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स्कूल सर्वे : लॉकडाउन के दौरान गाँवों के 8% बच्चों ने ही की ऑनलाइन पढ़ाई

लॉकडाउन की वजह से स्कूल बंद होने के बेहद बुरे परिणाम दिखने लगे हैं और इसका ज़्यादा असर गाँवों के बच्चों पर पड़ा है। एक सर्वेक्षण से पता चला है कि गाँवों के सिर्फ आठ प्रतिशत बच्चे ही नियमित ऑनलाइन क्लास कर रहे हैं।

शहरों की स्थिति भी चिंताजनक ही है, जहाँ सिर्फ 24 प्रतिशत यानी एक चौथाई से भी कम बच्चे ही ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं।

अभिभावक चाहते हैं कि जल्द से जल्द स्कूल खुलें ताकि बच्चे सामान्य रूप से पढ़ाई कर सकें। गावों के लगभग 97 प्रतिशत और शहरों के लगभग 90 प्रतिशत अभिभावक चाहते हैं कि स्कूल जल्द से जल्द खुल जाएं। 

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नाम मात्र की पढ़ाई

जो बच्चे ऑनलाइन क्लास कर रहे हैं, वे भी नाम मात्र की ही पढ़ाई कर रहे हैं। इस सर्वे में पाया गया है गाँवों के जो आठ प्रतिशत बच्चे ऑनलाइन क्लास कर पाए हैं, उनमें से लगभग आधे यानी 48 प्रतिशत का कहना है कि उन्होंने कुछ शब्द ही सीखे हैं। शहरों में इस तरह कुछेक शब्द सीखने वाले बच्चे और कम यानी 42 प्रतिशत हैं। 

गाँवों में लगभग 37 प्रतिशत बच्चों ने स्कूल बंद होने के बाद से कोई पढ़ाई नहीं की है। इसी तरह शहरों के 19 प्रतिशत बच्चे आजकल बिल्कुल ही नहीं पढ़ रहे हैं।

ऐसी पढ़ाई का क्या लाभ?

लगातार स्कूल बंद रहने का नतीजा यह हुआ है कि ग्रामीण इलाक़ों के 75 प्रतिशत और शहरी इलाक़ों के 72 प्रतिशत बच्चों में पढ़ने की क्षमता कम हो गई है।

यह सर्वे 1,400 बच्चों पर किया गया है। 

आखिर ऑनलाइन पढ़ाई क्यों नहीं हो पा रही है और इसमें क्या दिक्क़तें आ रही हैं? इस स्कूल सर्वे में इसका भी खुलासा होता है। 

school survey : online class, online study suffer during lockdown - Satya Hindi

बच्चों के पास फ़ोन नहीं

सर्वे के मुताबिक़, गाँवों में 51 प्रतिशत परिवारों के पास मोबाइल फ़ोन है, यानी लगभग आधे परिवारों के पास मोबाइल फ़ोन नहीं है। जिन परिवारों में मोबाइल फ़ोन है, वहाँ दिक्क़त यह है कि बच्चे के पास फ़ोन नहीं है, यानी एक ही फ़ोन में सारा काम होता है।

इसे ऐसे समझा जा सकता है कि यदि एक परिवार में तीन बच्चे हों और एक फ़ोन हो तो चाह कर भी दो बच्चे कैसे ऑनलाइन क्लास करेंगे। 

गाँवों में 36 प्रतिशत और शहरों में 30 प्रतिशत बच्चों के पास अपना स्मार्ट फ़ोन नहीं है।

कनेक्टिविटी नहीं

जिनके पास फ़ोन की कोई दिक्क़त नहीं है, उनके साथ इंटरनेट कनेक्टिविटी की दिक्क़त है। नौ प्रतिशत बच्चे तो खराब इंटरनेट कनेक्टिविटी का कारण क्लास नहीं कर पाए।

मोबाइल फ़ोन और कनेक्टिविटी के अलावा और भी परेशानियाँ हैं। 

पैसा भी एक कारण है। ग्रामीण इलाकों के लगभग छह प्रतिशत बच्चों के पास इंटरनेट डेटा के लिए पैसे नहीं है, शहरों में ऐसे बच्चों की तादाद 9 प्रतिशत है।

पढ़ाई की सामग्री नहीं

जो बच्चे इन तमाम अड़चनों को पार कर लेते हैं, उनमें से कई के साथ यह दिक्क़त है कि उन्हें ऑनलाइन क्लास समझ में नहीं आता या स्कूल वाले उन्हें पढ़ाई की सामग्री ही नहीं भेजते।

गाँवों के लगभग 43 प्रतिशत बच्चों का कहना है कि ऑनलाइन क्लास के बाद स्कूल वाले उन्हें पढ़ाई की सामग्री ऑनलाइन नहीं भेजते हैं। शहर के 14 फ़ीसदी बच्चों की यही शिकायत है।

वे ऑनलाइन क्लास कर भी लें तो उसके बाद क्या पढ़ें, यह सवाल उठता है। 

ऑफ़लाइन पढ़ाई

ऑनलाइन पढ़ाई के इस मकड़जाल में उलझी शिक्षा व्यवस्था का दूसरा सच यह भी है कि इस दौरान ऑफ़लाइन पढ़ाई को कोई ख़ास कोशिश नहीं हुई। बिहार, उत्तर प्रदेश, असम और झारखंड में लॉकडाउन के दौरान ऑफ़लाइन पढ़ाई की कोई कोशिश नहीं हुई। 

कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब और राजस्थान के शिक्षकों ने अपनी ओर से कुछ अभिनव प्रयोग किए और ऑफ़लाइन पढ़ाई कराने की कोशिश की। उन्होंने वर्कशीट तैयार किया और घर-घर जाकर बच्चों को दिया, वे बीच-बीच में उनके घर जाकर उन्हें कुछ मशविरा देते रहे।

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प्राइवेट ट्यूशन

पर यह प्रयोग बहुत ही सीमित स्तर पर रहा और स्कूलों व शिक्षकों के निजी प्रयासों से हुआ, यह भी पूरे समय नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि इसके प्रयास बेहद सीमित रहे और यह कोई स्थायी या दूरगामी प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे। 

ऑफ़लाइन क्लास के तहत कुछ अभिभावकों ने प्राइवेट ट्यूशन लगाए।

गाँवों में सिर्फ 14 प्रतिशत और शहरों के 24 प्रतिशत बच्चों को यह ट्यूशन नियमित मिल सका। गाँवों के लगभग चार प्रतिशत और शहरों के छह प्रतिशत बच्चे कभी-कभार ट्यूशन ले सके।

खुद पढ़ाई की

कुछ अभिभावकों ने बच्चों को खुद पढ़ाया, कुछ बच्चों ने खुद पढ़ने की कोशिशें कीं तो कुछ बच्चे वीडियो देख कर पढ़ते रहे। लेकिन इनकी तादाद बेहद कम रही और इसमें भी शहर व गाँव का अंतर साफ दिखा। यानी इन मामलों में भी गाँवों के बच्चे पिछड़ गए। 

इस पूरी व्यवस्था में शिक्षक मोटे तौर पर और लंबे समय तक नदारद रहे। न तो उन्होंने बच्चों से संपर्क करने की कोशिश की, न उनके यहाँ गए, न अभिभावकों से मुलाक़ात की और न ही किसी तरहा मशविरा या दिशा निर्देश दिया। यानी वे बिल्कुल शिक्षण व्यवस्था से दूर रहे। 

शिक्षक रहे नदारद

ग्रामीण इलाकों के 58 प्रतिशत और शहरों के 51 प्रतिशत अभिभावकों व बच्चों का कहना है कि शिक्षक उनसे दूर रहे। कुछ शिक्षकों ने यूट्यूब के कुछ लिंक शेयर कर दिए तो कुछ ने वॉट्सऐप पर कुछ मैसेज डाल दिए। बस, उनकी भूमिका इससे आगे नहीं रही। 

लेकिन तसवीर का दूसरा पहलू यह है कि कुछ शिक्षकों ने इससे आगे निकल कर अभिभावकों व बच्चों की मदद की। कुछ शिक्षकों ने किसी सुनसान जगह या किसी पेड़ के नीचे ही क्लास लगा दी तो कुछ शिक्षक बच्चों के घर जाकर उन्हें सलाह या दिशा निर्देश दे आए।

कुछ शिक्षक तो इतने दरियादिल निकले कि जो बच्चे पैसे की कमी की वजह से फ़ोन चार्ज नहीं करवा सकते थे, उन्होंने अपने पैसे से उनके फ़ोन तक चार्ज करवा दिए।

स्कूल छोड़ना पड़ा

शिक्षा व्यवस्था में इन खामियों का नतीजा निजी स्कूलों को भी भुगतान पड़ा है। इस सर्वेक्षण में पाया गया है कि लगभग 26 प्रतिशत बच्चों ने निजी स्कूल छोड़ दिया, उनमें से कुछ ने सरकारी स्कूलों की ओर रुख किया। इसकी वजह यह रही कि उनके अभिभावक फ़ीस चुकाने की स्थिति में नहीं थे। 

ज़्यादातर स्कूल ने नए अकादमिक साल में फ़ीस नहीं बढ़ाई तो कुछ ने कुछ महीनों तक बग़ैर पैसे दिए भी बच्चों को क्लास करने दिया, उनका नाम स्कूल से नहीं काटा। 
बच्चों के स्कूल छोड़ने और उनके अभिभावकों के पैसे न देने का असर स्कूलों पर यह पड़ा कि उनमें से कई ने अपने खर्चों में कटौती करने के लिए कई लोगों को नौकरी से निकाल दिया, इनमें शिक्षक भी शामिल हैं।

बचे हुए शिक्षकों पर अधिक ऑनलाइन क्लास का बोझ पड़ा जो उन्होंने अनमने ढंग से ही सही, उठाया। 

स्कूल में कक्षाएं बंद हुईं तो सरकारी स्कूलों में दिया जाने वाला मिड डे मिल भी बंद हो गया। हालांकि सरकार का दावा है कि अभिभावकों को पैसे दिए गए, पर स्कूल सर्वे में पाया गया है कि सिर्फ आठ प्रतिशत बच्चों को ही पैसे मिले। 

स्कूल सर्वे से एक बात निकल कर और आई है कि शहर और गाँव का अंतर बहुत ही खुल कर सामने आया है, यह खाई पहले से ज़्यादा चौड़ी हुई है। 

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क़मर वहीद नक़वी
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