प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी राजनैतिक फौज जिस तेजी से
हमारी अर्थव्यवस्था को पाँच ट्रिलियन तक पहुँचने और भारत के तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के दावे कर रहे हैं, वह लक्ष्य लगातार दूर भागता लग रहा है। यह काम कोविड के पहले से किया जा रहा है और इसमें नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान को छुपाना और इसमें एक अपराधभाव से निपटना भी था। लेकिन कोविड ने और उस दौरान उठाए कदमों ने भी स्थिति बिगाड़ी और अब जबकि अर्थव्यवस्था के पटरी पर आ जाने का दावा किया जाने लगा है, तब फिर से जो आँकड़े सामने आ रहे हैं या जो भविष्यवाणियां की जा रही हैं, वे दुनिया में सबसे तेज
विकास दर, पाँच ट्रिलियन के जीडीपी और विश्व गुरु बनने के दावों को शक के दायरे में ला रहे हैं।
सबसे ताजा आँकड़ा तो करखनिया उत्पादन दर (जो डेढ़ फीसदी पर पहुँच गया है) में गिरावट और देश की सबसे बड़ी आईटी कंपनी टीसीएस में भारी छंटनी की है। कुछ दिनों से उपभोक्ता उत्पादन कंपनियों के मुनाफे और बिक्री में कमी कई खबरें भी आ रही हैं और कार बाजार के बिना बिके कारों का बोझ बढ़ रहा है। पर इससे जुड़ी खबर यह भी है कि बड़ी कारों और स्पोर्ट्स वेहिकल का बाजार तेज है, एक-दो कमरे वाले फ्लैट की बिक्री नहीं है और बड़े घरों की मांग बढ़ी है। अर्थात समाज के एक वर्ग में अमीरी बढ़ रही है, बाकी लोगों की क्रयशक्ति गिर रही है।
मोदी के वादे का क्या?
अब अर्थव्यवस्था के संचालन का जिम्मा तो ग्यारह साल से मोदी जी और उनकी टीम का है और वे सत्ता में आए भी थे बहुत ‘भयंकर’ आर्थिक वायदों के साथ। उनकी याद दिलाने का अब कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह तीन चुनाव पहले की बात है और अमित शाह जैसा सीनियर आदमी उन्हें जुमला करार दे चुका है। पर आज अर्थव्यवस्था को लेकर जो नई स्थिति बनी है और जिसके प्रभाव आने शुरू हो चुके हैं, वे सभी मोदी जी और उनकी टोली के वश के नहीं है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प महाराज जो कुछ कर रहे हैं उस दवाई से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के ही हाल बुरे हैं और उसका विकास दर ऋणात्मक हो चुका है। पर अमेरिका तो काफी दम वाला है। वह गिरते-पड़ते भी कितने ट्रम्प के ‘मिस-एडवेंचर’ को बर्दाश्त कर जाएगा। लेकिन हम भारत के लोग ही नहीं। दुनिया भर की छोटी अर्थव्यवस्थाओं का क्या हाल होगा, यह कल्पना मुश्किल है। और अमेरिका हम पर प्रभाव डालता है और अभी भी उससे व्यापार वार्ता चल ही रही है पर वह थोड़ा दूर है। उसके मुकाबले खड़ा हो रहा चीन तो हमारा पड़ोसी है जो व्यापार समेत हर तरह से हमें प्रभावित करने के साथ हमारी जमीन पर पसरने की हसरत भी रखता है। जब तब उससे सीमा पर टकराव ही नहीं होता, पाकिस्तान (ही नहीं नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश से भी) से टकराव के वक्त वह हथियार के साथ पाकिस्तान की तरफ से लड़ाई में लग जाता है। चीन का नेतृत्व किसी भी मामले में विश्वसनीय नहीं है।
राजनैतिक लाभ लेने की कवायद!
