न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में दो मसजिदों पर हुए हमले के बाद न सिर्फ़ उस देश में बल्कि पूरे यूरोप में आत्मनिरीक्षण की ज़रूरत बताई जा रही है। न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री ने इस हमले पर सदमा ज़ाहिर करते हुए कहा है कि हमलावर उनमें से एक नहीं है। वह कहना यह चाहती हैं कि हमलावर ब्रेन्टन टैरंट देश के विचार का नुमाइंदा नहीं है। वह मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का है और कुछ वक़्त से न्यूज़ीलैंड में रह रहा था। ऑस्ट्रेलिया के राज्य प्रमुख ने भी अफ़सोस जताया है कि उनके एक देशवासी ने यह किया। उनके साथ सामान्य नागरिकों ने मसजिदों के बाहर फूल रखकर अपनी हमदर्दी जताने की कोशिश की। न्यूज़ीलैंड के बाहर दूसरे देशों में भी कई जगह यह किया गया। ध्यान रहे हमने भारत में यह नहीं किया! ठीक उसी समय यह विचार-विमर्श भी शुरू हुआ कि क्या यह कहकर देश बच सकता है कि यह एक अकेले शख़्स की बीमार ज़हनियत का नतीजा था?

दो रोज़ में ही कई लेख लिखे गए जो यह बताते हैं कि जो हिंसा न्यूज़ीलैंड में जुमे के रोज़ हुई, वह काफ़ी लंबे वक़्त से बर्दाश्त की जा रही मुसलमान विरोधी नफ़रत का अनिवार्य परिणाम है। यह नहीं हो सकता कि इस नफ़रत को सह्य माना जाए और उम्मीद की जाए कि यह वास्तविक हिंसा में तब्दील न होगी।

ध्यान दिलाया गया कि हिटलर अगर यहूदी जनसंहार कर पाया तो उसमें उसे मात्र जर्मन ही नहीं, यूरोपीय जनता के बीच प्रचलित यहूदी विरोधी घृणा का काफ़ी योगदान था। दूसरे शब्दों में हिटलर अपवाद न था, वह एक प्रक्रिया का अंतिम बिंदु था।

अमेरिका में सिखों पर यह मानकर हमला किया गया था कि वे मुसलमान हैं। इसे मिस्टेकेन आयडेंटिटी का मामला बताया गया, मानो मुसलमानों की हत्या होती तो कोई उज़्र न होना चाहिए था। पिछले सालों में यूरोप के अलग-अलग मुल्क़ में मुसलमानों पर हमलों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसका कारण मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वग्रहों का निरंतर सक्रिय रहना है।

यहूदी विरोध यूरोप, अमेरिका में जुर्म

यहूदी विरोध अब यूरोप और अमेरिका में जुर्म है। इसका कोई संकेत मिलना भी असभ्य माना जाता है। कई बार इस्राइल की नीतियों के विरोध या आलोचना को भी यहूदी विरोध कह दिया जाता है। लेकिन वह सिर्फ़ इस्राइल के समर्थकों की चतुराई है। किसी ने इसकी वज़ह से यह नहीं कहा है कि यहूदी विरोध का विरोध उचित नहीं है, या अतिवाद है। पिछले कुछ समय से ब्रिटेन की लेबर पार्टी में इसे लेकर बहस चल रही है कि उसमें प्रच्छन्न यहूदी विरोध है।

क्या ऐसा करके यूरोप या अमेरिका किसी अति की तरफ़ चले गए हैं। नहीं! हिटलर के उदय के कारणों की पड़ताल के साथ यहूदियों के साथ सोवियत संघ में हुए बर्ताव और इस तथ्य को भी नहीं भूला गया है कि हिटलर से भाग रहे यहूदियों को यूरोप ने अपने यहाँ शरण नहीं दी। यह माना गया कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक ग्रंथि या बीमारी है और इसके लक्षणों को तुरंत ही पकड़ना ज़रूरी है।

इसलामोफ़ोबिया कैसे आया?

जैसे यहूदी विरोध आपके भीतर संस्कार की तरह सोया रहता है, वैसे ही मुसलमान विरोध भी। इसे इसलामोफ़ोबिया कहा गया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि इसलाम से नहीं, लोगों के भीतर मुसलमानों को लेकर तरह-तरह के पूर्वग्रह हैं। इसलिए इसे मुसलमान विरोध ही कहना उचित है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि कुरआन को ही अनेक लोग हिंसा की जड़ मानते हैं और इस तरह उसपर आधारित धर्म को अनिवार्यतः हिंसक मानते हैं। जो भी हो, यह धर्म मात्र और उसके माननेवालों के ख़िलाफ़ पूर्वग्रह से शुरू होकर घृणा तक जाता है। यह घृणा एक समय के बाद या मौक़ा मिलते ही मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा में बदल जाती है। 

