मुंबई की लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 को हुए सिलसिलेवार बम धमाकों ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। सात धमाकों में 189 लोग मारे गए और 824 से ज्यादा घायल हुए थे। ये विस्फोट मुंबई की पश्चिमी रेलवे लाइन की लोकल ट्रेनों में शाम 6:24 से 6:35 के बीच, महज 11 मिनट में हुए थे। ये वो समय था जब ट्रेनें खचाखच भरी थीं, और लोग दिनभर की थकान के बाद घर लौट रहे थे। आतंकियों ने मुंबई की लाइफलाइन को निशाना बनाया था। लेकिन 19 साल बाद, बाम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले के सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया। यह फैसला न सिर्फ जांच एजेंसियों के लिए झटका है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि बेगुनाहों को 19 साल तक जेल में सड़ने के लिए मजबूर करने वाले कौन हैं…और अगर सभी बरी हो गये तो असली दोषी कहाँ गये?

क्या हुआ था उस दिन?

11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात प्रेशर कुकर बम धमाके हुए। इनमें RDX का इस्तेमाल किया गया था, और बमों को फर्स्ट-क्लास डिब्बों में रखा गया ताकि ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। धमाके माटुंगा और माहिम जंक्शन, खार-सांताक्रूज, बांद्रा-खार, जोगेश्वरी, मीरा रोड-भायंदर, और बोरीवली स्टेशनों के बीच हुए। इस हमले ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया।
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महाराष्ट्र की एंटी टेरेरिस्ट स्क्वॉड (ATS) ने जांच शुरू की और 13 लोगों को गिरफ्तार किया। ATS ने दावा किया कि ये हमला लश्कर-ए-तैयबा और स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) ने मिलकर किया। पुलिस ने इसे 2002 के गुजरात दंगों से जोड़ा और कहा कि यह गुजराती समुदाय को निशाना बनाने की साजिश थी। चार्जशीट में 192 गवाहों के बयान, कथित विस्फोटक सामग्री, और इकबालिया बयानों को सबूत के तौर पर पेश किया गया। चार्जशीट 10,667 पन्नों की थी।

जाँच और मुक़दमे की कहानी

इस मामले में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) के तहत मुकदमा चला। MCOCA के तहत एसपी स्तर के पुलिस अधिकारी के सामने दिए गए इकबालिया बयान को सबूत माना जा सकता है। लेकिन आरोपियों ने दावा किया कि उनके बयान जबरन लिए गए। सुप्रीम कोर्ट में MCOCA की वैधता को चुनौती दी गई, जिसके चलते दो साल तक मुकदमा रुका रहा।

2008 में मुंबई क्राइम ब्रांच ने पांच अन्य लोगों को गिरफ्तार कर दावा किया कि विस्फोट इंडियन मुजाहिदीन ने कराए थे, जो ATS के दावे से उलट था।

इस मामले में एक और दुखद घटना घटी। आरोपियों की पैरवी करने वाले युवा वकील शाहिद आजमी की 2010 में कुर्ला में गोली मारकर हत्या कर दी गई। शाहिद स्वयं 1992 के बम विस्फोटों के सिलसिले में गलत गिरफ्तार किए गए थे और जेल में रहते हुए उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी की थी। उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्म शाहिद (2012) ने सिस्टम की उन कमियों को उजागर किया, जहां बेगुनाहों को फंसाना और यातना देकर कबूलनामा लेना आम बात थी।

मकोका अदालत का फ़ैसला

नौ साल की सुनवाई के बाद, 2015 में विशेष मकोका अदालत ने 12 आरोपियों को दोषी ठहराया। कमाल अहमद अंसारी, मोहम्मद फैसल शेख, एहतेशाम सिद्दीकी, नवीद हुसैन खान, और आसिफ खान - को फाँसी की सजा दी गई। तनवीर अहमद अंसारी, मोहम्मद शफी, मोहम्मद अली, साजिद अंसारी, मुजम्मिल शेख, सुहैल शेख, और जमीर शेख को आजीवन कारावास मिला। वकील अब्दुल वाहिद शेख़ को बरी कर दिया गया।
विश्लेषण से और

