राहुल गांधी 'रोहित वेमुला एक्ट' लागू करने की माँग क्यों कर रहे हैं? और यह एक्ट क्या है जिस पर वह इतना ज़ोर दे रहे हैं? क्या यह पहल भारतीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक न्याय को मजबूती देगी?
नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने ‘रोहित वेमुला एक्ट’ लागू करने की माँग करके भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में दलित, आदिवासी और ओबीसी छात्रों के साथ होने वाला भेदभाव की ओर फिर सबका ध्यान खींचा है। उन्होंने तीन कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस सिसलिसे में पत्र लिखा है। सामाजिक न्याय को लेकर बड़ी लड़ाई का ऐलान करने वाले राहुल गांधी की यह माँग अगर राजनीतिक उद्देश्यों से हो तो भी एक बेहद अहम मुद्दे को संबोधित करती है। अप्रैल के मध्य में राहुल गाँधी ने संसद में दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदाय के छात्रों और शिक्षकों से मुलाकात की। इस बैठक में उन्हें उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव की दिल दहलाने वाली कहानियाँ सुनने को मिलीं। 18 अप्रैल 2025 को, राहुल ने एक्स पर इस मुलाकात की तस्वीरें साझा कीं। साथ में कर्नाटक, तेलंगाना, और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्रियों सिद्धारमैया, ए. रेवंत रेड्डी, और सुखविंदर सिंह सुक्खू को लिखे पत्र भी जारी किये। उन्होंने पत्र में रोहित वेमुला एक्ट लागू करने का आग्रह किया था।
राहुल ने लिखा, "रोहित वेमुला, पायल तडवी, और दर्शन सोलंकी जैसे होनहार युवाओं की हत्या स्वीकार्य नहीं है। यह शर्मनाक है कि आज भी लाखों दलित, आदिवासी, और ओबीसी छात्रों को शिक्षा संस्थानों में क्रूर भेदभाव झेलना पड़ता है।" उन्होंने डॉ. बी.आर. आंबेडकर के अनुभवों का जिक्र किया, जिन्हें स्कूल में अलग बैठने और पानी न मिलने जैसी अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा। राहुल ने कहा कि यह एक्ट सुनिश्चित करेगा कि कोई भी बच्चा वह नहीं सहे, जो आंबेडकर या रोहित ने सहा। रोहित वेमुला एक्ट क्या है? रोहित वेमुला एक्ट एक प्रस्तावित कानून है, जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव को अपराध घोषित करना है। इसके मुख्य प्रावधान हैं: यह एक्ट न केवल भेदभाव को रोकने, बल्कि कैंपसों को समावेशी और सुरक्षित बनाने का प्रयास है। लेकिन इसकी जरूरत क्यों पड़ी? जवाब छिपा है रोहित वेमुला की त्रासद कहानी में।
रोहित चक्रवर्ती वेमुला एक 26 वर्षीय पीएचडी स्कॉलर थे, जो हैदराबाद विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। उनका जन्म 30 जनवरी 1989 को आंध्र प्रदेश के गुंटूर में हुआ था। माँ राधिका वेमुला के साथ वे एक दलित बस्ती में पले-बढ़े और बचपन से ही जातिगत भेदभाव को करीब से देखा। रोहित आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ASA) के सक्रिय सदस्य थे, जो दलित और वंचित समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ता था। जुलाई 2015 में, विश्वविद्यालय ने उनकी ₹25,000 की मासिक छात्रवृत्ति रोक दी। अगस्त 2015 में, रोहित और चार अन्य ASA सदस्यों पर ABVP नेता एन. सुशील कुमार पर कथित हमले का आरोप लगा। इसके बाद, BJP सांसद बंडारु दत्तात्रेय (अब हरियाणा के राज्यपाल) ने तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखकर विश्वविद्यालय को "जातिवादी और राष्ट्रविरोधी" गतिविधियों का अड्डा बताया। स्मृति ईरानी के मंत्रालय ने यह पत्र विश्वविद्यालय प्रशासन को अग्रेषित किया, जिसके बाद सितंबर 2015 में रोहित और चार अन्य छात्रों को निलंबित कर हॉस्टल से निकाल दिया गया।रोहित वेमुला कौन थे?
