2014 के बाद का जेल साहित्य धीरे-धीरे सामने आ रहा है। सोशल एक्टिविस्ट आनंद तेलतुम्बड़े ने 31 महीने जेल में काटे। उनकी किताब 'द सेल एंड द सोल' कथित 'शहरी नक्सली' कहे जाने वालों के खिलाफ व्यवस्थागत अन्याय की कहानी है। किताब पर स्तंभकार अपूर्वानंद की टिप्पणीः
सोशल एक्टिविस्ट आनंद तेलतुंबड़े
2014 के बाद के हिंदुत्ववादी भारत में भाषा के कारोबार के इतिहास में जेल साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान होगा। जेल-साहित्य से मुराद अपने जेल जीवन के बारे में क़ैदियों के द्वारा लिखी गई किताबों या लेखों से है।आप चाहें तो कविताओं को भी जोड़ लें। सरकार दावा कर सकती है कि बुद्धिजीवियों को जेल में डालकर उसने वह भाषा पर उपकार किया है वरना इतने समृद्ध अनुभव हमें और आपको और किस तरह मिलते।पिछले 10 सालों में सरकारों ने अध्यापकों, शोधार्थियों, छात्रों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को अलग-अलग मामलों में जेल में डाला है। न्यायपालिका ने भी सहयोग किया। उन्हें जमानत न दे कर अदालतों ने उनके जेल जीवन को लंबा किया। सरकार और अदालत की मदद से इन सबको सालों जेल में रहने और उन्हें ध्यान से देखने का मौक़ा मिला । उसका नतीजा किताबों की शक्ल में धीरे धीरे सामने आ रहा है।
आनंद तेलतुंबड़े की नई किताब ‘द सेल एंड द सोल’ इस जेल साहित्य में एक इज़ाफ़ा है। कुछ वक्त हुआ, हम सुधा भारद्वाज की किताब’ फाँसी यार्ड’ पढ़ रहे थे। सीमा आज़ाद की ‘ज़िंदानामा’ उसके पहले छप चुकी है। कोबाद गांधी की किताब ‘फ़्रैक्चर्ड फ्रीडम’ उनके जेल से रिहा होने के बाद प्रकाशित हुई। साईं बाबा की किताब ‘व्हाई डू यू फ़ीयर माय वे’ में कविताएँ, लेख और पत्र शामिल हैं। है लेकिन वह भी उनके जेल जीवन की अनुभव कथा और उसपर उनकी प्रतिक्रिया।
आंनद की यह किताब उनके जेल में बिताए गए 31 महीनों का ब्योरा भर नहीं है।जेल में रहते हुए वे अपनी ज़िंदगी के सफर को तो देखते ही हैं, साथ ही वे भारतीय राजनीति, दलित राजनीति, अंबेडकरवाद, माओवादी राजनीति पर भी विचार करते हैं। इसमें जेल में बिताए गए उनके दिनों का विवरण तो है ही।
आनंद को भीमा कोरेगाँव मामले में गिरफ़्तार किया गया था। 2017 की 31 दिसंबर को महाराष्ट्र में पुणे के पास भीमा कोरेगाँव में एल्गार परिषद नामक एक कार्यक्रम किया गया था। यह कार्यक्रम इसके 200 साल पहले उसी जगह पर बाज़ीराव पेशवा द्वितीय के ख़िलाफ़ ब्रिटिश सेना की जीत के उपलक्ष्य में किया गया गया। अंग्रेजों ने कोई 500 महार सैनिकों की मदद से यह जीत हासिल की। महार समुदाय के लिए ख़ासकर और संपूर्ण दलित वर्ग के लिए इस विजय का सांकेतिक महत्त्व है। यह क्रूर पेशवाई के अंत की घोषणा थी। प्रत्येक वर्ष इस दिन इसी जगह दलित समुदाय इकट्ठा होकर पेशवाई के अंत की याद करते हैं। 2017 की एल्गार परिषद का आयोजन दो न्यायाधीशों के नेतृत्व में बनी एक समिति ने किया था।इसमें नई पेशवाई के अंत और भारत को हिंदुत्व से मुक्त करने का आह्वान किया गया।
कार्यक्रम से लौट रहे लोगों पर रास्ते में हिंदुत्ववादी गुंडों ने हमला किया।एक व्यक्ति की मौत हो गई।महाराष्ट्र में दलितों में रोष उमड़ पड़ा। पुलिस को एफ़ आई आर करनी पड़ी जिसमें संभाजी भिड़े और मिलिंद इकबोटे नाम के दो हिंदुत्ववादी नामज़द किए गए। लेकिन तुरत ही पुलिस ने एक और एफ़ आई आर दर्ज की जिसमें यह आरोप लगाया गया कि एल्गार परिषद में दिए गए उत्तेजक भाषणों की वजह से हिंसा भड़की। जाँच की दिशा बिल्कुल बदल गई। एल्गार परिषद को एक बड़ी साज़िश में तब्दील कर दिया गया।