यह माना जाता है कि बेचारे हमलावर क्या करें, मुसलमान होते ही ऐसे हैं। क्यों वे ऐसे रहते हैं कि उनसे चिढ़ हो? यहाँ हिंसक से सहानुभूति की माँग की जाती है।

‘मसजिद पर हमला अपवाद नहीं’

न्यूज़ीलैंड की मसजिदों पर हुए हमले के बाद एक बार फिर यूरोप में इस पर बहस शुरू हो गई है कि इस हमले को अपवाद समझना भारी भूल है। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हमलावर हममें से एक नहीं है या हम उसे अपना मानने से इनकार करते हैं। 
मुसलमान विरोध ने ही इस ऑस्ट्रेलियाई नौजवान को हमले के पहले 74 पृष्ठ के मुसलमान विरोधी घोषणा-पत्र जारी करने की हिम्मत दी। हमले का एक वैचारिक आधार उसके पास है। घोषणा-पत्र को पढ़ने पर भारत के लोगों को लगेगा कि यह हमारे यहाँ के ही किसी व्यक्ति ने लिखा है।
मुसलमान हमलावर हैं, वे अपनी तादाद बढ़ाकर श्वेत लोगों को अल्पसंख्यक बना देंगे, आदि, आदि। यह सब हम अरसे से सुनते चले आ रहे हैं। वे गंदे होते हैं, कई शादियाँ करते हैं और ढेरों बच्चे पैदा करते हैं, यह सब भी। यह भी कि वे अपने बच्चों को शुरू से ही हिंसा की ट्रेनिंग देते हैं, कि उनके घरों और मसजिदों में हथियार जमा किए जाते हैं।

घृणा आती कहाँ से है?

हमारे यहाँ यह सब स्कूलों में अध्यापकों के मुंह से भी बच्चे सुनते हैं और घरों में माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी या रिश्तेदारों से। यह सब सुनते हुए हम उनके साथ आराम से चाय पीते रहते हैं। यह तो अत्यंत अहिंसक माना जाता है कि मुसलमान हमसे सबकुछ ठीक उलटा करते हैं, पूजा उपासना से लेकर रोटी तक वे उलटे तवे पर बनाते हैं। 

मुसलमान स्वभावतः हिंसक होते हैं और अविश्वसनीय भी, उनकी वफ़ादारी अपने मुल्क़ से नहीं। यह तो रामचन्द्र गुहा जैसे विद्वान ने भी लिख दिया कि बुर्का त्रिशूल की तरह ही हिंसक है। यह घृणा जुमे की नमाज़ में जमा मुसलमानों को देखकर भी पैदा होती है, मानो वे हमारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेना चाहते हैं।

‘कक्षा में बैठना हमेशा यंत्रणादायक’

भारत में यह आम है। मध्यकाल का इतिहास लिखने और पढ़ानेवालों में यह इस कदर घुसा हुआ है, यह मुझे तब समझ में आया जब तक़रीबन मेरे हमउम्र एक मुसलमान ने कहा कि उन्हें इतिहास की कक्षा में बैठना हमेशा यंत्रणादायक मालूम होता था। मुसलमान बच्चे स्कूलों में यह विद्वेष और घृणा झेलते हुए बड़े होते हैं और भारत के नागरिक बनते हैं। भारत की नागरिकता में यह शिक्षा शामिल है कि उन्हें इसे अपने अस्तित्व को इसी से परिभाषित करना है।

भारत में मुसलमान-विरोध राजनीति में स्वीकार्य है। एक पूरा दल इसी पर टिका हुआ है। दूसरे दलों को उनके साथ काम करने में कभी उलझन नहीं हुई। वे बिना किसी शर्म के मुसलमानों के हमदर्द होने का दावा कर सकते हैं। भारत का प्रधानमंत्री ही एक ऐसा शख़्स है जिसने मुसलमान विरोधी घृणा को कला में बदल दिया है।

दलितों को अपशब्द कहना अब क़ानूनन जुर्म है। यह अपने आप नहीं हुआ। इससे दलितों को अपशब्द कहना बंद नहीं हुआ। लेकिन इस क़ानून के ज़रिए हमने यह बताया कि यह भारत के लिए इस हद तक अस्वीकार्य है कि हम इसे अपराध मानते हैं। फिर मुसलमानों के साथ अपमान और घृणा क्यों अब तक सामाजिक व्यवहार का अंग है? क्यों यह असभ्यता, जुर्म और नाकाबिले बर्दाश्त नहीं ठहराई गई है? क्या इससे हमारे बारे में कुछ पता नहीं चलता? क्या दूर न्यूज़ीलैंड में हुई हत्याओं के लिए हम अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास कर पाएँगे?