देश के कट्टर और कथित सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को नेता विपक्ष राहुल गांधी से शिकायत है कि राहुल गांधी कभी संघ के लोगों से नहीं मिलते। संघ की यह छटपटाहट क्यों है। क्या वो राहुल की मोहब्बत की दुकान को अपने कट्टर हिन्दुत्व से भेदने में नाकाम हो रहा है। वो राहुल गांधी से मान्यता लेने को क्यों बेकरार है। वो क्यों चाहता है कि राहुल गांधी उसे आदर दें। क्या राहुल गांधी ऐसी शख्सियत बन गये हैं कि आरएसएस का उनकी मान्यता मिले बिना अब काम नहीं चलेगा। जाने माने स्तंभकार और प्रसिद्ध चिंतक अपूर्वानंद का यह जरूरी लेख पढ़िये और पढ़वाइयेः
राहुल गांधी सुल्तानपुर में मोची से मिलते हुए। फाइल फोटो।
आर एस एस शायद यह सोचने लगा है कि वह आज के भारत के लिए इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि किसी को अपना जीवन सुगम करने के लिए उसके दरबार में हाज़िरी लगाना अनिवार्य है। यह तो आज सब कहते हैं कि आपको उद्योग धंधा लगाना हो, कोई व्यवसाय करना हो आपके ऊपर आर एस एस का वरदहस्त आवश्यक है।
क्या भारत में राजनीति करने के लिए भी आर एस एस की अनुमति आवश्यक हो गई है? क्या वह सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की तरह भारत का पितृ संगठन बन गया है कि उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता नहीं खड़क सकता?
राहुल गांधी कोल्हापुर में एक मराठी परिवार के साथ। फाइल फोटो।
राहुल गांधी यूएस में भारत के उन बेरोजगार युवकों के साथ जो मजबूरी में परिवार छोड़कर विदेश गये। फाइल फोटो
इस इनकार के पहले नेहरू एक बार गोलवलकर से मिलने को तैयार हुए थे 1947 में। गोलवलकर के अनुरोध पर हुई उनकी यह मुलाक़ात काफ़ी तनावपूर्ण रही। गोलवलकर ने नेहरू को समझाने का प्रयास किया कि आर एस एस जैसे संगठन की भारत को ज़रूरत है ताकि वह विश्व पर अपना असर डाल सके। नेहरू ने इस पर गोलवलकर को डाँट लगाई और कहा कि ऐसी ताक़त को कभी शैतानी नहीं होना चाहिए। फिर गोलवलकर ने यह सिद्ध करने के लिए देर तक तर्क किया कि सांप्रदायिक हिंसा में संघ की कोई भूमिका नहीं है।नेहरू यह झूठ सुनने के मूड में न थे।अपने अधिकारियों को इस बैठक के बारे में लिखते समय नेहरू ने गोलवलकर का नाम तक लेना ज़रूरी नहीं समझा। बाद में उन्होंने गोलवलकर के पत्रों का उत्तर देना भी ज़रूरी नहीं समझा।
यही इंदिरा गाँधी ने आपातकाल में किया। आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख ने तब अपने ऊपर पाबंदी हटाने के लिए इंदिरा गाँधी को कई पत्र लिखे जो उनकी प्रशंसा करते हुए लिखे गए थे। इंदिरा ने उत्तर नहीं दिया। हालाँकि बाद में इंदिरा ने आर एस एस के साथ एक रणनीतिक रिश्ता बनाया। उनके पिता ने आर एस एस को किसी भी संवाद के योग्य नहीं पाया क्योंकि वे उसे एक असभ्य संगठन मानते थे। जो संगठन किसी समुदाय से घृणा और किसी समुदाय की श्रेष्ठता के विचार पर टिका हो, वह सभ्य कैसे हो सकता था? यह ऐसा संगठन था जो असत्य, अर्धसत्य और छल कपट में माहिर था। वह जो कहता था, करता उससे अलग था। फिर उस पर भरोसा कैसे किया जा सकता था।
नेहरू से पहले गाँधी ने गोलवलकर का मिलने का अनुरोध माना था।गाँधी ऐसी शख़्सियत थे जो किसी से भी मिल सकते थे।यह 12 सितंबर,1947 का दिन था।उन्होंने गोलवलकर को कहा कि उन्हें मालूम हुआ है कि आर एस एस के हाथ खून में डूबे हुए हैं।
नेहरू और गाँधी का समझौता विहीन रुख़ छोड़ दें तो ऐसे नेता भारत में थे जो संघ के निर्दोषिता के दावे पर या ख़ुद को बदलने के उसके वादे पर भरोसा करना चाहते थे। पटेल उनमें एक थे। नेहरू के देश से बाहर रहते हुए उन्होंने गोलवलकर की भेंट का अनुरोध मान लिया। इस मुलाक़ात के बारे में बाद में नेहरू को पटेल ने लिखा कि लगता है इन लोगों को अकल आ रही है।उन्होंने गोलवलकर को हिंसा और घृणा का रास्ता छोड़कर मानवता और सद्भाव की राह पर आने को कहा। संविधान के प्रति वफ़ादारी के लिए कहा। पटेल जब उसे अपना रास्ता बदलने को कह रहे थे तो इसका मतलब यही है न कि इसके पहले वे मानते थे कि आर एस एस ग़लत रास्ते पर था?