पुलिस ने दावा किया कि इस साज़िश में पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं। गिरफ़्तारियाँ शुरू हुईं।गिरफ्तार किए गए लोगों में कवि, पत्रकार, वकील, प्रोफेसर, कलाकार और एक जेसुइट पादरी शामिल थे । रोना विल्सन, वरवर राव, सुधा भारद्वाज, फादर स्टेन स्वामी, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा, और वर्नोन गोंजाल्विस, महेश राउत और कबीर कला मंच के कलाकारों को एक एक कर गिरफ़्तार किया गया। इन सबको सरकार ने अर्बन नक्सल कहा। सरकार के मुताबिक़ एक देश व्यापी साज़िश की जा रही थी जिसमें प्रधानमंत्री की हत्या की योजना भी थी।
आनंद तेलतुंबड़े ने एल्गार भीमा कोरेगाँव के आयोजन की आलोचना की थी।उन्होंने ‘वायर’ में प्रकाशित अपने लेख में कहा था कि डॉक्टर अंबेडकर ने इसका सांकेतिक इस्तेमाल किया लेकिन भीमा कोरेगाँव को दलितों की विजय बतलाना एक प्रकार का भुलावा है। वे स्पष्टत: इस आयोजन के ख़िलाफ़ थे।
इसलिए जब पुलिस ने गोवा के उनके घर पर छापा मारा तो सब हैरान रह गए।आनंद को भीमा कोरेगाँव साज़िश से कैसे जोड़ा जा सकता था? लेकिन यह सवाल स्टेन स्वामी या सुधा भारद्वाज या महेश राउत की गिरफ़्तारी के बाद भी किया गया था। इन सबका भीमा कोरेगाँव से क्या लेना देना था?
‘द सेल एंड द सोल’ में आनंद अपनी गिरफ़्तारी की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। यह 2018 में शुरू हुई थी। आख़िरकार 2020 में कोविड महामारी के बीच आनंद ने ख़ुद को पुलिस के हवाले किया। यह किताब इस प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करती है। भारत की न्याय प्रक्रिया न्याय के प्रति उदासीन ही नहीं है, वह प्रायः न्याय विरोधी है, यह समझने के लिए भीमा कोरेगाँव मामले में पुलिस और राज्य से सहमत होने की उसकी तत्परता को देखा जा सकता है।
आनंद मानवाधिकार क्षेत्र में सक्रिय थे। लेकिन कॉरपोरेट जगत में उन्होंने ऊँचे पदों पर काम किया था और आई आई एम,अहमदाबाद में पढ़ाया था। गिरफ़्तारी के पहले वे गोवा के प्रबंधन संस्थान में प्रबंधन में ‘बिग डेटा’ के इस्तेमाल पर काम कर रहे थे। इसलिए जब उनका नाम इस साज़िश में लाया गया तो उनका हैरान होना स्वाभाविक था।
22 अध्यायों में वे अपने जेल के जीवन का विवरण देते हैं। बड़ी बार उन्हें अभियुक्तों और ‘अपराधियों’ के भीतर की मानवीयता के दर्शन होते हैं। लेकिन आनंद की यथार्थवादी दृष्टि कभी धुंधली नहीं पड़ती। कहा भी जाता है कि जेल आपके भीतर की सभ्यता और मानवीयता की पूरी परीक्षा लेती है।
जेल के प्रबंधन से आप समाज के बारे में भी जान सकते हैं।आनंद की गिरफ़्तारी कोविड महामारी के दौरान हुई थी। कोविड में भीड़ भरी तलोजा जेल में जीवित रह जाना चमत्कार से कम न था। आनंद इस दौरान मृत्यु की आसन्नता के अहसास से कई बार गुजरे। उन्होंने जेल कर्मियों, अधिकारियों, डॉक्टरों का झूठ और अमानुषिकता देखी।
फादर स्टेन स्वामी उनके साथ जेल में बंद थे। आनंद की किताब का बड़ा हिस्सा उनके बारे में है। जेल में धीरे धीरे मौत के उनके क़रीब आने का दर्दनाक क़िस्सा आनंद लिखते हैं।
