द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महात्मा गांधी ने ब्रिटेनवासियों को सलाह दी थी कि वह जर्मन फौजों के सामने हथियार उठाने के बजाय सत्याग्रही के तौर पर प्रस्तुत हो जाए। उस वक्त गांधी का सम्मान करने वाले कई ब्रिटिश बौद्धिकों ने कहा कि गांधी की सलाह अहिंसा के लिहाज से उचित हो सकती है, वह भविष्य के लिए सही हो सकती है लेकिन इस समय उस पर अमल करना संभव नहीं है। क्योंकि वह व्यावहारिक नहीं है। गांधी का कहना था कि मेरी सलाह भविष्य के लिए नहीं होती। वह तत्काल अमल के लिए होती है। 
जाहिर सी बात है गांधी का परोक्ष रूप से यह भी कहना था कि वर्तमान में चुप रहकर अतीत की गौरवगाथा गाने या भविष्य के लिए बड़ी योजना प्रस्तुत करने वाला समाज या उसका नेतृत्व वास्तव में नैतिक साहस विहीन होता है। जो समाज अपने वर्तमान में नैतिक आचरण के लिए प्रतिबद्ध है वह भविष्य को भी एक साफ दृष्टि से देख सकता है और वही एक नैतिक भविष्य का भी निर्माण कर सकता है। 
इस मामले में हमारा मौजूदा समय एक दोगले और पाखंडपूर्ण समय में उलझ गया है। वह नैतिक शून्यता की ओर बढ़ रहा है। वह नैतिक शून्यता उसके राजनीतिक नेतृत्व में है, उसकी नौकरशाही में है और उसके संचार माध्यमों सहित जनता के व्यापक हिस्से में व्याप्त हो चुकी है। जिस नौकरशाही को कभी मैक्स बेबर एक प्रोफेशनल संगठन मानते थे वह निरी रीढ़विहीन साबित हो रही है। हालांकि सिर्फ नैतिक शून्यता को हम अनैतिकता की संज्ञा नहीं दे सकते, लेकिन अनैतिकता की उत्पत्ति वहां से होती है। आजकल आपातकाल पर तमाम गोष्ठियां हो रही हैं और पुस्तकों, लेखों, रपटों और फिल्मों के माध्यम से तानाशाही और लोकतंत्र को परिभाषित किया जा रहा है। नायक और खलनायक चिह्नित किए जा रहे हैं। 
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ऐसा करने वालों में कई ऐसे लोग हैं जिनका हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ से का नाता नहीं है। उनमें वामपंथी भी हैं, समाजवादी भी हैं, सर्वोदयी भी हैं और स्वतंत्र सोच के लोग भी हैं। लेकिन ज्यादा संख्या उन लोगों की है जो दक्षिणपंथ के हिंदुत्व विचार से गहरा संबंध रखते हैं। हर समाज को अपनी प्रगति के मार्ग में अतीत में हुए विचलनों और विद्रूपताओं को स्मरण करने और उन्हें सुधारने का हक है। लेकिन ऐसा करते हुए उसे वर्तमान में उन्हीं विघ्नबाधाओं को नहीं उपस्थित कर देना चाहिए, जिन्हें वह निंदनीय मानता है। यानी अतीत के कंटकाकीर्ण मार्ग में हुए संघर्षों का स्मरण करते हुए आज अपने प्रतिद्वंद्वी के लिए वैसे ही कांटे नहीं बिछाने चाहिए। अतीत के कंटीले मार्ग के स्मरण और उसे तैयार करने वालों की आलोचना का अधिकार उसे ही है जो वर्तमान को निरापद बनाने को तत्पर हों या कम से कम उनकी आलोचना तो कर सके जो वर्तमान को वैसा बना रहे हैं। 

लेकिन दिल्ली से लंदन तक, पेरिस से वाशिंगटन तक, पेइचिंग से लेकर दुबई तक, हमारे समाज की विडंबना यह है कि वह नैतिक बल के बजाय पशुबल का कायल होता जा रहा है।

