हाल ही में पीएम मोदी और सीएम नीतीश कुमार एक मंच पर साथ नजर आए, लेकिन क्या बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए में टिकट बंटवारे को लेकर मतभेद गहराते जा रहे हैं? जानिए अंदर की सियासत।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पटना रोड शो और दूसरी सभाओं में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार साथ-साथ नजर आ रहे हैं, लेकिन राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि विधानसभा के लिए टिकटों के बँटवारे को लेकर बीजेपी और जेडीयू में तनातनी बढ़ गयी है। प्रधानमंत्री 29 मई को पटना एयर पोर्ट के नए टर्मिनल का उद्घाटन करने पहुंचे। हवाई अड्डा पर उनके स्वागत के लिए मुख्यमंत्री मौजूद थे। उसके बाद मोदी का रोड शो शुरू हुआ। करीब 6 किलोमीटर लंबे रोड शो के बाद मोदी बीजेपी ऑफिस पहुंचे और पार्टी के नेताओं के साथ बैठक की।
मोदी का ये पचासवाँ बिहार दौरा था। अक्टूबर-नवंबर में विधान सभा के चुनाव को देखते हुए इसे प्रधानमंत्री का महत्वपूर्ण राजनीतिक दौरा माना जा रहा है। मोदी और नीतीश एनडीए में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन एनडीए के क्षेत्रीय घटकों के बीच विधानसभा चुनावों में टिकट को लेकर घमासान सतह पर आ गया है।
पिछले कई दिनों से एनडीए के घटक हिंदुस्तान अवाम पार्टी (हम), लोक जन शक्ति पार्टी (एलजेपी आर) और उपेंद्र कुसवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) के नेता ज़्यादा से ज़्यादा सीटों के लिए अपना दावा ठोक रहे हैं। इसके चलते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू की सीटें कम होने की आशंका बढ़ गयी है। जेडीयू के नेता इस बात को लेकर बीजेपी से सख़्त नाराज बताये जा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश इतने नाराज़ हैं कि पिछले सप्ताह दिल्ली पहुँचने के बाद भी नीति आयोग की बैठक में नहीं गए। इस बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री ने की। अगले दिन एनडीए के मुख्यमंत्रियों की बैठक में वो गए लेकिन कुछ ही देर में बैठक छोड़ कर बाहर निकल गए।
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि नीतीश कुमार 2020 के विधानसभा चुनावों के बराबर यानी 115 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं, जबकि बीजेपी उन्हें सौ से भी कम सीटों पर लड़ने के लिए मनाने की कोशिश कर रही है। दरअसल 2020 में टिकटों का बँटवारा मुख्यतः 3 पार्टियों के बीच हुआ था। विधानसभा की कुल 243 सीटों में से बीजेपी और जेडीयू को 115 और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को 13 सीटें मिली थीं। इस बार मांझी, कुसवाहा और चिराग पासवान की बढ़ी हुई दावेदारी ने पुराने फ़ॉर्मूले को ध्वस्त कर दिया है।
चिराग पासवान टिकट बंटवारे के एक नए फ़ॉर्मूले की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि 2024 के लोकसभा चुनावों को टिकट बँटवारे का आधार बनाया जाना चाहिए। इस चुनाव में एलजेपीआर को 5 सीटें दी गयी थीं और उनकी पार्टी सारी सीटें जीत गयी। एक लोकसभा क्षेत्र में 6 से 8 विधान सभा क्षेत्र आते हैं। इस हिसाब से उनकी पार्टी को 40 से ज़्यादा सीटें मिलनी चाहिए। उनकी पार्टी 2020 के चुनावों में एनडीए से बाहर थी इसलिए वो 2020 के फ़ॉर्मूले को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। चिराग की बिहार का मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा छिपी हुई नहीं है। वो कई बार कह चुके हैं कि वो बिहार लौटना चाहते हैं। फिलहाल वो केंद्र में मंत्री हैं। 