17 जनवरी 2016 को, रोहित ने अपने दोस्त के हॉस्टल रूम में आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु ने देशभर में आक्रोश फैलाया। हैदराबाद विश्वविद्यालय सहित कई संस्थानों में विरोध प्रदर्शन हुए। रोहित की आत्महत्या को कई लोगों ने "संस्थागत हत्या" करार दिया, जिसमें विश्वविद्यालय प्रशासन और केंद्र सरकार की संवेदनहीनता को जिम्मेदार ठहराया गया।
रोहित की आत्महत्या के बाद सामने आये उनके सुसाइड नोट ने समाज की गहरी खामियों को उजागर किया। उन्होंने किसी को दोषी नहीं ठहराया, लेकिन उनके शब्दों ने जातिगत भेदभाव की कड़वी सच्चाई को सामने ला दिया। नोट में उन्होंने लिखा:रोहित का सुसाइड नोट
मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था। विज्ञान का लेखक, जैसे कार्ल सागन। लेकिन मेरा जन्म मेरी घातक दुर्घटना है। इंसान की कीमत उसकी तात्कालिक पहचान तक सीमित कर दी गई। मैं इस समय दुखी नहीं हूँ। मैं खाली हूँ।
यह नोट न केवल रोहित की व्यक्तिगत पीड़ा को दर्शाता है, बल्कि उस व्यवस्था को चुनौती देता है, जो दलितों को उनकी जाति के आधार पर हाशिए पर धकेल देती है। इसने देश को झकझोर दिया और दलित भेदभाव के खिलाफ एक बड़े आंदोलन को जन्म दिया। लगभग एक दशक बाद भी स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में दलित छात्र शिवम सोनकर के प्रवेश का हालिया मामला इसका उदाहरण है। शिवम को UGC-NET JRF परीक्षा सामान्य श्रेणी में दूसरा स्थान हासिल करने के बावजूद BHU में दाखिला लेने के लिए 20 दिन तक धरना देना पड़ा। उनका दाखिला तब हुआ, जब यह मुद्दा संसद तक पहुंचा। यह सवाल उठता है: आजादी के 77 साल बाद क्या दलितों का उत्पीड़न सामान्य मान लिया गया है? BHU अकेला नहीं है। हाल के कुछ अन्य मामले देखिए— ये घटनाएं बताती हैं कि भारत के शीर्ष शिक्षा संस्थानों में भी दलित और आदिवासी छात्र सुरक्षित नहीं हैं। उनकी तादाद भी आबादी से कम है। 2023-24 AISHE के आंकड़े बताते हैं: UGC की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, 23% SC/ST छात्रों ने कैंपस में जातिगत टिप्पणियां या बहिष्कार झेला। IITs में 2023 की एक जांच में पाया गया कि 15% दलित छात्रों ने शिक्षकों या सहपाठियों से उत्पीड़न का अनुभव किया। हैदराबाद विश्वविद्यालय में 1970 से 2023 तक 12 दलित छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें भेदभाव से उपजी हताशा मुख्य कारण थी। SC/ST छात्रों की ड्रॉपआउट दर सामान्य वर्ग की तुलना में 20% अधिक है।जारी है भेदभाव
जातिगत भेदभाव की जड़ें प्राचीन ग्रंथों, विशेष रूप से मनुस्मृति, में मिलती हैं, जिसे कुछ लोग हिंदू धर्म का कानून मानते हैं। मनुस्मृति में शूद्रों (जिन्हें आज दलित माना जाता है) के लिए शिक्षा पर कठोर प्रतिबंध हैं: ये क्रूर नियम वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बनाए गए थे। विनायक दामोदर सावरकर ने मनुस्मृति को "हिंदू लॉ" के रूप में समर्थन दिया था, जिसकी आलोचना के लिए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को फटकार लगाई। दूसरी ओर, डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को महाड में मनुस्मृति की प्रतियां जलाकर इसका विरोध किया। आंबेडकर ने शिक्षा को दलित उत्थान का सबसे शक्तिशाली हथियार माना। उनका कथन आज भी गूंजता है: "शिक्षा वह शेर है, जो हर जंजीर को तोड़ देता है।"मनुस्मृति का दंश
जातिगत भेदभाव केवल सामाजिक अन्याय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नुक़सान है। रोहित जैसे होनहार छात्रों की आत्महत्याएं देश की वैज्ञानिक और बौद्धिक प्रगति को रोकती हैं। यह नुकसान न केवल प्रतिभा का है, बल्कि समाज के नैतिक पतन का भी प्रमाण है। दलित, आदिवासी, और ओबीसी समुदाय देश की बहुसंख्यक आबादी हैं। इन समुदायों को आधुनिक शिक्षा और तकनीकी कौशल से वंचित रखना भारत की प्रगति को बाधित करता है। ऐसा नहीं कि उनके पास ज्ञान नहीं है। खेती, पशुपालन, शिल्पकारी, और दस्तकारी में इन समुदायों का योगदान ऐतिहासिक रहा है, लेकिन व्यवस्थागत भेदभाव ने उन्हें समकालीन अवसरों से दूर रखा।भेदभाव की त्रासदी
क्या हमारा समाज इतना असंवेदनशील हो गया है कि वह अपनी प्रतिभाओं को उनकी जाति के कारण खो देता है?
राहुल गांधी की रोहित वेमुला एक्ट की मांग पर सवाल उठता है: क्या यह राजनीतिक चाल है? राजनीति को हर हाल में बुरा मानना गलत है। यह वही राजनीति थी, जिसने लाखों स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया और भारत को आजादी दिलाई। सवाल इरादों का है। राहुल गांधी चाहते हैं कि कैंपसों का "मनुवादी चरित्र" बदले, और दलित, आदिवासी, और ओबीसी छात्रों के साथ भेदभाव करने वालों को सजा मिले। यह मांग देश के लिए अच्छी है या बुरी, इसे समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन एक और सवाल है: यह एक्ट केवल कांग्रेस शासित राज्यों में क्यों लागू होना चाहिए? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे पूरे देश में लागू नहीं कर सकते? क्या संसद में रोहित वेमुला एक्ट बनने से उन्हें कोई रोक रहा है? यदि दलित छात्रों का भेदभाव उन्हें उद्वेलित नहीं करता, तो क्या इसके पीछे भी कोई राजनीति है?राहुल गांधी की राजनीति?
रोहित वेमुला की कहानी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि लाखों दलित, आदिवासी, और ओबीसी छात्रों की है, जो हर दिन भेदभाव का सामना करते हैं। रोहित वेमुला एक्ट उनकी आवाज को ताकत दे सकता है। लेकिन यह तभी सार्थक होगा, जब इसे पूरे देश में लागू किया जाए और समाज अपनी मानसिकता बदले। डॉ. आंबेडकर का सपना था एक ऐसा भारत, जहां शिक्षा हर जंजीर को तोड़ दे। रोहित के सपनों को पूरा करने के लिए, हमें एक ऐसा देश बनाना होगा, जहां जन्म कोई "घातक दुर्घटना" न हो।