पिछले दिनों दिल्ली की एक घटना किसी भी संवेदनशील और नैतिक व्यक्ति के लिए सदमा पहुंचाने वाली कही जा सकती है। नेहरू प्लेस पर हर्षमंदर, ज्यां द्रेज और नंदिता नारायण समेत देश के कुछ जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता और बौद्धिक गज़ा में हो रहे नरसंहार के विरुद्ध प्रदर्शन करने उतरे। आश्चर्यजनक बात यह है कि उनके प्रदर्शन को रोकने के लिए पुलिस से अधिक दक्षिणपंथी समूह के लोग सक्रिय थे। फिलस्तीन के निरीह और लाचार लोगों के प्रति घृणा से भरे उन लोगों ने जवाबी प्रदर्शन कर डाला। उन लोगों ने गज़ा के पक्ष में प्रदर्शन करने वालों की तख्तियां तोड़ डालीं और उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। पुलिस भी उन्हीं का साथ दे रही थी। ध्यान देने की बात है कि भारत कभी फिलस्तीन के मकसद के साथ खड़ा था और उसके नेता गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मंचों पर भारतीय प्रधानमंत्री के साथ अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते थे।
कम से कम विगत एक दशक में हमने ऐसे विश्व और राष्ट्र का निर्माण कर दिया है जहां पर न सिर्फ अन्याय बढ़ते जा रहे हैं बल्कि अन्याय का विरोध करने का लोकवृत्त यानी पब्लिक स्फेयर भी समाप्त हो चला है। जाहिर सी बात है ऐसे लोकवृत्त लोकतांत्रिक समाजों में अधिक होते थे लेकिन अब लोकतंत्रिक समाजों के स्वर सन्नाटे की कुंडली (स्पाइरल आफ साइलेंस) में कैद हो गए हैं। वहां मौजूदा अन्याय के विरुद्ध आवाजें उठती जरूर हैं लेकिन वे या तो दबा दी जाती हैं या उनका दायरा सीमित कर दिया जाता है। दूसरी ओर अतीत के अन्याय पर बड़े बड़े समारोह आयोजित होते हैं और अतीत के गौरवगान के शोर से समाज को मदमस्त कर दिया जाता है। समाज में प्रभावी स्वर यही दूसरा वाला होता जा रहा है। 
यही वह प्रवृत्ति है जो यहूदियों के नाज़ी नरसंहार यानी होलोकास्ट का बार-बार स्मरण करते हुए उसकी निंदा करना चाहता है और ग़ज़ा में इजराइल की ओर से हो रहे नरसंहार पर महामौन धारण कर लेता है। महामौन का यह वातावरण समाज की नैतिक चेतना की महामृत्यु का पदचाप है। यह एक भयभीत और नैतिक रूप से कायर समाज का लक्षण है। भारत ने इस कायरता से निकलने का जो मार्ग अपने 90 वर्षों तक चले स्वतंत्रता संग्राम से माध्यम से हासिल किया था वह आज खो गया है। गांधी ने उस दौरान उपज रहे हिंसक साहस को अहिंसक नैतिक साहस में परिवर्तित कर दिया था। इसीलिए वे न तो अपने किसी आंदोलन की गोपनीय तैयारी करते थे और न ही अपने प्रतिद्वंद्वी जिसे दूसरे लोग दुश्मन कहते थे, उनके साथ उठने बैठने में परहेज करते थे। इसी नैतिक साहस के नाते गांधी ब्रिटिश सम्राट से मिलने के बाद मुसोलिनी से भी मिलने का साहस रखते थे और हिटलर को सुधरने की सलाह देते हुए पत्र भी लिख सकते थे। 
यूरोप ने यह राजनीतिक नैतिकता द्वितीय विश्व युद्ध में लाखों लोगों को मारकर हासिल की थी। उसे उन देशों ने भी नैतिकता सिखाई थी जिन्हें उन्होंने अपना उपनिवेश बना रखा था। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों ने युरोप को बहुत कुछ सिखाया था। इन संघर्षों से कुछ संस्थाएं भी निकली थीं जिनसे लोकतंत्र और उसके नैतिक मूल्यों के संरक्षण की गारंटी दी जाती थी। पर आज वे संस्थाएं निस्तेज हो चुकी हैं या पक्षपाती हो गई हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया ने तय किया था कि अब विश्व ‘जियो और जीने दो’ के विचार पर चलेगा और राष्ट्रों की संप्रभुता तो होगी ही, साथ में नागरिकों के मानवाधिकार होंगे जिनकी हिफाजत भी की जाएगी। 
