पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने 1991 में पेश बजट के तीस साल पूरे होने पर  एक बयान देते हुए कहा है कि 'आगे की राह भारत के लिए और चुनौतीपूर्ण है।' 

इसके साथ-साथ उन्होंने कांग्रेस की तारीफ़ में कसीदे पढ़ते हुए और भी कई बातें कही हैं। 

डॉ. मनमोहन सिंह जब आर्थिक विषयों पर बोलते हैं तो बहुतायत लोग उन्हें कांग्रेस नेता मानकर नहीं सुनते बल्कि एक मंझे हुए अर्थशास्त्री मानकर सुनते हैं। यह तो डॉ. सिंह ही बता सकते हैं कि वे खुद को कांग्रेस नेता मानकर बयान देते हैं अथवा अर्थशास्त्री के नाते बोलते हैं।

बात बयानों की है तो उनके पिछले छह-सात साल में दिए दो और बयानों का उल्लेख ज़रूरी है। 2016 में नोटबंदी को डॉ सिंह ने 'संगठित लूट' कहा था। 2014 में उन्होंने कहा था कि 'उनका मूल्यांकन इतिहास करेगा।' 
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इतिहास करेगा मूल्यांकन!

खैर, डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल देश के प्रधानमंत्री रहे हैं तो निश्चित ही इस कालखंड का मूल्यांकन जब-जब होगा तब-तब किसी न किसी रूप में इतिहास उनका उल्लेख करेगा। 

लेकिन जब-जब डॉ सिंह को याद किया जाएगा तो यह इतिहास सिर्फ 10 साल का नहीं बल्कि 40 साल के कालखंड का होगा। आजाद भारत के इतिहास में  मनमोहन सिंह उन चंद लोगों में से एक हैं, जिन्हें इतिहास ने सर्वाधिक अवसर दिया है। 

जब भी मनमोहन सिंह मोदी सरकार की आलोचना में बोलते हैं तो उनके बयानों का लब्बो-लुआब जीडीपी की चिंता, ग्रामीण सहकारी बैंकों में होने वाली समस्याओं, गरीबों के आर्थिक हितों आदि की होती है।

विपक्ष में आने के बाद वे कभी-कभी उपायों की तरफ भी सरकार का ध्यान खींचते हैं। मनमोहन सिंह आज उस मुकाम पर हैं कि वो कुछ भी बोलें उसकी गंभीरता कम नहीं होती।  

इंदिरा गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री

मुख्य आर्थिक सलाहकार

1957 में अर्थशास्त्र में परास्नातक की डिग्री लेने वाले डॉ मनमोहन सिंह ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के नुफिल्ड कॉलेज से डी.फिल हैं। 

अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में करने वाले  मनमोहन सिंह 1971 में वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार की भूमिका में आए।

महज एक साल में उनको वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार का दायित्व मिल गया। तब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी। 

देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी। जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे तब प्रणब मुखर्जी मंत्री बन चुके थे। यही वह दौर था जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो रहा था।

इंदिरा के विश्वासपात्र


अपने सार्वजनिक जीवन में डॉ मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय के सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रहे। उनके दायित्वों से यह अंदाजा लगता है आर्थिक मामलों में डॉ मनमोहन सिंह इंदिरा गांधी और कांग्रेस के अति विश्वासपात्र अथवा वफादार लोगों में से थे।

1991-96 में  मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री बने। इसके बाद 2004 में यूपीए -1 में प्रधानमंत्री बने और 10 साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे।

मनमोहन की नाकामी


यहाँ परिचय देने की वजह यह है कि एक व्यक्ति जो देश की आर्थिक व्यवस्था में चार दशकों तक निर्णायक एवं शीर्ष पदों पर रहा है, उसे भी 2016 में आकर एक ढाई साल पहले निर्वाचित हुए प्रधानमंत्री से 'आर्थिक अव्यवस्था' की शिकायत क्यों करनी पड़ी?

जब मनमोहन सिंह ग्रामीण एवं सहकारी बैंकों की स्थिति पर शिकायत करते हैं तो लगता है मानो खुद की चार दशकों की विफलता की शिकायत कर रहे हों।

चार दशक पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दौरान सरकार में सलाहकार रहने वाले मनमोहन सिंह को खुद यह बताना चाहिए कि आखिर वो किन नीतियों के आधार पर तत्कालीन सरकार को सलाह दे रहे थे अथवा खुद काम कर रहे थे कि वर्ष 2014 तक इस देश के 42 फ़ीसद लोगों के बैंक खाते तक नहीं खुल पाए थे? 

