पहले से ही मनरेगा के बजट में कमी की आ रही ख़बरों के बीच अब केंद्र ने पहली बार योजना के ख़र्च को पहले छह महीनों के लिए 60% तक सीमित कर दिया है। वह भी तब जब यह योजना मांग पर आधारित है। यानी रोजगार की मांग बढ़ने पर आवंटन बढ़ना चाहिए। खुद सरकार ही योजना के लिए बजट कम किए जाने की आलोचनाओं के बाद योजना के मांग पर आधारित होने का तर्क दे चुकी है। तो सवाल है कि मनरेगा के तहत लोगों को मिलने वाले रोजगार पर क्या इसका असर बुरा नहीं पड़ेगा? और मौजूदा समय में मनरेगा का क्या हाल है?
इन सवालों के जवाब से पहले यह जान लें कि केंद्र ने क्या फ़ैसला लिया है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार यह जानकारी मिली है कि वित्त मंत्रालय ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को बताया है कि अब इसे मासिक, तिमाही व्यय योजना के अंतर्गत लाया जाएगा। यह योजनाओं के ख़र्च को नियंत्रित करने का तंत्र है।
वित्त मंत्रालय ने 2017 में योजनाओं के ख़र्च को नियंत्रित करने के लिए इस तंत्र को शुरू किया था ताकि मंत्रालयों को नकदी प्रवाह प्रबंधन में मदद मिले और अनावश्यक उधार से बचा जा सके। अब तक मनरेगा इस दायरे से बाहर था, क्योंकि ग्रामीण विकास मंत्रालय का तर्क था कि इस योजना के मांग-आधारित होने के कारण निश्चित व्यय सीमा लागू करना व्यावहारिक नहीं है। लेकिन 2025-26 वित्तीय वर्ष की शुरुआत में वित्त मंत्रालय ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को निर्देश दिया है कि मनरेगा को भी ख़र्च को नियंत्रित करने वाले ढांचे के तहत शामिल किया जाए। और अब पहली बार मनरेगा के ख़र्च को वित्त वर्ष 2025-26 के पहले छह महीनों के लिए 60% तक सीमित कर दिया गया है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा भारत की सबसे अहम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में से एक है। यह ग्रामीण परिवारों को प्रति वर्ष 100 दिन के गारंटीकृत रोजगार देती है। यह योजना मांग-आधारित है, जिसका मतलब है कि इसका बजट ग्रामीण क्षेत्रों से रोजगार की मांग के आधार पर निर्धारित होता है।
वित्त मंत्रालय का कहना है कि यह कदम पैसे के खर्च में अनुशासन लाने और बजट को बेहतर ढंग से संभालने के लिए उठाया गया है। 2024-25 में इस योजना के लिए 86,000 करोड़ रुपये दिए गए थे, लेकिन पुराने बकाये की वजह से काम के लिए उपलब्ध बजट बहुत कम हो गया था।
15 फरवरी 2025 तक मनरेगा के तहत मज़दूरी के लिए 12,219.18 करोड़ और मैटेरियल के लिए 11,227.09 करोड़ की लंबित देनदारियां थीं। ये कुल मिलाकर ₹23,446.27 करोड़ थीं। यह राशि वर्तमान बजट का 27.26% थी। इसका अर्थ है कि आवंटित धन का एक-चौथाई से अधिक हिस्सा पिछले वर्षों की देनदारियों को चुकाने में खर्च होगा।
मनरेगा को कमजोर करने की कोशिश?
विपक्षी दल लगातार मोदी सरकार पर मनरेगा को कमजोर करने का आरोप लगाते रहे हैं। हाल ही में सोनिया गांधी ने केंद्र की बीजेपी सरकार पर मनरेगा को व्यवस्थित रूप से कमजोर करने का गंभीर आरोप लगाया था। यह योजना यूपीए सरकार के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गई एक प्रमुख गरीबी उन्मूलन नीति थी।
क़रीब दो महीने पहले राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद सोनिया गांधी ने कहा, 'मनमोहन सिंह सरकार का यह ऐतिहासिक क़ानून करोड़ों ग्रामीण गरीबों के लिए जीवन रेखा रहा है। यह चिंताजनक है कि बीजेपी सरकार ने इसे व्यवस्थित रूप से कमजोर किया है।' उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा के लिए बजट आवंटन 86000 करोड़ पर स्थिर है, जो जीडीपी के प्रतिशत के हिसाब से पिछले 10 सालों में सबसे कम है। महंगाई को ध्यान में रखते हुए हालिया केंद्रीय बजट में यह राशि वास्तव में 4000 करोड़ कम हो गई है। इसके अलावा, अनुमान है कि आवंटित धन का करीब 20% हिस्सा पिछले वर्षों के बकाया भुगतान में खर्च होगा।
बता दें कि सरकार ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए मनरेगा के लिए 86,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। यह पिछले वित्त वर्ष 2023-24 में योजना के वास्तविक व्यय 1.05 लाख करोड़ रुपये से 19,297 करोड़ रुपये कम था। बहरहाल, एक रिपोर्ट के अनुसार 2024 के अंतरिम बजट में सरकार द्वारा इस योजना के लिए आवंटित किए गए 86,000 करोड़ रुपये कम पड़ने के बावजूद केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मंत्रालय के कई अनुरोधों के बाद भी योजना के लिए बजट में संशोधन नहीं किया।
पिछले साल योजना के लिए कम फंड के आवंटन पर आलोचना का जवाब देते हुए सरकार ने कहा था कि यह कार्यक्रम एक मांग आधारित योजना है और जब भी ज़रूरत होती है, अतिरिक्त आवंटन किया जाता है।
मनरेगा को लेकर यह पहला मौका नहीं है जब विवाद हुआ हो। पीएम मोदी ने 2015 में इस योजना को 'कांग्रेस की विफलताओं का जीवंत स्मारक' क़रार दिया था। लेकिन कोविड-19 महामारी के दौरान इस योजना की उपयोगिता साबित हुई, जब लाखों प्रवासी मजदूरों के लिए यह रोजगार का एकमात्र जरिया बनी।
पिछले साल एक रिपोर्ट आई थी कि मनरेगा से क़रीब 8 करोड़ रजिस्टर्ड मजदूरों के नाम दो साल के अंदर उड़ा दिए गए। यह बात लिबटेक इंडिया और नरेगा संघर्ष मोर्चा की रिपोर्ट में कही गई है। दोनों सिविल सोसाइटी के एनजीओ हैं और अस्थायी मजदूरों के बीच काम करते हैं।
केंद्र सरकार का मनरेगा खर्च को 60% तक सीमित करने का निर्णय मैनेजमेंट के नज़रिए से एक कदम हो सकता है, लेकिन यह ग्रामीण रोजगार और आजीविका सुरक्षा पर गंभीर सवाल उठाता है।