सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि बिलों को मंजूरी देने में देरी के कुछ मामलों के आधार पर आँख बंद कर गवर्नरों और राष्ट्रपति के लिए कोई निश्चित समयसीमा तय करना ठीक नहीं होगा। यह बात मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने कही। यह मामला राष्ट्रपति द्वारा प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस के माध्यम से मांगी गई सलाह से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से पूछा है कि क्या बिलों पर फैसला लेने के लिए गवर्नरों और राष्ट्रपति को कोई समयसीमा दी जा सकती है, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा का जिक्र नहीं है।

यह पूरा मामला अप्रैल 2025 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से शुरू हुआ। उस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि तमिलनाडु के गवर्नर ने 10 बिलों को राष्ट्रपति के पास भेजकर गलती की थी। कोर्ट ने यह भी कहा था कि गवर्नरों को बिल पर हां या ना कहने या उसे राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए एक महीने का समय चाहिए। अगर गवर्नर मंत्रिपरिषद की सलाह के खिलाफ फैसला लेता है तो उसे तीन महीने में कारण बताना होगा। राष्ट्रपति को भी बिल पर तीन महीने में फैसला लेना होगा।
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सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद राष्ट्रपति ने मई 2025 में सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि क्या कोर्ट ऐसी समयसीमा तय कर सकता है, जबकि संविधान में इसका जिक्र नहीं है। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या गवर्नर और राष्ट्रपति के फैसलों की कोर्ट में जांच हो सकती है और क्या गवर्नर और राष्ट्रपति को कानूनी कार्रवाई से छूट देने वाला संविधान का अनुच्छेद 361 इस जांच में रुकावट बनता है।

कोर्ट में क्या हुआ?

प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को सुनवाई हुई। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि संविधान में समयसीमा का जिक्र न करना एक सोचा-समझा फैसला था। गवर्नर और राष्ट्रपति को बिलों पर फैसला लेने का अधिकार है और कोर्ट द्वारा समयसीमा तय करना सही नहीं होगा। इससे संवैधानिक व्यवस्था में दिक्कत हो सकती है।

तमिलनाडु सरकार के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि अगर गवर्नर बिलों को बिना कारण लटकाते रहें तो यह चुनी हुई सरकारों की शक्ति को कम करता है।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार सिंघवी ने दलील दी कि राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने की बार-बार की घटनाओं को देखते हुए समय-सीमाएँ ज़रूरी थीं।

इस पर मुख्य न्यायाधीश गवई ने पूछा, 'क्या हम राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग के लिए अनुच्छेद 142 के तहत एक सीधा-सादा सूत्र निर्धारित कर सकते हैं?' सिंघवी ने अदालत से बिलों को लटकाए रखने की वास्तविकताओं से निपटने का आग्रह करते हुए कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत शक्तियों के प्रयोग के लिए एक सामान्य समय-सीमा ज़रूरी है।
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सीजेआई ने क्या कहा?

बहस के दौरान सिंघवी ने हाल ही में मुख्य न्यायाधीश गवई द्वारा लिखे गए तीन न्यायाधीशों की पीठ के एक फैसले का हवाला दिया, जिसमें तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष को अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर फैसला लेने का निर्देश दिया गया था। इस पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि उस फैसले में न्यायालय ने एक निर्देश जारी किया था जो इस मामले के लिए विशिष्ट था। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, 'हमने यह निर्देश नहीं दिया था कि सभी विधानसभा अध्यक्ष अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर फैसला करें। यह मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार था।'
कोर्ट ने कहा कि वह किसी राजनीतिक दल के पक्ष में फैसला नहीं करेगा, बल्कि संविधान के नियमों को देखेगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि कुछ बिलों में देरी के आधार पर सभी मामलों के लिए समयसीमा तय करना ठीक नहीं। लेकिन अगर कोई खास मामला सामने आता है, तो कोर्ट उसमें समयसीमा दे सकता है।
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पहले क्या हुआ था?

अप्रैल 2025 में, सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर फैसला देते हुए गवर्नर आर.एन. रवि के 10 बिलों को रोकने को गलत बताया था। कोर्ट ने यह भी साफ किया कि गवर्नर और राष्ट्रपति बिलों को अनिश्चितकाल तक नहीं रोक सकते। कोर्ट ने कहा था कि गवर्नर को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी होगी, सिवाय उन मामलों के जहां बिल हाई कोर्ट की शक्तियों को प्रभावित करता हो।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह इस मामले पर गहराई से विचार करेगा। कोर्ट का फैसला गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियों को साफ़ करेगा और यह तय करेगा कि क्या उनके फैसलों की कोर्ट में जांच हो सकती है। यह मामला भारत के संवैधानिक ढांचे के लिए बेहद अहम है, क्योंकि यह केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन को प्रभावित करेगा।