अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।
दहेज विरोधी क़ानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। यह कैसा विरोधाभास है, इस पर अभिजात समाज चुप क्यों है? सवाल उठा रहे हैं लेखक अपूर्वानंद।
एक महीने से अधिक हो गया, छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के सिलगेर में पूरे बस्तर से हजारों आदिवासी इकठ्ठा हो रहे हैं। वे सिलगेर में सीआरपीएफ़ का कैंप लगाए जाने का विरोध कर रहे हैं।
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के एक बयान पर चर्चा चल रही है। उन्होंने असम के (बांग्लाभाषी) मुसलमानों को सलाह दी कि वे परिवार नियोजन अपनाएँ और जनसंख्या नियंत्रण में सहयोग करें।
श्मशान खाली हैं और कब्रों की खुदाई करनेवालों के हाथों को कुछ आराम है। हस्पतालों में भी बिस्तर अब मिल जाएँगे। तो क्या हम इसे प्राकृतिक चक्र मानकर बैठ जाएँ? कितने लोग इस बीच गुज़र गए, उनके बारे में सोचने की जहमत कौन ले?
अब स्पष्ट है कि देश को हर तरफ और हर मुमकिन तरीके से अराजकता में धकेला जा रहा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव को दिल्ली रिपोर्ट करने का निर्देश।
क्या आपने आतंकवाद विरोधी शपथ ली है? सभी प्रकार के आतंकवाद और हिंसा का डटकर विरोध करने की शपथ?
क्या फ़लस्तीन भी कोई देश है? “हाँ!” इसका सीधा जवाब है। वह एक मुल्क है। औपचारिक तौर पर 138 देशों ने उसे मान्यता दे रखी है।
न्याय और न्यायाभास। न्यायाभास से बेहतर और सटीक होगा- इन्साफ़ का धोखा। यानी आपको जान पड़े कि इंसाफ मिल रहा है और वह कभी हाथ न आए। जो सिद्दीक़ कप्पन के साथ किया गया, उसे इन्साफ़ का मज़ाक ही कहेंगे।
क्या आपको उत्तर प्रदेश में पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनावों के बाद की हिंसा और उसमें हुई हत्याओं के बारे में कुछ मालूम है? अगर नहीं तो क्यों, यह आपको पूछना चाहिए।
चुनाव परिणाम घोषित होने के समय से ही आशंका व्यक्त की जा रही थी कि बंगाल की परिपाटी के अनुसार जीत या हार की हालत में भी हिंसा होगी। परिणाम घोषित होते वक्त ही इसे लेकर चेतावनी दी जा रही थी।
भारत में कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद अस्पताल न मिलने, ऑक्सीजन के लिए भटकते हुए, दवा के अभाव में लोग मारे गए।
कल रात से एक वीडियो तेज़ी से घूम रहा है। त्रिपुरा के एक विवाह समारोह का है। एक उत्साही प्रशासनिक अधिकारी विवाह स्थल पर पहुँच कर रुखाई से सबको विवाह स्थल से हाँक कर बाहर निकाल रहा है। त्रिपुरा में कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए बड़े जमावड़े पर पाबंदी है।
कोरोना से लड़ने में सरकार क्यों नाकाम है, उसने क्यों पहले से तैयारी नहीं की, ये सवाल हैं। लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह सरकार चुनते वक्त किसी ख़ास समुदाय के प्रति नफ़रत नहीं थी? सवाल उठा रहे हैं लेखक अपूर्वानंद।
पश्चिम बंगाल के श्यामपुकुर विधान सभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार संदीपन बिस्वास चुनाव प्रचार करते हुए वाम दलों के नेताओं के घर गए और उनसे अपने पक्ष में मतदान की प्रार्थना की।
अन्ना हज़ारे के आंदोलन में लोकपाल क़ानून जिस तरह बना उससे सरकार को बिना चर्चा क़ानून बनाने के रास्ते मिले। बहुमत से क़ानून बन जाता है। विचार-विमर्श की क्या ज़रूरत?
फिर छत्तीसगढ़ से सीआरपीएफ़ के जवानों के मारे जाने की ख़बर आ रही है। लिखते वक़्त 22 जवानों की मौत का पता चला है। संख्या बढ़ सकती है। ये सब माओवादी विरोधी अभियान में हिस्सा ले रहे थे।
अशोका यूनिवर्सिटी से प्रोफ़ेसर प्रताप भानु मेहता के इस्तीफे के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों में/की आज़ादी के प्रश्न पर बहस चल ही रही है।
दिल्ली को पूरी तरह अपने अँगूठे के नीचे लाने के लिए केंद्र सरकार ने जो कानूनी संशोधन प्रस्तावित किया है उसका सबसे पहला विरोध उमर अब्दुल्ला ने किया।
अनुयायी एक अकेले बच्चे पर मंदिर के प्रांगण में हिंसा कर सकते हैं, उसके गाली गलौज कर सकते हैं क्योंकि वह पानी पीने वहाँ आ गया था। उसे क्या पता था कि यहाँ हृदय घृणा से जलकर राख हो चुके हैं।
बिहार के छपरा स्थित जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के 16 अध्यापकों को विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष ने नाचने के चलते निलंबित कर दिया है।
हरियाणा सरकार ने निजी क्षेत्र की नौकरियों में स्थानीय आबादी के लिए 75% जगहें आरक्षित करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय संविधान विरुद्ध तो है ही, राजनीतिक और सामाजिक रूप से यह कड़वाहट और उत्तेजना पैदा करने वाला है।
2002 की हिंसा ने गुजरात में विभाजन मुकम्मल कर दिया। इस हिंसा ने हम जैसे बहुत से ग़ैर गुजरातियों का परिचय गुजरात से करवाया। गुजरात में जो हो रहा था, वह हमारे राज्यों में नहीं हो सकता, इस खुशफहमी में भी हम काफ़ी वक़्त तक रहे।
मूर्खता की राष्ट्रीय, नहीं, नहीं, अंतरराष्ट्रीय परीक्षा आयोजित की जा रही है। इसमें उत्तीर्ण होने पर आप प्रामाणिक रूप से मूर्ख घोषित किए जा सकेंगे।
यह हुक्म सिर्फ विश्वविद्यालयों या शिक्षण संस्थानों के लिए नहीं है। शोध संस्थान, प्रयोगशालाएँ भी इसके घेरे में हैं। इस परिपत्र का अर्थ होगा व्यावहारिक रूप में किसी भी अकादमिक विचार विमर्श का अंत।
कृषि क़ानून और किसान आन्दोलन पर क्यों सरकार ढिठाई से बिना पलक झपकाए उस सदन में झूठ बोल रही है, जहाँ संसद को गुमराह करना जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार का हनन है?
सरकार और शासक दल जनता के उन हिस्सों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़का रहे हैं जो उसके उन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं जो उन्हें हानिकर लगते हैं।