NCERT removes Tipu Sultan history: एनसीईआरटी ने 8वीं क्लास की नई सामाजिक विज्ञान की कोर्सबुक में टीपू सुल्तान, हैदर अली और एंग्लो-मैसूर युद्धों को शामिल नहीं किया है। इसके पीछे इतिहास को फिर से लिखने की सरकारी कोशिश कितनी है, जानिएः
एनसीईआरटी यानी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के इतिहास को पलटने का एक और मामला सामने आया है। एनसीईआरटी ने अपनी नई कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान पाठ्यपुस्तक 'एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडियन एंड बियॉन्ड' के पहले भाग में भारत के औपनिवेशिक युग के चैप्टर में टीपू सुल्तान, हैदर अली और ऐंग्लो-मैसूर युद्धों (1767-1799) का उल्लेख जानबूझकर छोड़ दिया है। यह कोर्सबुक इस सप्ताह जारी की गई है और वर्तमान शैक्षणिक सत्र के लिए इस्तेमाल में लाई जाएगी, जबकि इसका दूसरा भाग इस साल बाद में प्रकाशित होने की उम्मीद है।
औपनिवेशिक युग का नया सरकारी नज़रिया
इस चैप्टर में 15वीं शताब्दी के अंत में वास्को द गामा के भारत आगमन से लेकर 19वीं शताब्दी के अंत तक, जिसमें 1857 का 'महान भारतीय विद्रोह' शामिल है, का विवरण दिया गया है। यह ब्रिटिश शासकों के व्यापारियों से शासकों में परिवर्तन, 1757 के प्लासी के युद्ध - जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नवाब पर निर्णायक विजय प्राप्त की - और इस अवधि में भारत की संपदा के 'गिरावट' की चर्चा करता है। हालांकि, इस अध्याय में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान और हैदर अली, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ साहसिक प्रतिरोध किया, का कोई उल्लेख नहीं है। यानी अंग्रेजों से लोहा लेने वाले टीपू सुल्तान, हैदरी अली के युद्ध का कोई महत्व सरकारी संस्था एनसीईआरटी की नज़र में नहीं है।
पुरानी किताब में था जिक्र
पुरानी कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान पाठ्यपुस्तक में, 1757 से 1857 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन विस्तार के एक खंड में मैसूर के शासकों, विशेष रूप से हैदर अली और टीपू सुल्तान - जिन्हें 'मैसूर का शेर' कहा जाता था - और 18वीं शताब्दी में लड़े गए चार ऐंग्लो-मैसूर युद्धों का विस्तार से उल्लेख था। इसके उलट, नई पाठ्यपुस्तक में इन घटनाओं को शामिल नहीं किया गया है, जिससे शिक्षाविदों और इतिहासकारों के बीच बहस छिड़ गई है।
प्रतिरोध आंदोलनों की मामूली और सतही जानकारी
चैप्टर में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ 1857 के विद्रोह से पहले के शुरुआती प्रतिरोध आंदोलनों का उल्लेख है, जिसमें 18वीं शताब्दी के 'सन्यासी-फकीर विद्रोह', कोल उभार, सांथाल विद्रोह और 19वीं शताब्दी के 'किसान उभार' शामिल हैं। हालांकि, टीपू सुल्तान और हैदर अली के नेतृत्व में मैसूर के प्रतिरोध को नजरअंदाज कर दिया गया है। इसके बजाय, मराठों के एक अलग अध्याय में 1775 से 1818 के बीच लड़े गए ऐंग्लो-मराठा युद्धों का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि "ब्रिटिश ने मराठों से भारत को मुगलों या किसी अन्य शक्ति से अधिक लोहा लिया।"
एनसीईआरटी का स्पष्टीकरण
एनसीईआरटी के समूह के अध्यक्ष मिशेल डैनिनो ने नई पाठ्यपुस्तक को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे के आधार पर तैयार किया। उन्होंने कहा कि दूसरा भाग अभी तैयार नहीं है। जब उनसे पूछा गया कि क्या टीपू सुल्तान और ऐंग्लो-मैसूर युद्धों का उल्लेख दूसरे भाग में होगा, तो उन्होंने कहा, "यह शायद नहीं होगा। औपनिवेशिक काल की सभी घटनाओं को शामिल करना संभव नहीं है; अगर हम ऐसा करने की कोशिश करेंगे, तो हम फिर से तारीखों और युद्धों से भरे पुराने पाठ्यपुस्तकों के तरीके में चले जाएंगे।" उन्होंने कहा कि कक्षा 6 से 8 (मध्य स्तर) में केवल भारतीय इतिहास का संक्षिप्त अवलोकन किया जाता है, जबकि कक्षा 9 से 12 (माध्यमिक स्तर) में औपनिवेशिक प्रभुत्व जैसे महत्वपूर्ण काल को गहराई से कवर करने का अवसर होगा।
मुगल शासकों से जुड़े चैप्टर नए नजरिए से पेश
कल खबर आई थी कि एनसीईआरटी ने कक्षा 8 के लिए नई सामाजिक विज्ञान की किताब 'एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडिया एंड बियॉन्ड' जारी की है, जिसमें दिल्ली सल्तनत और मुगल शासकों के इतिहास को नए नजरिए से पेश किया गया है। इस किताब में मुगल शासकों, विशेष रूप से बाबर, अकबर और औरंगजेब के जुल्म-सितम पर जोर दिया गया है। लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि अतीत की घटनाओं के लिए आज किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए।