2020 में जेडीयू और एनडीए की अन्य पार्टियों के ख़िलाफ़ 137 उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया था। वो नीतीश की पार्टी को हराने की घोषणा के साथ चुनाव मैदान में उतरे थे। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि जेडीयू को सिर्फ़ 43 सीटों पर सीमित करने में चिराग के उम्मीदवारों की अहम भूमिका मानी जाती है। चिराग की पार्टी का सिर्फ़ एक उम्मीदवार ही चुनाव जीतने में कामयाब हुआ था।
चिराग का फ़ॉर्मूला लागू किया गया तो नीतीश की पार्टी को 70-80 से ज़्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। नीतीश की पार्टी 2020 में 115 सीटों पर लड़ कर सिर्फ़ 43 सीटें जीत पायी थी। लोकसभा 2024 में नीतीश की पार्टी के 12 उम्मीदवार जीते थे। नीतीश अगर कम सीटों पर लड़ते हैं तो उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी ख़तरे में पड़ सकती है।
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि बीजेपी इस बार नीतीश को कम सीटें देकर ख़ुद ज़्यादा सीटों पर लड़ना चाहती है ताकि अगला मुख्यमंत्री बीजेपी से बन सके। बीजेपी के नेता अश्वनी चौबे, गिरिराज सिंह और हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सैनी हाल में बयान दे चुके हैं कि नीतीश को केंद्र में आ जाना चाहिए। उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाने की बात भी कही जा रही है। नीतीश फिलहाल विधानसभा में अपनी बढ़त बनाए रखना चाहते हैं ताकि चुनाव के बाद उनकी राजनीतिक सौदेबाजी की क्षमता बनी रहे। चर्चा है कि पिछले सप्ताह बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से बातचीत में उन्होंने अपना दावा खुलकर रख दिया था। और सीटों के बँटवारे पर सहमति नहीं होने से नाराज होकर ही वो नीति आयोग की बैठक में नहीं गए।
मांझी अपनी पार्टी के लिए कम से कम 40 सीटों की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि 40 सीटों पर लड़ कर वो कम से कम 20 सीटें जीतना चाहते हैं ताकि गठबंधन में उनकी बात सुनी जाए। 2020 में मांझी को 13 सीटें मिली थीं, जिसमें वो केवल 4 जीत पाए थे। एनडीए में एक घटक उपेंद्र कुसवाहा भी हैं। वो खुद फिलहाल चुप हैं लेकिन उनकी पार्टी के नेता भी 15 से ज़्यादा सीटों पर दावा कर रहे हैं। चर्चा यह भी है कि बीजेपी इसबार मल्लाह नेता मुकेश सहनी को भी अपने पाले में लाना चाहती है। जाहिर है कि इतने घटकों को तभी खुश किया जा सकता है जब नीतीश कम सीटों पर लड़ने के लिए तैयार हो जायें। वक़्फ़ बिल के समर्थन से नाराज़ जेडीयू के अनेक नेता, ख़ासकर मुस्लिम पार्टी छोड़ चुके हैं।
नीतीश को राजनीतिक तौर पर 2020 के चुनावों के बराबर शक्तिशाली नहीं माना जा रहा है, फिर भी उन्हें नाराज़ नहीं किया जा सकता है। इसका बड़ा कारण ये है कि उनके पास आरजेडी के साथ जाने का विकल्प भी है। सत्ता संतुलन में उनकी पहले जैसी स्थिति बनी हुई है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ये घोषणा तो कर चुके हैं कि विधान सभा चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा लेकिन चुनाव के बाद वो मुख्यमंत्री होंगे इस बात पर बीजेपी नेता खामोश हैं। चुनाव के बाद की राजनीति इस बात पर निर्भर होगी कि कौन कितनी सीटों पर लड़ता है और कितनी जीत पाता है। टिकट बँटवारे के लिए एनडीए की हाल में हुई एक बैठक असफल हो गयी।