पाबंदी हटाने के लिए संघ ने ज़ुबानी तौर पर यह बात मान ली लेकिन पटेल की इस बात को उसने कभी नहीं माना कि भारत हिंदू राष्ट्र नहीं, धर्मनिरपेक्ष रहेगा। बाद में जयप्रकाश नारायण ने भी 1974 में आर एस एस के प्रति अपना आरंभिक कठोर रुख़ छोड़कर उसका साथ लिया। उनकी शर्त थी कि आर एस एस अपनी सांप्रदायिकता छोड़ दे। तत्कालीन संघ प्रमुख देवरस ने वादा किया कि यही होगा लेकिन 1977 में आर एस एस इस बात से मुकर गया। यानी आर एस एस ने हर उस व्यक्ति को धोखा दिया जिसने उसे मौक़ा दिया और उसके प्रति नरमी बरती। कल्पना कीजिए कि पटेल या नेहरू जनतांत्रिक न होते तो क्या गोलवलकर का जेल से बाहर आना और आर एस एस का संगठन के रूप में बचे रहना क्या संभव था? आख़िर पटेल तो लौह पुरुष थे!
आर एस एस भुलाना चाहे लेकिन इतिहास में आर एस एस की इन वादा ख़िलाफ़ियों और उसके असत्य और छलपूर्ण आचरण की असंख्य मिसालें दर्ज हैं।
जब आर एस एस कहता है कि वह हर राजनीतिक दल से मिलता है तो उसका क्या मतलब? क्या यह सच नहीं कि वह भारतीय जनता पार्टी की जीत के लिए ही काम करता है? क्या यह सच नहीं कि आर एस एस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है? क्या आर एस एस के लोग किसी भी दल के लिए काम कर सकते हैं? और क्या कोई भी दल आर एस एस को अपने लिए कमा करने देगा? नरेंद्र मोदी हो या लालकृष्ण आडवाणी या अटलबिहारी वाजपेयी, ये भाजपा के हैं या आर एस एस एस के? आर एस एस की इस बात का कोई मोल नहीं कि वह दलों में भेद नहीं करता। आज यह भी सच है कि आर एस एस का धन ऐश्वर्य भाजपा पर टिका है। उसकी यह औक़ात नहीं कि वह उसके लिए काम न करे? फिर बाक़ी दल उससे क्यों मिलें और मिलकर आख़िर क्या बात करें?
राहुल गाँधी कॉंग्रेस पार्टी के नेता है। आर एस एस कॉंग्रेस पार्टी को और उसकी धर्मनिरपेक्ष विरासत को नष्ट कर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। क्या इसमें कोई संदेह है? कॉंग्रेस इस मामले में कितनी ही कमजोर क्यों न हो, हिंदुओं, मुसलमानों और सबको साथ एक बराबर दर्जे पर साथ रखने में विश्वास करती है और सबकी एकता की बात करती है।आर एस एस सिर्फ़ हिंदुओं की एकता की बात करता है, वह भी काल्पनिक शत्रुओं का भय दिखलाकर उनमें असुरक्षा भरते हुए। फिर राहुल और आर एस एस का संवाद क्या होगा?
राहुल गाँधी अगर संघ के नेताओं से मिलें भी तो शायद यही कहेंगे, जो गाँधी, पटेल और जयप्रकाश ने उन्हें बार बार कहा था कि घृणा, हिंसा और अलगाव का रास्ता छोड़कर वह इंसानियत की राह पर चले। क्या आर एस एस यह सुनने को तैयार है? अगर नहीं तो राहुल गाँधी को क्यों आर एस एस के किसी भी नेता से मिलना चाहिए? राहुल गाँधी को इतिहास पता है और कम से कम वे यह ज़रूर जानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने क्यों आर एस एस प्रमुख का मिलने का प्रस्ताव ठुकराया और उसे भारत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बतलाया। राहुल गाँधी में नेहरू जैसा साहस है या नहीं, यह बहस का विषय है लेकिन कम से कम आर एस एस के बार में उन्हें उनके भीतर नेहरू जैसी स्पष्टता अवश्य है। आर एस एस को भी यह पता है इसलिए उसे छटपटाहट है कि किसी तरह वह इस क़िले को तोड़ ले। वह अभी होता नहीं दिख रहा।