Delhi Riots Umar Khalid Sharjeel Imam: दिल्ली हाई कोर्ट आज 2020 के दिल्ली दंगों से संबंधित यूएपीए मामले में शरजील इमाम, उमर खालिद और अन्य की जमानत याचिकाओं पर फैसला सुनाएगा। देखना है कि आज उन्हें बेल मिलती है या फिर एक और तारीख।
उमर खालिद (बाएं) और शरजील इमाम
दिल्ली हाई कोर्ट मंगलवार को
2020 के दिल्ली दंगों से संबंधित यूएपीए मामले में एक्टिविस्ट शरजील इमाम, उमर खालिद और अन्य की जमानत याचिकाओं पर अपना आदेश सुनाएगा। यह मामला फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों से जुड़ा है, जिसमें 53 लोगों की मौत हुई और 700 से अधिक घायल हुए थे। दंगों में मारे गए लोगों में 38 मुस्लिम और 15 हिन्दू थे।
जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर की खंडपीठ ने 9 जुलाई को अभियोजन पक्ष और आरोपियों की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था। मंगलवार दोपहर 2:30 बजे यह फैसला सुनाया जाएगा। जमानत याचिकाओं पर सुनवाई का सामना करने वालों में शरजील इमाम, उमर खालिद, मोहम्मद सलीम खान, शिफा उर रहमान, अतहर खान, मीरान हैदर, खालिद सैफी और गुलफिशा फातिमा शामिल हैं।
दिल्ली पुलिस ने जमानत याचिकाओं का कड़ा विरोध करते हुए दावा किया है कि 2020 के दंगे एक "पूर्व नियोजित षड्यंत्र" का हिस्सा थे। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि यह हिंसा सहज नहीं थी, बल्कि इसका मकसद वैश्विक स्तर पर भारत की छवि को धूमिल करना था। उन्होंने कहा, "जो अपने देश के खिलाफ कार्य करता है, उसे तब तक हिरासत में रहना चाहिए जब तक वह बरी न हो जाए।"
वहीं, शरजील इमाम के वकील ने दलील दी कि उनके मुवक्किल का दंगों के स्थान, समय या सह-आरोपियों से कोई संबंध नहीं था। उनके भाषणों और व्हाट्सएप चैट में हिंसा का कोई आह्वान नहीं था। उमर खालिद और अन्य ने लंबी हिरासत और अन्य सह-आरोपियों को मिली जमानत के आधार पर जमानत की मांग की है। ये याचिकाएं 2022 से हाई कोर्ट में लंबित हैं।
अभियोजन पक्ष का कहना है कि उमर खालिद और शरजील इमाम के भाषणों में सीएए-एनआरसी, बाबरी मस्जिद, तीन तलाक और कश्मीर जैसे मुद्दों का उल्लेख कर भय का माहौल बनाया गया। पुलिस ने दावा किया कि ऐसे गंभीर अपराधों में "जमानत नियम, जेल अपवाद" का सिद्धांत लागू नहीं होता। शरजील इमाम को अगस्त 2020 में गिरफ्तार किया गया था। इस मामले में 18 लोग यूएपीए के तहत आरोपित हैं, जिनमें दो फरार हैं। दिल्ली पुलिस के अनुसार, दंगों में 929 व्यावसायिक और 566 आवासीय इकाइयों को नुकसान पहुंचा।
यह मामला सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनों के दौरान भड़की हिंसा से जुड़ा है। आज का फैसला इस संवेदनशील मामले में महत्वपूर्ण हो सकता है, और सभी की नजरें हाई कोर्ट के निर्णय पर टिकी हैं।
दिल्ली दंगों पर जांच रिपोर्ट
दिल्ली दंगा मामले में दिल्ली पुलिस, गृह मंत्रालय, सरकार, नफ़रत फैलाने वाला मीडिया का एक धड़ा, इन सभी पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। सिटिज़न कमेटी ने उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगे से जुड़े हर तथ्यों का अध्ययन करने के बाद यह रिपोर्ट जारी की है। समिति ने कहा है कि कैसे दंगे भड़कने से पहले नफ़रती माहौल बनाया गया, कैसे मीडिया का इसके लिए इस्तेमाल हुआ और कैसे दंगे के बाद सही तरीक़े से जाँच नहीं की गई व कैसे कुछ लोगों को जेल में डालने के लिए ग़लत धाराओं का इस्तेमाल किया गया। जिस समिति ने यह रिपोर्ट दी थी, उसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी लोकुर थे। इस समिति में मद्रास और दिल्ली उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आर एस सोढ़ी, पटना हाई कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अंजना प्रकाश और भारत सरकार के पूर्व गृह सचिव जी के पिल्लै शामिल थे।
समिति ने रिपोर्ट में पाया है कि विवाद पैदा करने के इरादे से नफ़रत फैलाई गई थी। 2020 में 23 फ़रवरी से लेकर 26 फ़रवरी तक उत्तर पूर्वी दिल्ली सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रही थी। लेकिन इसके लिए काफ़ी पहले से नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा था। नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए का 2019 से ही विरोध किया जा रहा था। इसके ख़िलाफ़ मुसलिम अपनी नागरिकता छिन जाने के डर से विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इसी बीच विधानसभा चुनाव ने जोर पकड़ा था। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी दौरान नफ़रती बयान दिए गए। समिति ने कहा है कि उसी दौरान अनुराग ठाकुर,
कपिल मिश्रा जैसे नेताओं ने सार्वजनिक मंचों से विरोध प्रदर्शन करने वालों को गद्दार क़रार देना शुरू किया। "गोली मारो...' वाला नारा भी तभी लगाया गया था।
समिति ने आगे कहा है कि इस नफ़रत को फैलाने और बढ़ाने में कई टेलिविजन चैनल भी काफी ज़िम्मेदार हैं। समिति ने 22 और 23 फरवरी के घटनाक्रमों का खासकर ज़िक्र किया है। इसने कहा है कि कैसे कपिल मिश्रा ने 23 फ़रवरी को जाफराबाद और चांद बाग की सड़कें खाली करने का अल्टीमेटम दिया था।
समिति ने कहा है,
जानबूझकर मुसलिम विरोधी विमर्श खड़ा करने से हुई हिंसा इस बात का संकेत देती है कि किस तरह सार्वजनिक विमर्श में नफ़रती बयानबाज़ी के साथ-साथ वास्तविक हिंसा भी पनप रही है। ऐसा लगता है कि नफ़रती बयानों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की संस्थागत इच्छाशक्ति पूरी तरह दम तोड़ चुकी है।
दिल्ली दंगों की यह सबसे भयावह तस्वीर थी। फाइल फोटो
मीडिया का एक हिस्सा इन नफ़रती बयानों का प्रचार प्रसार करने में अहम भूमिका निभाता है। समिति ने कहा है कि 'साफ़ है कि ब्रॉडकास्टिंग मानकों की निगरानी करने वाली मौजूदा संस्थाओं की चूक के बनिस्बत इन चैनलों की पहुँच और उन्हें मिली छूट कहीं ज़्यादा है। बोलने और अभिव्यक्ति के लिए एक बिना निगरानी वाला मंच होने के नाते सोशल मीडिया के फ़ायदे ज़रूर हैं लेकिन इसके यही गुण उन्मादी, नफ़रती बयानों और हिंसक सामग्री के वाहक के तौर पर गंभीर ख़तरे भी पैदा करता है।' इसने कहा है कि उत्तर पूर्वी दिल्ली के सीएए विरोधी धरनों को निशाना बनाकर उन्हें वहाँ से हटाना एक अकेली घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।