बच्चन साहब से मेरा एक ही जुड़ाव है। वह भी इलाहाबाद में बेली रोड पर रहते थे और मैं भी। वह दिन मैं कभी नहीं भूलता जब वह कांग्रेस के टिकट पर अपना पर्चा दाख़िल करने कचहरी गए थे और जब वापस गए तब तक कचहरी की वह जिद्दी दीवार ढह चुकी थी और चारों ओर बिखरी ईंटें अपनी तबाही पर रो रही थीं। बच्चन साहब को जब यह बात मैंने बताई तो वह मुस्कुराए बग़ैर न रह सके।

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'मेगा स्टार' और 'बिग बी' के नाम से भी पहचाने जाने वाले अमिताभ बच्चन के पहले का दौर मासूमियत का दौर था। जिसमें प्रतिरोध नहीं था और ना ही प्रतिशोध। गुरुदत्त को समय और समाज से तकलीफ़ थी तो वह पलायनवाद में मौक़ा खोज लेते हैं। ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ का हीरो अंदर ही अंदर घुटता है लेकिन प्रतिकार नहीं कर पाता। वह ख़ुद को ख़त्म कर लेता है या फिर समाज को ही त्याग देता है।
1984 का वह चुनाव बच्चन साहब का चुनावी राजनीति से पहला और आख़िरी वास्ता था। लेकिन वह पहले शख़्स थे जिसने देश की गिरती राजनीति को अपनी क्रिएटिविटी से इस तरह से जोड़ दिया था कि एक नए एंटी हीरो का किरदार सफलता और विद्रोह दोनों का प्रतीक बन गया। उसे किंवदंती का रूप दिया बच्चन साहब की तेजाबी आंखों ने, गरगराती आवाज़ और मटमैले रंग ने।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।