लोकपाल एएम खानविलकर
केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता भी लोकपाल खानविलकर के फैसले से असहमत हैं। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट के जज कभी भी लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के दायरे में नहीं आएंगे। मेहता ने कहा, "हर जज हाईकोर्ट है।"
यह मामला क्या हैः पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक लोकपाल ने 27 जनवरी 2025 को हाईकोर्ट के अतिरिक्त न्यायाधीश के खिलाफ दायर दो शिकायतों पर आदेश दिया, जिसमें इस बात का आरोप लगाया गया था कि उन्होंने राज्य के एक अतिरिक्त जिला जज को प्रभावित किया। यह भी आरोप था कि उसी हाईकोर्ट के एक अन्य जज को शिकायतकर्ता के खिलाफ एक निजी कंपनी द्वारा दायर मुकदमे में उस कंपनी के पक्ष में फैसला दिलाने के लिए प्रभावित किया।
खानविलकर का अतीत और कुछ विवादित फैसले
ईडी को ज्यादा पावरः जस्टिस खानविलकर की बेंच ने धन शोधन निवारण अधिनियम यानी पीएमएलए की कई विवादास्पद धाराओं और ईडी की व्यापक जांच शक्तियों की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए निर्णय दिया था। इस आपराधिक कानून में कई बुनियादी सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहने के लिए करीब 250 से अधिक याचिकाकर्ताओं द्वारा कानून को चुनौती दी गई थी: मसलन आरोपी व्यक्ति को फैसला आने से पहले दोषी मान लेना, ऐसे मामलों में जमानत के प्रावधान लगभग असंभव है। ईडी को यह पावर भी मिल गई कि वो किसी की औपचारिक शिकायत के बिना संपत्ति की तलाशी और जब्ती कर सकता है। जस्टिस खानविलकर की बेंच ने जब यह फैसला सुनाया तो उसी समय ये आरोप लगे कि मोदी सरकार विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए इस कानून को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
जमानत को असंभव बनायाः इससे पहले, अप्रैल 2019 में, दो जजों की बेंच का नेतृत्व करते हुए, उन्होंने एक फैसला लिखा, जिसने भारत में राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले यूएपीए कानून यानी गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत जमानत प्राप्त करना लगभग असंभव बना दिया। उन्होंने माना कि यूएपीए के मामलों में जमानत पर फैसला सुनाते समय अदालतें सरकारी पक्ष के सबूतों की गंभीर जांच नहीं कर सकती हैं। जमानत पर निर्णय लेते समय, अदालत को इसके बजाय एक व्यापक मूल्यांकन करने की आवश्यकता होती है कि क्या किसी आरोपी व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं। यानी जज साहब को अगर यह लग गया कि फलाना जरूर आतंकी गतिविधि में शामिल रहा होगा तो फिर उसकी जमानत नामुमकिन कर दी गई। सारी बहसें एक तरफ, भले ही अभियोजन पक्ष के पास सबूत तक न हों।
तीस्ता सीतलवाड़ क्या विलेन थींः यह फैसला तो गजब ही था। जिन लोगों ने गुजरात दंगों को अदालत में चुनौती दी, उन्हीं याचिकाकर्ताओं को जस्टिस खानविलकर की बेंच के फैसले के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया। सुप्रीम कोर्ट या जस्टिस खानविलकर के इस फैसले ने स्टेट या सरकार की शक्तियों का विस्तार किया, मजबूत किया और यह ध्वनि गई कि सरकार के सही-गलत फैसलों को अदालत में चुनौती देने वालों का यही अंजाम होगा। जस्टिस खानविलकर की बेंच ने नागरिकों को केवल राज्य को जिम्मेदार ठहराने के प्रयास के लिए दंडित किया है।
इस फैसले के ठीक एक दिन बाद ही गुजरात पुलिस ने इसी फैसले का हवाला देते हुए एफआईआर दर्ज की और जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात के पूर्व पुलिस महानिदेशक आरबी श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया। देश के लोग इस फैसले पर की गई कार्रवाई से स्तब्ध रह गए। तमाम पूर्व पुलिस अधिकारियों तक ने इस पर टिप्पणियां कीं और अदालत के फैसले के आधार पर कार्रवाई को गलत बताया।
भीमा कोरेगांव याद है क्या
...और जस्टिस लोयाः खानविलकर उस बेंच का भी हिस्सा थे जिसने सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ मामले की अध्यक्षता कर रहे जज बी. एच. लोया की मौत की जांच के लिए दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिसमें केंद्रीय मंत्री अमित शाह मुख्य आरोपी थे। जस्टिस लाया का बाद में निधन हो गया। लेकिन उस मौत पर भी काफी विवाद हुआ।
तीन कृषि कानूनों का केस
अक्टूबर 2021 में केंद्र द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध में अनुमति मांगने वाली एक याचिका पर निर्णय लेते हुए, दो जजों की पीठ की अध्यक्षता करते हुए, खानविलकर ने याचिकाकर्ताओं को विरोध करने के लिए फटकार लगाई। फिर, उन्होंने आदेश दिया कि अदालत तय करेगी कि क्या नागरिक उन विषयों पर विरोध कर सकते हैं जिनमें मामले पहले से ही लंबित हैं। विरोध करने के लोकतांत्रिक अधिकार को प्रतिबंधित करने के प्रयास के लिए इस आदेश की व्यापक रूप से आलोचना की गई थी।
आधार पर क्या किया थाः जस्टिस खानविलकर के फैसलों ने कई विवादास्पद सरकारी योजनाओं को भी अदालत की सहमति दी। 2018 में, वह उस बेंच का हिस्सा थे जिसने आधार की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। उनकी बेंच ने उस समय कहा था कि आधार निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। इसने सरकार को सब्सिडी और लाभों के लिए आधार को अनिवार्य करने की भी अनुमति दी। यहां भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने आधार को असंवैधानिक बताते हुए असहमतिपूर्ण फैसला सुनाया था। बाद में तमाम रिपोर्टें आईं जिनमें बताया गया कि आधार का डेटा किस तरह लीक हुआ या बेचा गया। आम जनता की सारी जानकारियां कंपनियों के पास पहुंच गईं।
जब इसे खानविलकर की अगुआई वाली पीठ के समक्ष चुनौती दी गई, तो स्टे पर निर्णय लेने के बजाय, एक चौंकाने वाले कदम में, अदालत ने पूरी याचिका को अपने आप में ट्रांसफर कर लिया, इस आदेश पर वकीलों ने तर्क दिया था कि याचिका का ट्रांसफर अपनी ही अदालत में करना संवैधानिक शक्तियों का उल्लंघन है।
सबरीमाला प्रकरण
खानविलकर 2018 में मासिक धर्म वाली महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति देने वाली पीठ का हिस्सा थे, उन्होंने एक साल बाद अपना विचार बदल दिया और कहा कि सबरीमाला मुद्दे पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए। रेफरल की अनुमति देने में उनका विचार बदलना महत्वपूर्ण था, क्योंकि 2018 बेंच के दो अन्य जजों ने माना कि उनके फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप 3: 2 का विभाजन हुआ। उन्होंने माना कि निर्णय में कोई नई सामग्री या कोई स्पष्ट गलती नहीं थी जो कि समीक्षा के योग्य थी।
(रिपोर्ट और संपादनः यूसुफ किरमानी)