अब हमारे पीएम मोदी की दिक्कत यह है कि वे अमेरिका जाकर ट्रम्प का प्रचार कर आते हैं और साबरमती में जिन पिंग के साथ झूला झूलते हैं (जाहिर तौर पर इन चीजों का राजनैतिक लाभ भी लेते हैं) लेकिन आर्थिक मामलों में इन दो महाशक्तियों की होड़ का, एक से दूरी और दूसरे से पास होने की भौगोलिक अवस्थिति का और पूंजी-श्रम-तकनीक के मामले में बेहतर स्थिति का लाभ नहीं ले पाते। उलटे हमें गाहे बेगाहे अमेरिका से बेमतलब हथियारों की खेप खरीदनी पड़ती है और संघी स्वदेशी की लाख नकली तलवार तानने के बावजूद चीन से व्यापार घाटा लाख करोड़ से ऊपर पहुँच गया है। इसके बावजूद आपके पास उसे चीन से निवेश के समझौते करने, उसे अमेरिका के आगे टैक्स दरों की चिरौरी करने और अवांछित आयात पर सहमत होना पड़ता है। ट्रंप जो-जो चाहते थे वह भारत पूरा करता दिख रहा है, बगैर किसी स्पष्ट लाभ के। और अब वह यह भी करने जा रहे हैं कि आप तेल समेत दूसरे आयात कहां से करें, कहां से न करें। आप किस करेंसी में व्यापार करें, किसमें नहीं और किसे मित्र बनाएं, किसे नहीं।
निवेश का स्तर
हम इन बातों को मानने के लिए दो वजहों से मजबूर हो सकते हैं। एक वजह तो देश में निवेश का स्तर सबसे निचले स्तर पर आ जाना है। संरचना क्षेत्र पर जनता के कर के पैसे से गुलछर्रे उड़ाने के अलावा किसी बड़े उत्पादक काम में पैसा नहीं लगाया गया है- मनमोहन राज में बिजली उत्पादन की जबरिया योजना चली लेकिन आज सड़क, सुरंग, पुल, मूर्तियां, कॉरीडोर, बिल्डिंग के अलावा बाकी काम नदारद हैं। और लोगों को काम तथा कमाने का अवसर देने की जगह पाँच किलो अनाज और मुफ़्त खिचड़ी का राजनैतिक लाभ लेने में देसी बाजार को चौपट कर दिया गया है। मांग ही नहीं बची है।
मुद्रास्फीति की दर रोज गिरने का रिकॉर्ड बना रही है, लेकिन जेब में पैसे हों तब तो कोई बाजार आएगा। इनकम टैक्स में छूट का नकली फॉर्मूला भी बाजार में मांग नहीं पैदा कर सका है।
रोजगार का सीधा अवसर तो नहीं ही बना है, नोटबंदी और साथ आई जीएसटी की व्यवस्था ने व्यापार, उत्पादन और उद्यम वाले छोटे रोजगार चौपट कर दिए। सारा कुछ ‘इंफॉर्मल से फॉर्मल’ क्षेत्र में आ रहा है। नई तकनीक इसमें मददगार हो गई है। और भले रोज जीएसटी कलेक्शन के नए रिकॉर्ड का दावा हों, बाजार सूने होते जा रहे हैं- खासकर गाँव, छोटे शहरों और मुहल्लों के। अगर किसान सैकड़ों की संख्या में जान देकर और साल भर से ज्यादा कष्ट सहकर नहीं अड़े होते तो अब तक खेती-किसानी में भी यही दृश्य आ गया होता। यह काम धीरे-धीरे चल रहा है और अभी भी मानसून तथा किसानों का श्रम अर्थव्यवस्था और सरकार को सहारा दिए हुए है।
वित्त मंत्रालय की अपनी रिपोर्ट अर्थव्यवस्था ‘कौशियसली ऑप्टेमिस्टिक’ बताती है। हिन्दी में इसका मतलब बताना भारी काम है क्योंकि मंत्रालय लोगों को सचेत कर रहा है या सरकार को यह साफ नहीं है। अब लोग उम्मीद पालना कैसे छोड़ सकते हैं लेकिन उसमें सावधानी क्यों चाहिए। यह बात तो सरकार के लिए होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि सरकार भले भंवर जाल में दिखे, ट्रम्प-जिन पिंग के द्वन्द्व में लगे और कुछ वैश्विक स्थितियां वास्तविक भी है। पर उसका अपना एक एजेंडा है। इसमें एक खास मॉडल पर पूरी अर्थव्यवस्था को पहुंचा देना है जिसमें गिनती के या मुट्ठी भर ‘संचालक’ रह जाएं और बाकी उपभोक्ता भी न बचें। मुल्क के सारे उत्पादक संसाधन समाज के हाथ से निकाल कर ऐसे संचालकों के हाथ पहुँच जाएं। ऐसा होने भी लगा है और अब जो परिणाम आ रहे हैं, वे उसकी झलक देते हैं।