बॉम्बे हाईकोर्ट ने फ़ैसले को पलटा

मामला बाम्बे हाईकोर्ट पहुंचा। जस्टिस अनिल किलोर और जस्टिस श्याम चांडक की विशेष पीठ ने छह महीने तक रोजाना सुनवाई की। 21 जुलाई 2025 को कोर्ट ने सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया। फाँसी की सज़ा पाने वाले कमाल अहमद अंसारी की 2021 में जेल में ही मौत हो गयी थी। हाईकोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपना केस "संदेह से परे" साबित करने में पूरी तरह नाकाम रहा।

हाईकोर्ट ने जाँच में कई खामियां पाईं

गवाहों की विश्वसनीयता: कई गवाहों ने 100 दिन बाद आरोपियों की पहचान की, जो संदिग्ध था।

इकबालिया बयान: ये बयान जबरन और यातना के जरिए लिए गये थे।

विस्फोटकों का सबूत: अभियोजन पक्ष बमों के प्रकार या उनकी बरामदगी को साबित नहीं कर सका। सबूतों की सीलिंग खराब थी और उन्हें ठीक से संरक्षित नहीं किया गया।

MCOCA और UAPA की मंजूरी: “यांत्रिक" तरीक़े से बिना सोचे-समझे दी गयी।

निचली अदालत की जल्दबाजी: सबूतों की गहराई से जाँच नहीं की गयी।

बचाव पक्ष की ओर से उड़ीसा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. मुरलीधर और केरल हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एस. नागमुथु ने बहैसियत वकील दलीलें दीं। उन्होंने साबित किया कि आरोपियों को यातना देकर कबूलनामा लिया गया था।
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अब्दुल वाहिद शेख की कहानी

इस मामले में शुरू में ही गिरफ्तार अब्दुल वाहिद शेख को 2015 में बरी किया गया था। उन्होंने जेल में रहते हुए कानून की पढ़ाई की और बाद में ‘बेगुनाह कैदी’ नामक चर्चित किताब लिखी। इस किताब में उन्होंने बताया कि कैसे उनसे और अन्य आरोपियों से जबरन कबूलनामा लिया गया। अब्दुल ने कानून में मास्टर्स और जेल अधिकारों पर पीएचडी की। आज वे एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और ATS अधिकारियों के खिलाफ FIR की मांग कर रहे हैं। उनकी किताब का अंग्रेजी अनुवाद Innocent Prisoners मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बीच चर्चित है।

सियासी हलचल और सवाल

हाईकोर्ट के फैसले ने महाराष्ट्र की सियासत में हलचल मचा दी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इसे "चौंकाने वाला" बताया और सुप्रीम कोर्ट में अपील की घोषणा की। सुप्रीम कोर्ट ने 24 जुलाई 2025 को सुनवाई तय की है। बीजेपी नेता किरीट सोमैया ने नई जांच की मांग की, जबकि समाजवादी पार्टी के अबू आसिम आजमी और AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी ने पुलिस पर मुसलमानों को फंसाने का आरोप लगाया। जमीयत उलमा-ए-हिंद ने इसे "न्याय की जीत" बताया।

सिस्टम की नाकामी?

इस फैसले ने जांच एजेंसियों के रवैये, खासकर अल्पसंख्यकों के प्रति उनके दृष्टिकोण पर सवाल खड़े किए हैं। जस्टिस मुरलीधर ने जांच में पक्षपात और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह की ओर इशारा किया। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सुझाव दिया कि झूठे मुकदमों में जेल काटने वालों को मुआवजा देने का कानून बनना चाहिए, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं दिखती।

19 साल तक जेल में रहे इन 12 लोगों ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा खो दिया। भारत में औसत आयु 70 साल है, यानी इन लोगों ने अपनी जिंदगी का करीब एक-चौथाई हिस्सा बेगुनाही में जेल में काटा। ऐसा लगता है कि जाँच एजेंसियों के लिए शायद आरोपियों का मुसलमान होना ही काफी था, सबूतों की परवाह नहीं की गयी। यह मामला भारत की न्याय प्रणाली और जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाता है। यह वाकई "अंधेर नगरी, चौपट राजा" वाली कहानी है, जहाँ बेगुनाहों को सजा दी जाती है और असली अपराधी आजाद घूमते हैं? 189 मृतकों के परिजनों को इंसाफ कब मिलेगा? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।