राष्ट्रीयकरण के दौरान ही सरकार में आर्थिक सलाहकार के तौर पर जुड़ने वाले डॉ. सिंह की विफलता की कहानी यही है कि चार दशक बाद 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बावजूद वे इस देश की आम जनता को मुख्यधारा की बैंकिंग अर्थव्यवस्था से जोड़ पाने में नाकाम रहे।

मनमोहन सिंह की चिंताओं में जीडीपी की चिंताएं भी होती हैं। इस सवाल पर वे यह बताना क्यों नहीं मुनासिब समझते कि उनके 10 साल के कार्यकाल में जीडीपी लगातार किन वजहों से अस्थिर रही थी?

बेहतर विकास दर


अटल विहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान देश की जीडीपी विकास दर लगभग 8 फ़ीसद तक पहुँच गई थी। अटल विहारी वाजपेयी की सरकार के बाद मनमोहन सिंह की तत्कालीन गठित सरकार को विकास दर विरासत से ठीक-ठाक मिली, लेकिन डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 10 साल विकास दर में अस्थिरता की स्थिति कई बार आई।

कई बार आर्थिक विकास दर में उतार-चढ़ाव दर्ज हुए।  2014 में एक बार फिर बीजेपी-नीत सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी तो तो उस दौरान आर्थिक विकास दर निचले स्तर पर थी। आखिर ऐसा क्यों हुआ? 

कमज़ोर प्रधानमंत्री

डॉ मनमोहन सिंह का मूल्यांकन एक अर्थशास्त्री के तौर पर करें अथवा एक प्रशासक प्रधानमंत्री के तौर पर, दोनों ही मोर्चों पर जब-जब डॉ मनमोहन सिंह को ताक़तवर पद मिला और वे असरदार साबित नहीं हुए।

बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने एक भ्रष्ट और लूटतंत्र वाली सरकार दी, जिसके मंत्रियों को लूट एवं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल तक जाना पड़ा।

डॉ मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रशासक इस तर्क से भी कहा जा सकता है कि कोयला मंत्रालय उनके अंतर्गत रहते हुए उसी विभाग में हुए घोटालों को रोक पाने में वे बुरी तरह नाकाम साबित हुए थे। 

भारत में उदारीकरण के जनक के रूप में जिस ढंग से मनमोहन सिंह की छवि को कांग्रेस पेश करती है, वह महज एक छलावा है। कांग्रेस कभी उदारीकरण की हिमायती नहीं रही है। कांग्रेस की नीतियाँ समाजवादी रहीं हैं।

समाजवादी नीतियाँ


1991 में आंशिक उदारीकरण के रास्ते पर चलना समाजवादी नीतियों की असफलता के अंधकार से देश को निकालने की मजबूरी में उठाया कदम था। जब चार दशक से चलती आ रही आपकी नीतियाँ फेल हुईं तब कांग्रेस ने उदारीकरण को स्वीकार किया। 

इसकी तुलना में अगर भारतीय जनसंघ के प्रस्ताव और चुनाव घोषणापत्र पढ़ें तो साठ के दशक में ही जनसंघ ने कांग्रेस सरकारों को बार-बार उनकी ग़लत आर्थिक नीतियों के लिए सचेत किया था।

पंडित दीन दयाल उपाध्याय अनेक बार सार्वजनिक क्षेत्रों के विस्तार पर कांग्रेस की सरकारों की आलोचना करते रहे थे। 
उदारीकरण का सिंह के आर्थिक विज़न की नहीं, बल्कि देश में उत्पन्न विकट परिस्थितियों की देन थी। मनमोहन सिंह का मूल्यांकन जब इतिहास करेगा तो दो बातें निकल कर आएँगी। 

पहली बात कि चार दशक से ज्यादा एक ख़ास राजनीतिक पृष्ठिभूमि में लगातार महत्वपूर्ण एवं निर्णायक पदों पर रहने वाले भारत के चंद लोगों में से एक डॉ मनमोहन सिंह हैं।

दूसरी बात यह निकल कर आएगी कि डॉ मनमोहन सिंह अवसरों के नायक रहे हैं। इनकी न अपनी कोई नीति रही है, न निर्णय रहा है और न ही वे किसी बदलाव के मौलिक निर्माता रहे हैं।