एनसीईआरटी पिछले चार साल से तमाम स्कूली किताबों में इतिहास को बदलने में जुटी हुई है। यह कोई पहला मामला नहीं है। किताब में बाबर को "क्रूर और निर्दयी विजेता" के रूप में लिखा गया है, जो शहरों की पूरी आबादी का नरसंहार करता था और महिलाओं व बच्चों को गुलाम बनाता था। अकबर के शासन को "क्रूरता और सहनशीलका का मिलाजुला रूप" बताया गया है, जिसमें चित्तौड़ किले पर कब्जे के दौरान 30,000 नागरिकों के नरसंहार और महिलाओं व बच्चों को गुलाम बनाने का जिक्र है। औरंगजेब के बारे में कहा गया है कि उसने मंदिरों और गुरुद्वारों को नष्ट किया। पाठ्यपुस्तक में 13वीं से 17वीं सदी तक के भारतीय इतिहास को कवर करने वाला चैप्टर 'रीशेपिंग इंडिया'ज पॉलिटिकल मैप' दिल्ली सल्तनत, मुगलों, विजयनगर साम्राज्य और सिखों के उदय को शामिल करता है।
पुस्तक में मुगलों के खिलाफ प्रतिरोध को भी बताया गया है, जिसमें जाट किसानों, भील, गोंड, संथाल और कोच जनजातियों, रानी दुर्गावती और अहोमों का उल्लेख है। पुरानी कक्षा 7 की पाठ्यपुस्तक की तुलना में इस नई पुस्तक में मंदिरों पर हमलों और शासकों की क्रूरता पर अधिक ध्यान दिया गया है।
एनसीईआरटी का इतिहास पुनर्लेखन और निष्पक्षता का सवाल
एनसीईआरटी की कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान की नई पाठ्यपुस्तक में मुगलों की "क्रूरता" को शामिल करने का निर्णय विवादास्पद है। इतिहास को निष्पक्षता के साथ प्रस्तुत करना एक जटिल कार्य है, क्योंकि यह विभिन्न दृष्टिकोणों और तथ्यों के संतुलन पर निर्भर करता है। एनसीईआरटी का दावा है कि यह कदम "इतिहास के अंधकारमय हिस्सों" को उजागर करने के लिए उठाया गया है, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या केवल मुगलों की नकारात्मक छवि को उभारना निष्पक्ष है।
मुगल शासन ने भारत में कला, संस्कृति, वास्तुकला और प्रशासनिक सुधारों में भी योगदान दिया, जैसे कि अकबर का धार्मिक सहिष्णुता और शाहजहाँ के स्मारकों का निर्माण। भारत के प्रधानमंत्री आज भी लालकिले की प्राचीर से ही हर 15 अगस्त को तिरंगा फहराते हैं। राष्ट्रपति भवन भी अंग्रेजों का बनाया हुआ है। अगर पाठ्यपुस्तकें सिर्फ मुगलों की "क्रूरता" पर केंद्रित होती हैं, तो यह एकतरफा दृष्टिकोण इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर सकता है, जो निष्पक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। बच्चों को इतिहास का संपूर्ण ज्ञान देना जरूरी है, जिसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू शामिल हों।
एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में इतिहास के चयनात्मक पुनर्लेखन से गलत सूचना फैलने का गंभीर खतरा है। जब इतिहास को एक खास नजरिए या एजेंडे के तहत प्रस्तुत किया जाता है, तो यह न केवल तथ्यों को विकृत करता है, बल्कि समाज में ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा देता है। बच्चे, जो अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान इन पाठ्यपुस्तकों पर निर्भर करते हैं, ऐसी एकतरफा जानकारी को सत्य मान सकते हैं। यह उनकी आलोचनात्मक सोच को प्रभावित कर सकता है और ऐतिहासिक तथ्यों की गहरी समझ को बाधित कर सकता है।
नई एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक में टीपू सुल्तान और ऐंग्लो-मैसूर युद्धों को छोड़ने का निर्णय शिक्षण पद्धति में बदलाव का हिस्सा हो सकता है, लेकिन यह इतिहास के एक महत्वपूर्ण पहलू को नजरअंदाज करने के रूप में देखा जा रहा है। यह देखना बाकी है कि दूसरा भाग इन विवादास्पद मुद्दों को कैसे संबोधित करता है और क्या यह इतिहासकारों और शिक्षाविदों की चिंताओं को शांत कर पाएगा।
आलोचना और प्रतिक्रिया
नई पाठ्यपुस्तक में इन ऐतिहासिक घटनाओं को छोड़ने के फैसले पर कई संगठनों और व्यक्तियों ने नाराजगी जताई है। सामाजिक लोकतांत्रिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) ने इस कदम की कड़ी निंदा की है, यह दावा करते हुए कि यह जानबूझकर किया गया है। सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे पर बहस छिड़ गई है, जिसमें कुछ लोग इसे इतिहास को तोड़-मरोड़ने का प्रयास बता रहे हैं।