जजों के ट्रांसफर के लिए सरकार कितना दबाव डालती है, इस पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी. लोकुर ने चौंकाने वाला खुलासा किया है। उन्होंने दावा किया है कि केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के तत्कालीन जज जस्टिस एस. मुरलीधर के उनके फ़ैसले के लिए स्थानांतरण के लिए सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम पर बार-बार दबाव डाला था। उन्होंने यह भी दावा कि उनके विरोध के कारण ट्रांसफर नहीं हो सका। जस्टिस लोकुर और जस्टिस एके सीकरी के रिटायरमेंट के बाद जस्टिस मुरलीधर का ट्रांसफर कर दिया गया। यह ट्रांसफर आधी रात को तब किया गया जब जस्टिस मुरलीधर ने 2020 के दिल्ली दंगों से संबंधित एक अहम आदेश दिया था और यह सरकार को पसंद नहीं आया।

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इसमें कई लोग घायल हुए और जान-माल का भारी नुक़सान हुआ था। इस दौरान जस्टिस मुरलीधर ने एक याचिका पर सुनवाई की, जिसमें दिल्ली पुलिस की निष्क्रियता और कुछ बीजेपी नेताओं द्वारा कथित तौर पर भड़काऊ भाषण देने के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई थी। 26 फरवरी 2020 को जस्टिस मुरलीधर ने देर रात अपने आवास पर एक आपातकालीन सुनवाई की और दिल्ली पुलिस को घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाने और दंगों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया। इस आदेश में उन्होंने दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार की निष्क्रियता पर कड़ी नाराजगी जताई थी।

दिल्ली दंगे पर फैसले के बाद उसी रात केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी कर जस्टिस मुरलीधर का स्थानांतरण दिल्ली उच्च न्यायालय से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के लिए कर दिया।

इस अधिसूचना में सामान्य प्रक्रिया के विपरीत न्यायाधीश को नए पद पर आसीन होने के लिए प्रथागत 14 दिनों का समय नहीं दिया गया, जिसे कई लोगों ने 'आधी रात का स्थानांतरण' करार दिया।

जस्टिस सीकरी ने भी किया था विरोध

हालाँकि, दिल्ली दंगे से काफ़ी पहले जस्टिस मुरलीधर के ट्रांसफर के लिए कथित तौर पर सरकार दबाव डाल रही थी। हाल ही में प्रकाशित पुस्तक '(इन)कंप्लीट जस्टिस? सुप्रीम कोर्ट एट 75' में अपने निबंध में जस्टिस लोकुर ने बताया है कि कॉलेजियम में उनके कार्यकाल के दौरान सरकार ने जस्टिस मुरलीधर के स्थानांतरण का आग्रह किया था। लेकिन उनके विरोध के कारण ऐसा नहीं हुआ। लोकुर के अनुसार दिसंबर 2018 में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद यह मांग फिर से उठी। उस समय जस्टिस एके सीकरी ही इस प्रस्ताव के खिलाफ थे। मार्च 2019 में न्यायमूर्ति सीकरी की सेवानिवृत्ति के बाद स्थानांतरण का प्रस्ताव फिर से उठाया गया। 

