फोटो साभार: एक्स/@vishu_reports
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में क्या एबीवीपी को फायदा हुआ है? या फिर वास्तविक नतीजे बताते हैं कि एबीवीपी का असर पहले की तुलना में कम हुआ है? पढ़िए, चुनावी आँकड़ों, कैंपस राजनीति और छात्र संगठनों की स्थिति का विश्लेषण।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के हालिया चुनाव में ABVP द्वारा सेंट्रल पैनल की एक सीट जीतने के बाद ऐसी हवा बनाई जा रही है मानो इस साल क़िले में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने कोई बहुत बड़ी सेंध लगा ली हो। यूनिवर्सिटी में जैसे कोई भगवा लहर चल निकली हो। सच्चाई इसके उलट है। सच्चाई यह है कि इन चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का असर बढ़ना तो दूर, पहले से बहुत अधिक घटा है।
पहले कुछ मोटी-मोटी बात। यह पहली बार नहीं है कि ABVP का कोई उम्मीदवार सेंट्रल पैनल में आया हो। 2015-16 में ABVP के कैंडिडेट ने जॉइंट सेक्रेटरी की सीट जीती थी। यही नहीं, 2000-2001 में संदीप महापात्र ने JNUSU के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता था। सो ऐसा कुछ नहीं जो ऐतिहासिक हो या पहली बार हुआ हो।
अब असल बात पर आते हैं कि मैं कैसे कह रहा हूँ कि ABVP का असर यूनिवर्सिटी में घटा है।
किसी राज्य या संगठन में किसी दल या पक्ष का असर बढ़ा है या घटा है, यह इससे पता चलता है कि वहाँ होने वाले चुनाव में उसको मिलने वाले वोट पहले से बढ़े हैं या घटे हैं। मसलन, पिछली बार हुए किसी चुनाव में X को 30% वोट मिले थे। अब इस बार हुए चुनाव में X को यदि 25% मिलते हैं तो हम कहेंगे X की लोकप्रियता या प्रभाव में कमी हुई है। अगर 35% वोट मिलते हैं तो हम कहेंगे कि X की लोकप्रियता या प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है। सिंपल।
अब हम देखते हैं कि JNUSU के इस बार के चुनावों में ABVP को हर सीट पर कितने वोट मिले हैं।
मतलब क्या? मतलब यही कि पिछली बार जितने छात्रों ने ABVP के प्रत्याशियों को वोट दिया था, इस बार उससे कम छात्रों ने ABVP के प्रत्याशियों को वोट दिया है।
हाँ, यह अवश्य है कि इस बार वोटिंग कुछ कम हुई है। पिछली बार 73% वोट पड़े थे, इस बार 70% वोट पड़े हैं। इसके कारण हर दल या पक्ष को मिले वोटों की संख्या में कुछ कमी हो सकती है। लेकिन यदि हम इस 3% के फ़ैक्टर को भी ध्यान में रखें तो ABVP के उम्मीदवारों को मिलने वाले वोटों में अधिक से अधिक 100 वोटों की कमी हो सकती थी। लेकिन यहाँ तो 250 से 550 तक वोट कम होते दिख रहे हैं।
निष्कर्ष यह कि चुनाव परिणामों से चाहे कुछ भी दिख रहा हो, तथ्य यह है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जितने छात्र पिछली बार ABVP के साथ थे, इस बार उससे कम छात्र ABVP के साथ हैं।
आपमें से कोई पूछ सकता है कि अगर ऐसा है तो काउंसलर के पदों पर ABVP के क़रीब आधी सीटें कैसे जीतीं और जॉइंट सेक्रेटरी का पद कैसे हासिल किया। इसका जवाब यह है कि पिछली बार लेफ़्ट के संगठन AISA, SFI, AISF और DSF एकसाथ थे, इस बार वे दो गुटों में बँट गए थे। इसलिए कम वोट पाने के बावजूद ABVP ने काउंसलर सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया और सेंट्रल पैनल में भी एक सीट जीती।
इसे यूँ समझिए कि किसी चुनाव में समान विचारधारा वाले दो पक्ष मिलकर लड़ रहे हैं और 60% वोट पाते हैं। प्रतिपक्ष को केवल 40% वोट मिलते हैं। 20% के मतांतर से गठबंधन जीत जाता है।
अगले चुनाव में वह गठबंधन बँट जाता है और अलग-अलग लड़ता है। उसमें से एक को 36 और दूसरे को 26% वोट मिलते हैं। यानी गठबंधन के वोटों को जोड़ दिया जाए तो उसके वोट 2% बढ़ते हैं। उधर प्रतिपक्ष को 38% वोट मिलते हैं यानी 2% वोट घटते हैं।
लेकिन चूँकि इस तीन-तरफ़ा लड़ाई में प्रतिपक्ष सबसे आगे हैं - 38% बनाम 36% बनाम 26% इसलिए वह अधिकांश सीटें जीत जाता है। लोगों को लगता है, प्रतिपक्ष का समर्थन बढ़ा है।
JNUSU में काउंसलर सीटों पर यही हुआ है। सेक्युलर संगठनों के वोट बँटे हैं जिस कारण कम वोट पाकर भी ABVP के उम्मीदवार आधी सीटों पर चुनाव जीत गए हैं। सेंट्रल पैनल में भी एक सीट वह जीत ले गई है और बाक़ी सीटों पर भी कम मार्जिन से हारी है।
यही ख़तरे की एक बड़ी चेतावनी है। जिस तरह BJP केवल 36% वोट पाकर अपने कुछ सहयोगियों के बल पर पूरे देश पर राज कर रही है और बहुमत का समर्थन हासिल न होने के बावजूद हिंदू बहुसंख्यवाद की राजनीति करते हुए अपने हिसाब से क़ानून बदल रही है, कल ABVP भी JNU के छात्र संघ पर क़ाबिज़ हो सकती है और लाल क़िले को भगवा महल में तबदील कर सकती है अगर उसके विरोध में चुनाव लड़ने वाले सेक्युलर संगठन एक नहीं हुए।