जेल में अम्बेडकरवादी क़ैदियों के व्यवहार में मिथ्या जाति अभिमान को वे नोट करते हैं। किताब के एक हिस्से में अम्बेडकरवादी राजनीति की सीमाओं का विश्लेषण भी है। क्यों यह ‘दलित’ राजनीति परिवर्तनकारी नहीं हो पाती, इस पर दूसरी जगहों पर भी उन्होंने विचार किया है। इस किताब में जेल में रहते हुए इस राजनीति की सीमा का उन्होंने और तीक्ष्णता से अनुभव किया।
जेल समाज का प्रतिबिंब है। समाज की दर्ज़ाबंदी ज्यों की त्यों जेल में दिखलाई पड़ती है। अपराध और वर्ग स्थिति के बीच का रिश्ता जेल में और उजागर हो जाता है। राज्य प्रभुत्वशाली वर्ग का वर्चस्व बनाए रखने का साधन है, यह जेल से बेहतर और कहीं नहीं समझा जा सकता। यह बात कई जेल-संस्मरणों में कही गई है।
इस किताब का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय ‘पॉक्सो’ मामलों में दलितों की बड़ी संख्या पर चर्चा का है। आनंद यह देख कर चकित रह गए कि 2012 के पॉक्सो क़ानून के तहत अभियुक्तों में ‘निचली’ जातियों के गरीब तबकों, मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के लोग ही बहुमत में थे। जेल में ये सबसे अधिक घृणित माने जाते थे और इनके साथ सबसे ख़राब बर्ताव किया जाता था। जेल में महेश राउत ने इसे नोट किया और एक सर्वेक्षण किया। आनंद ने नोट किया ‘ऊँची’ जातियों को और हिंदुओं को यह बर्दाश्त नहीं है कि ‘निचली’ जाति के लड़कों की उनकी लड़कियों से दोस्ती या नज़दीकी हो।वे ‘पॉक्सो’ क़ानून का इस्तेमाल अपनी जाति और धार्मिक शुद्धता के बचाव के लिए करते हैं। इस तरह यह क़ानून समाज में जाति भेद को और गहरा करने का एक साधन बन गया है।
आनंद को जेल में ही अपने भाई मिलिंद की हत्या की ख़बर मिलती है। यह इस किताब के सबसे मार्मिक अंशों में एक है।उन्होंने अपने भाई को नाम दिया था अनिल। स्कूल में दाख़िले के वक्त एक अध्यापक ने उनका नाम लिखवाया: मिलिंद।मिलिंद माओवादी पार्टी में शामिल हुए और उसके शीर्ष पद पर पहुँचे। आनंद माओवादी राजनीति के आलोचक रहे थे। फिर भी वे इसे समझ सकते थे। जेल में उन्हें अपने भाई की हत्या की खबर मिली तो अनिल या मिलिंद के जीवन की यात्रा उनके आगे घूम गई। एक तीव्र बुद्धि, अन्याय के विरुद्ध मुखर जीवन का अन्यायपूर्ण अंत!
31 महीने जेल में बिताने के बाद आख़िरकार आनंद को जमानत मिली।भीमा कोरेगाँव षड्यंत्र के मामले में सुधा भारद्वाज, शोमा सेन,वर्नन गोंजालविस, सुधीर धवले, गौतम नवलखा, वरवर राव को जमानत मिली है। लेकिन उन सबको एक तरह से एक बड़ी जेल में डाल दिया गया है। उनमें से कोई अपने पुराने जीवन में लौट नहीं सकता।
आनंद का जीवन भी उलट पलट हो गया है। वे वापस गोवा अपने संस्थान नहीं जा सकते। ‘बिग डेटा’ की अपनी महत्त्वाकांक्षी परियोजना पर काम फिर से शुरू करना तो सपना है। हम ज़रूर उनके जीवट की प्रशंसा कर सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के बाद आनंद समेत बाक़ी लोगों की गिरफ़्तारी ही एक बड़ा जुर्म है। जेल में उन्हें इतने लंबे वक्त तक रहना पड़ा, यह अदालतों की नाइंसाफ़ी नहीं तो और क्या है?
‘द सेल एंड द सोल’ 2104 के बाद के भारत को समझने के लिहाज़ से अनिवार्य किताबों से एक है।यह आनंद तेलतुंबड़े के बारे में है, भारतीय राज्य ने उनके साथ जो अन्याय किया, उसके बारे में है लेकिन वह इस हिंदुत्ववादी भारत की संरचनात्मक क्रूरता के बारे में भी है। यह किताब लिखी गई, इसके लिए भी क्या हमें अदालतों और पुलिस का शुक्रिया अदा करना चाहिए?