यहां तक कि उस दौर में शरणार्थियों की भी चिंता थी। तय किया गया था कि युद्ध के भी नियम होंगे और समुद्र में भी आने-जाने के नियम होंगे। लेकिन आज संपत्ति और सत्ता के चकाचौंध में फंसा हुआ समाज जीवन के महत्त्व और मानव अस्तित्व की अनिश्चितता को ही भूल गया है। इसी बारे में होलोकास्ट यानी जर्मनी के यातना शिविर से बचकर निकले इतालवी केमिस्ट और लेखक प्रिमो लेवि का कथन है, “ सत्ता और धन की प्रभुता से हम इतने चौंधिया गए हैं कि अपने अस्तित्व की क्षणभुरता को ही भूल बैठे हैं। हम भूल गए हैं कि हम सभी एक किस्म की यहूदी बस्ती में कैद हैं और उस बस्ती के चारों ओर कंटीले तार लगे हैं। उन कंटीले तारों के बाहर यमराज हमारा इंतजार कर रहे हैं। और थोड़ी दूर पर ट्रेन खड़ी हुई है।” 
प्रिमो लेवि की इसी बात को आज के संदर्भ में उलट कर कहा जा सकता है कि जो लोग आज ग़ज़ा पर बर्बर हमले कर बेगुनाह औरतों और बच्चों का नरसंहार कर रहे हैं वे यह भूल रहे हैं कि लाशों और मलबे के वे ढेर कब बारूद बन कर किसको तबाह कर दें कहा नहीं जा सकता। इसी तरह जो लोग पचास साल पहले लगे आपातकाल की आलोचना करके अपने लोकतांत्रिक दायित्वों की इतिश्री मान रहे हैं और आज के दमन पर खामोश हैं, आने वाला इतिहास उन्हें भी खलनायक बनाने में शायद ही कोई मुरव्वत करे।
लेकिन इन स्थितियों के लिए चंद समूहों की हिंसा और दमनकारी नीतियां ही दोषी नहीं है। इसके लिए वे भी दोषी हैं जो आज खामोश हैं या फिर उनके अनुयायी हैं। यानी समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। मशहूर मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड कहते हैं, “ सभ्य समाज में दूर दूर तक फैली बर्बरता, क्रूरता और झूठ के बारे में सोचिए। क्या आप वास्तव में ऐसा मानते हैं कि दुनिया के चंद महत्त्वाकांक्षी और सम्मोहित करने वाले लोग बुराइयों के प्रसार में सफल हुए होते अगर उनके लाखों अनुयायियों ने उनके अपराध में साथ न दिया होता।” 
गांधी ने चेतावनी दी थी कि उन्हें असली चिंता मानव सभ्यता के बर्बरीकरण की है। वे यूरोप में हो रहे इस बर्बरीकरण के प्रति सचेत भी करते रहते थे। वह बर्बरीकरण हम ग़ज़ा पर अत्याचार कर रहे इसराइल और उसके साथ खड़े अमेरिका, यूरोप और एक हद तक भारत जैसे देश के व्यवहार में देख सकते हैं। यह वही कायर नैतिकता है जो इतिहास में पांच सौ साल पहले हुए नरसंहार पर तो आसमान सिर पर उठा लेती है लेकिन वर्तमान में होने वाले नरसंहार पर खामोश रहती है। यह वही दोगलापन है जो पचास साल पुराने अधिनायकवाद की भर्त्सना के लिए तो गला फाड़ रहा होता है लेकिन अपने समय के अघोषित आपातकाल पर प्रदीर्घ मौन धारण कर लेता है। 
मानव चेतना की इन्हीं स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए पंकज मिश्र इसी साल आई अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड आफ्टर गाज़ा’ में लिखते हैं, “ युद्ध अंततः अतीत का हिस्सा बन जाएगा। और समय दहशत की उन मीनारों को समतल कर देगा। लेकिन गाज़ा में तबाही के निशान दशकों तक रहेंगे। वे निशान घायल मानव देह के रूप में होंगे, अनाथ बच्चों के रूप में होंगे, नगर के मलबे और बेघर लोगों के रूप में होंगे और होंगे हमारी चेतना में व्यापक रूप से फैले हुए सामूहिक मृत्युशोक के रूप में। और जिन्होंने धरती की एक पतली सी पट्टी पर हजारों लोगों का वध होते हुए देखा और शक्तिशाली लोगों की खुशी या उनकी उदासीनता देखी होगी, वे वर्षों तक आंतरिक जख्म और सदमे से उबर नहीं पाएंगे।”