उत्तर प्रदेश के ‘अवैध धर्मांतरण कानून, 2021’ पर गंभीर संवैधानिक सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के तहत दर्ज कई एफआईआर रद्द कर दीं। जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि कानून के कई प्रावधान प्राइवेसी, समान व्यवहार, लोगों की आज़ादी और संवैधानिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
सुप्रीम कोर्ट का शुक्रवार को दिया गया यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि बीजेपी शासित राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून के जरिए अल्पसंख्यकों पर कार्रवाई का सिलसिला जारी है। अभी दो दिन पहले राजस्थान की बीजेपी सरकार ने भी ऐसा ही कानून लागू कर दिया है। जिसमें आरोपी के घर पर बुलडोज़र चलाने जैसी कार्रवाई का नियम भी बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार को इस आदेश के जरिए जबरदस्त झटका दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि धर्म परिवर्तन से पहले और बाद में अनिवार्य घोषणाओं की वैधानिक प्रक्रिया “बहुत ज्यादा बोझिल” है और इसमें राज्य की “जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी” व्यक्तिगत आस्था और गोपनीयता के अधिकार से टकराती है। अदालत ने स्पष्ट किया कि वह फिलहाल अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर अंतिम फैसला नहीं दे रही, लेकिन कहा कि इन पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कानून का इस्तेमाल लोगों को परेशान करने के लिए नहीं होना चाहिए।
यह मामला प्रयागराज स्थित सैम हिगिनबॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर, टेक्नोलॉजी एंड साइंसेज (SHUATS) के कुलपति राजेन्द्र बिहारी लाल और निदेशक विनोद बिहारी लाल से जुड़ा था। इन पर अवैध धर्मांतरण के आरोपों में मुकदमे दर्ज किए गए थे। अदालत ने इन सभी एफआईआर को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि शिकायत दर्ज कराने वाला व्यक्ति उस समय विधि अनुसार ‘अधिकृत पक्ष’ नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 2021 के कानून की धारा 8 और 9 में धर्म परिवर्तन से पहले और बाद की घोषणाओं तथा पुलिस जांच की अनिवार्यता “निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक ढांचे के विपरीत” लगती है। अदालत ने चेतावनी दी कि “किसी व्यक्ति के विश्वास बदलने के लिए राज्य द्वारा की जाने वाली जांच और सार्वजनिक घोषणा की प्रक्रिया अत्यंत बोझिल और दखल देने वाली है।”
बेंच ने यह भी कहा कि अगर इस मामले में किसी तीसरे व्यक्ति को शिकायत करने का अधिकार दिया जाए, तो “आपराधिक कानून उत्पीड़न का हथियार बन सकता है,” जिससे बेवजह या दुर्भावनापूर्ण मुकदमेबाज़ी बढ़ेगी और धार्मिक आज़ादी कमज़ोर होगी।
धर्म और आस्था का चुनाव भी व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता के दायरे में आता है।
अदालत ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 25 हर व्यक्ति को, न कि सिर्फ नागरिकों को, अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म का पालन, प्रचार व प्रसार करने का अधिकार देता है। अदालत ने 2017 के के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि “धर्म और आस्था का चुनाव भी व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता के दायरे में आता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि 2024 में यूपी सरकार ने कानून में संशोधन कर तीसरे पक्ष को शिकायत का अधिकार दिया, लेकिन यह संशोधन पुराने मामलों पर लागू नहीं हो सकता। इसलिए उस समय के अनुसार, केवल पीड़ित या उनके परिवार को ही शिकायत का अधिकार था। अदालत ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी की यह दलील खारिज कर दी कि सामान्य आपराधिक प्रक्रिया (सीआरपीसी की धारा 154) से किसी को भी सूचना देने का अधिकार मिल जाता है।
अदालत ने कहा कि दर्ज एफआईआर और आगे की जांच “संदेहास्पद मकसदों से प्रेरित” लगती हैं और उनमें “ईमानदारी का अभाव” दिखता है। इसलिए सभी एफआईआर और उससे संबंधित कार्यवाही रद्द की जाती हैं। पुलिस ने धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत पांच एफआईआर दर्ज की थी। अब सभी एफआईआर रद्द कर दी गई है।
विशेष रूप से, “विवाह के नाम पर धर्मांतरण” को इस कानून में एक अलग अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। यदि किसी ने केवल धर्म बदलवाने के उद्देश्य से विवाह किया या कराया, तो वह विवाह शून्य (null and void) माना जाएगा। वहीं, सरकारी अधिकारियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे जांच कर यह सुनिश्चित करें कि धर्म परिवर्तन स्वेच्छा से हुआ या दबाव में।