बिहार विधानसभा चुनाव में एक सीट पर अजीब स्थिति बन गई है- जहां आरजेडी नेता तेजस्वी यादव खुद अपनी पार्टी के प्रत्याशी के ख़िलाफ़ प्रचार करने जा रहे हैं। आखिर क्या है इस अंदरूनी मतभेद की वजह?
बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की आंतरिक कलह ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को अपनी ही पार्टी के चिन्ह पर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार करना पड़ेगा। दरभंगा जिले की गौड़ाबौराम विधानसभा सीट पर ऐसी लड़ाई की स्थिति महागठबंधन के सीट बँटवारे की उलझनों के कारण बनी। पहले आरजेडी ने अपने उम्मीदवार को टिकट दिया, लेकिन बाद में समझौते के तहत मुकेश सहनी के हिस्से ये सीट आ गई। अब आरजेडी उम्मीदवार भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।
महागठबंधन में सीट बंटवारे पर सहमति बनाने में देरी हुई। इससे पहले, आरजेडी ने गौड़ाबौराम से अपने वरिष्ठ नेता अफजल अली खान को टिकट दे दिया था। पार्टी ने उन्हें आधिकारिक दस्तावेज और लालटेन चिन्ह सौंप दिया। खुशी से चहकते अफजल ने अपने क्षेत्र पहुंचकर प्रचार शुरू करने की तैयारी कर ली। लेकिन इसी दौरान, आरजेडी और मुकेश सहनी की वीआईपी के बीच अंतिम समझौता हो गया। गौड़ाबौराम वीआईपी को मिल गई, और महागठबंधन के सभी साझेदारों को उसके उम्मीदवार संतोष सहनी का समर्थन करने का निर्देश दिया गया। संतोष मुकेश सहनी के छोटे भाई हैं।
आरजेडी नेतृत्व ने अफजल से संपर्क कर चिन्ह वापस मांग लिया और नाम वापस लेने को कहा। लेकिन अफजल ने इनकार कर दिया और नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। निर्वाचन अधिकारियों ने साफ़ कहा कि दस्तावेज सही होने के कारण अफजल को रद्द नहीं किया जा सकता। नतीजा? ईवीएम पर अफजल अली खान का नाम आरजेडी के लालटेन चिन्ह के साथ रहेगा, जबकि तेजस्वी यादव और अन्य महागठबंधन नेता संतोष सहनी के लिए प्रचार करेंगे। लालू प्रसाद ने मुख्य निर्वाचन अधिकारी को पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि सीट वीआईपी को दी गई है, लेकिन कानूनी प्रक्रिया ने इसे जटिल बना दिया।
सीट बंटवारे की जंग का नतीजा?
यह घटना महागठबंधन की आंतरिक खींचतान को दिखाता है। बिहार में कुल 243 सीटों पर चुनाव हो रहे हैं, और विपक्षी गठबंधन को 2020 की तरह मजबूत एकजुटता की जरूरत है। लेकिन सीट बंटवारे पर विवादों के कारण कई सीटों पर 'फ्रेंडली फाइट' हो रही है। गौड़ाबौराम के अलावा वैशाली, लालगंज, बछवाड़ा, रोसेरा, राजापाकर, बिहारशरीफ जैसी सीटों पर भी आरजेडी-कांग्रेस या अन्य साझेदार आमने-सामने हैं। जानकारों का मानना है कि वीआईपी जैसे छोटे दलों की महत्वाकांक्षा ने बातचीत को उलझा दिया।
2020 में वीआईपी जीती थी
गौड़ाबौराम विधानसभा क्षेत्र का इतिहास एनडीए के पक्ष में रहा है। 2010 और 2015 में जेडीयू ने यहाँ जीत हासिल की। 2020 में वीआईपी के स्वर्ण सिंह विजयी हुए, लेकिन बाद में वे बीजेपी में शामिल हो गए। अब सीट पर बीजेपी का दावा मज़बूत है और महागठबंधन की यह ग़लती वोटों का बँटवारा कर सकती है।
भ्रम से एनडीए को होगा फायदा?
यह 'आरजेडी बनाम आरजेडी' की स्थिति वोटरों में असमंजस पैदा कर रही है। ग्रामीण क्षेत्र में जहां जागरूकता कम है, कई मतदाता लालटेन चिन्ह देखकर अफजल को ही वोट दे सकते हैं, जिससे संतोष सहनी के वोट बंट सकते हैं। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि इससे महागठबंधन को 5-10% वोटों का नुक़सान हो सकता है, जो करीबी सीटों पर हार का कारण बनेगी। बीजेपी इसे 'विपक्ष की अराजकता' बताकर प्रचार तेज करेगी। तेजस्वी के लिए यह व्यक्तिगत चुनौती है—वे युवा चेहरे के रूप में बदलाव का वादा कर रहे हैं, लेकिन आंतरिक कलह उनकी छवि को धूमिल कर सकती है।
गोविंदपुरा सीट पर भी बग़ावत!
गोविंदपुर सीट पर राजनीतिक उथल-पुथल मच गई है। पूर्व विधायक मोहम्मद कामरान ने राष्ट्रीय जनता दल से टिकट कटने के बाद निर्दलीय नामांकन दाखिल कर दिया है। 2020 में उन्होंने मुस्लिम-यादव वोट बैंक पर मजबूत पकड़ बनाते हुए प्रतिद्वंद्वी को 33 हजार वोटों से करारी शिकस्त दी थी। राजद ने इस पर उनकी जगह कौशल यादव की पत्नी पूर्णिमा यादव को टिकट दिया है, जो यादव परिवार के दबदबे को मजबूत करने की रणनीति लगती है। यह बगावत राजद के वोटों को बांट सकती है, खासकर मुस्लिम मतदाताओं में नाराजगी बढ़ रही है।
दूसरी ओर, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने विनिता मेहता को मैदान में उतारा है। कामरान की बगावत ने राजद के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं, क्योंकि उनका निर्दलीय उतरना मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी कर सकता है। स्थानीय स्तर पर उनकी लोकप्रियता और पिछले प्रदर्शन को देखते हुए यह सीट अब त्रिकोणीय मुकाबले की ओर बढ़ रही है। 11 नवंबर को होने वाला मतदान यह तय करेगा कि क्या कामरान का पुराना जादू फिर चलेगा या पार्टी लाइन और नए चेहरों का दबदबा कायम रहेगा।