो, जिसमें स्नोफॉल की आर्टिफिशियल मशीन, इटालियन मार्बल और एयरलिफ्टेड लॉन हो। बिलकुल वैसा जैसा स्विस आल्प्स में होता है।

चाचा ने कहा, बहुत हुआ पाक-पाक, अब किराए की जमीन पर ख्वाब सजाने का मन नहीं। अब तो सपना है बॉर्डरलेस राष्ट्र, जहाँ हर शहर में एयरफ़्राईड आइडियोलॉजी परोसी जाए। और जैसे ही सपनों का ग्लोबल ऐप अपडेट होता है, स्लोगन बज उठता है; क्योंकि अब भूगोल से नहीं, फूड डिलीवरी ऐप्स और वोटबैंक के किचन से देश बनते हैं। वे कह रहे थे अब टेक्सास के ह्यूस्टन वाले उस एनआरजी स्टेडियम में नहीं, इस्लामाबाद के जिन्ना एवेन्यू में हाउडी प्राउडी करेंगे। मैंने तो सब तैयारियां कर ली हैं। बीकानेरी भुजिया रसगुल्ले पैक करवा लिए हैं और बॉर्डरलेस बुफ़े की पूरी तैयारियां हैं। सिंदूर गरम करके पी लिया है और अब बस वो तुम कहते हो ना कि राष्ट्रवाद का राजसूय बाकी रह गया है। अब असीं लाहौर दे अनारकली बजार विच शाखा वी लौवणी है!

मैंने चाचा को टोका, चाचा चाचा चाचा आपका दायां घुटना! तो चाचा सुच्चासिंह के आख़िरी शब्दों ने जैसे पूरे गगन में जय घोष की गूंज भर दी, "अब तू थोड़ा पॉजिटिव रहा कर! अब जब राष्ट्रवाद के बॉर्डरलेस बुफ़े में इंडक्शन कुकटॉप पर गरम-गरम सिंदूर चढ़ चुका है और भाषणों में लॉरेंस ऑफ अरबिया की रफ्तार मिल चुकी है तो कमलेया बस घुटनों की चिंता नहीं करनी चाहिए। घुटनों को आराम नहीं, एजेंडा चाहिए।" चाचा ने जाते-जाते कह दिया, "अब तो स्प्रिंटिंग भी विचारधारा से तय होती है बेटा। वैज्ञानिक सीमाएं मूर्खों के लिए हैं, हम तो अब वादों के बायोनिक युग में जी रहे हैं। देश दौड़ रहा है। वोटों की रिले रेस में, भाषणों के एनर्जी ड्रिंक पर और वाट्सऐप यूनिवर्सिटी की हिस्ट्री की बिसलेरी बोतल लेकर!

मैं भी गहरे ख़यालों में डूब गया सुबह-सुबह। अब जब नेताजी के भाषणों में फॉस्फोक्रिएटिन नहीं, "फीलिंग्ज़ और फायर" मिलाया जाता है तो चाचा जैसे लोग 400 मीटर की सियासी रेस में नहीं रुकते; बल्कि उस सीमांत तक भागते हैं, जहाँ जुगाराफिया शर्मिंदा हो जाता है और स्प्रिंटिंग की परिभाषा खुद को रीबूट करती है। और हाँ, अब अगली सुबह जब कोई चाचा दौड़ते दिखे तो समझ लेना कि घुटनों की मरम्मत नहीं हुई है, बस राष्ट्रवाद ने फिर से अपना नया राजसूय शुरू कर दिया है।

चाचा ने बड़े आत्मविश्वास से बताया कि इस बार निर्जला एकादशी पर पूरे पाकिस्तान में हिंदुस्तानियत घुला शर्बत पिलाया जाएगा और इसमें रूह अफ़ज़ा नहीं, बाबा वाला नया सिंदूर रस होगा। चाचा सुच्चासिंह ने चुपके से बताया कि अब उम्मीद है, वे लाहौर के गुलाब बाग में जिस लड़की ने उन्हें गुलाब भेंट किया था, उससे भी मिल लेंगे।

मैंने कहा, चाचा वो मर खप गई होगी तो बोले, कोई ना पुत्तरा, आपां ओहदी यादां नूं ही झप्पी पा लांगे। कहिंदे ने ना, जैसे राष्ट्र सीमाएं नहीं मानता, वैसे ही इश्क़ भी क़ब्रिस्तान की मिट्टी नहीं देखता। चाचा बोले, "ओ गुलाब वाला पल अब मेरी लहौर यात्रा दी 'विजन डाक्यूमेंट' दा पहला चैप्टर बनेगा। मैं ओस बाग़ च जावांगा, ओस गुलाब नूं सूंघांगा ते फेर वंदे मातरम् कहके रो पडांगा।"

मैंने कहा, “चाचा, पर यह तो बहुत भावुक योजना है।” तो चाचा बोले, “पुत्तरा, जब राजनीति स्प्रिंटिंग करवाए, राष्ट्रवाद डिनर टेबल तक ले जाए और सिंदूर रस दिल के वाल्व खोल दे, तब हर बूढ़ा दिल फिर जवान हो जाता है। अबकी बार कोई वीजा अफसर रोके ना, कोई कस्टम अफसर सूंघे ना; इक बूँद सिंदूर रस और दिलों के सरहद पार खुलते दरवाज़े।” और फिर चाचा ने मुस्कराकर कहा : "पुत्तरा, अब अगली निर्जला एकादशी लाहौर दी गलियों च मनांगे, हाथ में शर्बत होगा, दिल में हिंदुस्तानियत...ते ओ गुलाब दी खुशबू नाल 'विकास' दे नया स्प्रिंट शुरू होवेगा!" चाचा ने मुझे निरुत्तर कर दिया!

(त्रिभुवन के फेसबुक पेज से साभार)