सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अपने आवास से जले हुए नकदी के ढेर की इन-हाउस जांच की वैधता को चुनौती दी थी। इस फैसले ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया को तेज करने का रास्ता साफ कर दिया है।

जस्टिस यशवंत वर्मा पहले दिल्ली हाई कोर्ट में जज थे। वह उस समय सुर्खियों में आए जब 14 मार्च 2025 की रात को उनके दिल्ली के आधिकारिक आवास में आग लगने की घटना हुई। आग बुझाने के लिए पहुंचे दमकल कर्मियों और पुलिस ने बंगले के स्टोररूम में जली हुई नकदी के ढेर पाए, जिसकी राशि कथित तौर पर करोड़ों रुपये थी। इस घटना के बाद न्यायिक हलकों में हड़कंप मच गया और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे।

घटना के बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इस मामले की जाँच के लिए तीन सदस्यीय इन-हाउस समिति का गठन किया, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जीएस संधवालिया, और कर्नाटक हाई कोर्ट की जज अनु शिवरामन शामिल थे। इस समिति ने 10 दिनों तक जांच की, 55 गवाहों से पूछताछ की और घटनास्थल का दौरा किया। समिति ने अपने 64 पेज की रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला कि जले हुए नकदी पर जस्टिस वर्मा या उनके परिवार का नियंत्रण था, हालांकि सीधे तौर पर नकदी को उनसे जोड़ने का कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं मिला।
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रिपोर्ट में कहा गया कि जस्टिस वर्मा का आचरण एक संवैधानिक जज के रूप में जनता के भरोसे को तोड़ने वाला था और उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने की सिफारिश की गई। इसके बाद, सीजेआई खन्ना ने इस रिपोर्ट को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा, जिसमें जस्टिस वर्मा को पद से हटाने की सिफारिश की गई थी।

जस्टिस वर्मा की याचिका

जस्टिस वर्मा ने 18 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने इन-हाउस जांच की प्रक्रिया और इसके निष्कर्षों को चुनौती दी। उनकी ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और मुकुल रोहतगी ने तर्क दिया कि याचिका में कहा गया कि 1999 के फुल कोर्ट रेजोल्यूशन के तहत अपनाई गई इन-हाउस प्रक्रिया एक 'समानांतर और अतिरिक्त-संवैधानिक तंत्र' है, जो संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 के तहत संसद को दिए गए विशेषाधिकारों का उल्लंघन करती है। इन अनुच्छेदों के अनुसार, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने का अधिकार केवल संसद के पास है, वह भी विशेष बहुमत के साथ और जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत जांच के बाद।

जस्टिस वर्मा ने दावा किया कि जांच समिति ने उन्हें सही अवसर नहीं दिया और न ही गवाहों से जिरह करने की अनुमति दी गई। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि अहम वीडियो फुटेज की जाँच नहीं की गई और उन्हें सबूतों तक पहुँच से वंचित रखा गया।

याचिका में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 22 मार्च 2025 को जले हुए नकदी के वीडियो को सार्वजनिक करना गैरकानूनी था, जिसके कारण उनकी प्रतिष्ठा को अपूरणीय क्षति पहुंची। जस्टिस वर्मा ने तर्क दिया कि सीजेआई को उनको हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजने का कोई अधिकार नहीं था, क्योंकि यह प्रक्रिया संसद के विशेषाधिकार में हस्तक्षेप करती है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने जस्टिस वर्मा की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि उनकी याचिका विचार करने योग्य नहीं है। कोर्ट ने कहा कि इन-हाउस जांच प्रक्रिया कानूनी और संवैधानिक है। यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों में निर्धारित स्व-नियामक ढांचे का हिस्सा है और यह संसद की शक्तियों के समानांतर नहीं है।

कोर्ट ने माना कि सीजेआई और जांच समिति ने निर्धारित प्रक्रिया का सावधानीपूर्वक पालन किया। कोर्ट ने कहा, 'आपने उस समय इसे चुनौती नहीं दी थी, इसलिए अब इस पर कोई विवाद नहीं है।'
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कोर्ट ने यह भी साफ़ किया कि सीजेआई द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सिफारिश भेजना असंवैधानिक नहीं है। जस्टिस दत्ता ने कहा, 'राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति और हटाने की प्राधिकारी हैं, और वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करती हैं। इसलिए, प्रधानमंत्री को पत्र भेजने में कोई आपत्ति नहीं है।'

कोर्ट ने जस्टिस वर्मा के आचरण पर सवाल उठाते हुए कहा कि उन्होंने जांच समिति के समक्ष पेश होकर प्रक्रिया में भाग लिया, लेकिन जब निष्कर्ष उनके पक्ष में नहीं आए, तब उन्होंने इसे चुनौती दी। कोर्ट ने कहा, 'आपने अनुकूल निष्कर्षों की प्रतीक्षा की और जब यह आपके लिए अप्रिय हुआ, तब आप यहां आए।'
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संसद में महाभियोग की प्रक्रिया

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। 21 जुलाई 2025 को शुरू हुए संसद के मॉनसून सत्र के पहले दिन विपक्ष और सत्तारूढ़ दलों के 145 से अधिक सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को एक नोटिस सौंपा, जिसमें जस्टिस वर्मा के खिलाफ जांच की मांग की गई थी। सूत्रों के अनुसार, दोनों सदनों द्वारा संयुक्त रूप से एक तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन किया जाएगा, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट जज, एक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, और एक प्रख्यात विधिवेत्ता शामिल होंगे। यह समिति जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत जांच करेगी।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल जस्टिस यशवंत वर्मा के लिए एक बड़ा झटका है, बल्कि यह न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही के मुद्दे पर भी एक अहम कदम है। यह मामला स्वतंत्र भारत में किसी हाई कोर्ट जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने का पहला उदाहरण बन सकता है। संसद अब इस मामले में अगला कदम उठाएगी।