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार लोकुर ने लिखा है, 'सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के कामकाज में पारदर्शिता के बारे में कुछ कहा जाना चाहिए। एक बार मुझे साफ़ तौर पर यह लगा कि कार्यपालिका ने मुख्य न्यायाधीश को एक स्थानांतरण करने की सलाह दी थी- जस्टिस मुरलीधर का दिल्ली उच्च न्यायालय से उनके द्वारा दिए गए एक फैसले के लिए स्थानांतरण। मेरे विचार से यह निश्चित रूप से स्थानांतरण का आधार नहीं हो सकता और इसलिए मैंने प्रस्ताव पर अपनी असहमति व्यक्त की और मुख्य न्यायाधीश ने मेरे विचार को सहर्ष स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट से मेरे सेवानिवृत्त होने के बाद स्थानांतरण का मुद्दा फिर से उठाया गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम में नए सदस्य जस्टिस सीकरी का भी यही विचार था और उन्होंने भी प्रस्तावित स्थानांतरण का विरोध किया।' उन्होंने आगे लिखा है,
न्यायमूर्ति सीकरी की सेवानिवृत्ति के बाद न्यायमूर्ति मुरलीधर का मनमाने ढंग से दिल्ली उच्च न्यायालय से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरण कर दिया गया।
जस्टिस लोकुर
अपनी स्वतंत्रता और तीखे फैसलों के लिए जाने जाने वाले न्यायमूर्ति मुरलीधर का अंततः फरवरी 2020 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरण कर दिया गया। इस फैसले पर उस समय काफी विवाद खड़ा हुआ था। स्थानांतरण आदेश 2020 के दिल्ली दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने के आरोपी राजनेताओं के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज करने में विफल रहने के लिए दिल्ली पुलिस की खिंचाई करने के कुछ घंटों बाद अधिसूचित किया गया था।

'नियुक्ति प्रक्रिया में हस्तक्षेप हुआ'

कुछ हफ्ते पहले 'द ग्लोबल ज्यूरिस्ट्स' द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जस्टिस लोकुर ने कहा था कि मेरे विचार से नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका द्वारा काफी हस्तक्षेप हुआ है। उन्होंने कहा, 'मेरा मानना है कि इसका उनकी योग्यता से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इसका कुछ लेना-देना उनके द्वारा तय किए गए कुछ मामलों से है।' उन्होंने कहा कि अगर जजों की नियुक्ति प्रक्रिया कार्यपालिका के हाथों में हो तो एक तरह की शरारत हो सकती है।

महाभियोग पर क्या बोले?

जस्टिस लोकुर ने कहा कि वर्तमान में जजों के खिलाफ दो महाभियोग प्रस्ताव लंबित हैं, एक जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ संसद में और दूसरा जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ राज्यसभा के सभापति के पास। उन्होंने कहा, 'मुझे लगता है कि देश के इतिहास में पहली बार, दो महाभियोग प्रस्ताव लंबित हैं। हमें बहुत सावधान रहना होगा कि हम किस तरह के लोगों को नियुक्त करते हैं और दूसरा जजों पर निगरानी रखनी होगी ताकि इस तरह की घटनाएँ न हों।'

जजों के तबादले के बारे में उन्होंने कहा, 'ऐसी स्थिति है जहाँ जजों को बिना किसी कारण के इधर-उधर तबादला किया जा रहा है। दिल्ली को हाल ही में जस्टिस एस. मुरलीधर के अनुभव से गुजरना पड़ा, हर कोई जानता है कि यह 2020 के दंगों के दौरान हुआ, एक आदेश पारित करने के लिए, जो किसी कारण से सरकार को पसंद नहीं आया।'
जजों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों पर जस्टिस लोकुर ने कहा, 'अब हमारे पास ऐसी स्थिति है जहाँ भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश को राज्यसभा में सीट देकर पुरस्कृत किया गया है। एक अन्य जज को एक राज्य का राज्यपाल बनाकर पुरस्कृत किया गया है। तीसरे जज को भी एक अन्य राज्य का राज्यपाल बनाया गया है।' उन्होंने कहा, 'हमारे पास ऐसे जज रहे हैं जो सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद राजनीति में शामिल हो गए। एक कार्यरत जज ने इस्तीफा दिया और राजनीति में शामिल हो गए और वास्तव में संसद सदस्य के रूप में चुने गए। हमें चीजों को ठीक करने की ज़रूरत है।' 

जस्टिस लोकुर का यह खुलासा भारतीय न्यायपालिका में कार्यकारी हस्तक्षेप और कॉलेजियम सिस्टम की अपारदर्शिता के गंभीर मुद्दों को उजागर करता है। जस्टिस मुरलीधर जैसे स्वतंत्र और साहसी न्यायाधीशों के स्थानांतरण ने न केवल न्यायपालिका की स्वायत्तता पर सवाल उठाए हैं, बल्कि आम जनता के बीच न्याय प्रणाली में विश्वास को भी प्रभावित किया है।