Karnataka Fake News Bill 2025: कर्नाटक सरकार के फेक न्यूज विधेयक, 2025 का मकसद तो फर्जी खबरों पर लगाम लगाना है। लेकिन यह प्रेस की आजादी और पत्रकारों के खिलाफ दुरुपयोग के बारे में चिंताएं पैदा कर रहा है।
कर्नाटक सरकार एक नया बिल लेकर आई है जिसका नाम है मिसइनफॉर्मेशन एंड फेक न्यूज विधेयक, 2025। इस बिल को लेकर यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या इस बिल का मक़सद सिर्फ फेक न्यूज़ को रोकना या फेक न्यूज़ फैलाने वाले को सज़ा देना है। फिर इसके पीछे एजेंडा पत्रकारों, ख़ासकर डिजिटल मीडिया के पत्रकारों पर लगाम लगाने का है? इस बिल में कई ऐसी बातें हैं, जिनसे सरकार की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं।
इस बिल का घोषित उद्देश्य तो सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों और भ्रामक जानकारी को रोकना है। यानी, अगर कोई व्हाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब या फेसबुक पर फेक न्यूज फैलाता है, तो उसे सजा हो सकती है। और सजा भी कोई छोटी-मोटी नहीं – 7 साल तक की जेल और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना!
इस बिल के मुताबिक फर्जी खबरों की परिभाषा कुछ इस प्रकार है । इसमें कहा गया है कि जो भी कंटेंट “एंटी-फेमिनिस्ट” है, “अश्लील” है, “सनातन धर्म के प्रतीकों या विश्वासों का अपमान” करता है, या “अंधविश्वास को बढ़ावा” देता है, वो फर्जी खबर मानी जाएगी। लेकिन, यहां परेशानी ये है कि इन शब्दों को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया। यानी, क्या फर्जी है, क्या नहीं, ये तय करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है।
इस बिल को लागू करने के लिए सरकार एक खास कमेटी बनाएगी, जिसका नाम होगा सोशल मीडिया पर फेक न्यूज नियामक प्राधिकरण। इसकी अगुवाई कन्नड़ और संस्कृति मंत्री करेंगे। इसमें विधानसभा और विधान परिषद के लोग, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के प्रतिनिधि, और एक IAS अधिकारी होंगे। यानी कुल मिलाकर कमेटी का पूरा नियंत्रण राज्य सरकार के हाथ में ही होगा।
कमेटी ही किसी ख़बर को जाँच कर तय करेगी कि क्या फ़ेक है और क्या नहीं। ये कमेटी हर महीने कम से कम दो बार मीटिंग करेगी और फर्जी खबरों पर पूरी तरह बैन लगाने की कोशिश करेगी। इतना ही नहीं बल्कि फेक न्यूज से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए खास कोर्ट बनाए जाएंगे, और इनमें से कुछ मामले गैर-जमानती भी हो सकते हैं। और सबसे ज़रूरी बात तो ये है कि अगर कोई फर्जी खबर सार्वजनिक व्यवस्था या चुनाव को प्रभावित करती है, तो फर्ज़ी खबर फैलाने वाले के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाएगी ।
सवाल यही है कि क्या इसे उन पत्रकारों के ख़िलाफ़ नहीं इस्तेमाल किया जाएगा, जिनकी रिपोर्टें सत्ताधारी पार्टी के लिए परेशानी पैदा करती हों? यह ख़तरा हमेशा बना रहेगा कि कोई डिजिटल पत्रकार अगर किसी सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी पर सवाल उठाने वाली ख़बर करे और सरकार उस ख़बर को सच मानने से इनकार कर दे और पत्रकार के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर दे।
कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक स्कूल में मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी को एक पत्रकार ने उजागर किया था और सरकार ने उलटे उसी पत्रकार के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर लिया था। ऐसी घटनाएँ कुछ और जगहों पर भी हुईं। इसी तरह चुनाव के दौरान भी इस क़ानून का दुरुपयोग विपक्ष को परेशान करने के लिए किया जा सकता है।
सवाल यह है कि जब केन्द्र सरकार के इंफ़ार्मेशन टेक्नॉलॉजी (इंटरमीडिरी गाइडलाइन्स ऐंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) 2021 के तहत डिजिटल मीडिया पर कंटेंट के सेल्फ़ रेगुलेशन यानी स्व-नियमन का प्रावधान है, जिसमें डिजिटल मीडिया के ख़िलाफ़ शिकायतों का समाधान किया जा सकता है, तो कर्नाटक सरकार इसी क़ानून को मॉडल मान कर क्यों नहीं चल सकती?
कर्नाटक सरकार के इस बिल को लेकर कई लोग नाराज़ हैं और डरे हुए हैं। क्यों? क्योंकि इसमें कुछ ऐसी बातें हैं, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खतरे में डाल सकती हैं। जैसे कि हमने आपको बताया कि, “एंटी-फेमिनिस्ट” या “अश्लील” जैसे शब्दों की साफ परिभाषा नहीं है। तो, अगर कोई न्यूज़ आर्टिकल या पोस्ट लिखता है, और सरकार को वो पसंद नहीं आता, तो उसे फर्जी बता कर सजा दी जा सकती है।
कई लोग कह रहे हैं कि इस कानून का इस्तेमाल असहमति की आवाज़ को दबाने के लिए हो सकता है। मान लीजिए, कोई पत्रकार सरकार के खिलाफ लिखता है, और उसे फर्जी बता कर जेल में डाल दिया जाता है। अगर बाद में वो सही साबित होता है, तब भी नुकसान तो हो चुका होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे कानूनों को लागू करना मुश्किल है, क्योंकि लोग VPN जैसे टूल्स का इस्तेमाल करके सोशल मीडिया तक पहुंच बना सकते हैं।
कुछ समूहों ने तो इसे विचारों को दबाने की साजिश तक कहा है।यानी, एक तरफ सरकार कह रही है कि ये बिल समाज के लिए अच्छा है, लेकिन दूसरी तरफ लोग इसे अपनी आज़ादी पर हमला मान रहे हैं।
अब थोड़ा कानूनी इतिहास भी देख लेते हैं । भारत में पहले भी ऐसे कानूनों पर सवाल उठ चुके हैं। 2013 में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66ए को रद्द कर दिया था, क्योंकि उसमें बहुत-सी बातों को स्पष्ट तरीक़े से परिभाषित नहीं किया गया था।
यही नहीं, पिछले साल बॉम्बे हाई कोर्ट के ने केन्द्र सरकार द्वारा बनाई गई पीआईबी फ़ैक्ट चेक यूनिट को रद्द कर दिया था। केन्द्र सरकार ने फ़र्ज़ी ख़बरों की जाँच कर उन्हें सोशल मीडिया से हटाने के लिए इस इकाई का गठन किया था, जिसे हाईकोर्ट ने पूरी तरह असंवैधानिक माना। ऐसे में इस बिल को लेकर भी यही सवाल है – क्या ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ है? क्या ये कानून कोर्ट में टिक पाएगा?
हालांकि कर्नाटक सरकार ने कहा है कि वो इस बिल को लागू करने से पहले पब्लिक कंसल्टेशन करेगी। यानी, आम लोगों की राय ली जाएगी। डिजिटल अधिकार समूहों ने सरकार से मांग की है कि इस बिल को और पारदर्शी बनाया जाए, और इसमें साफ नियम जोड़े जाएं। कई लोग कह रहे हैं कि सरकार को इस बिल पर दोबारा सोचना चाहिए, ताकि ये ना तो लोगों की आज़ादी छीने और ना ही इसका गलत इस्तेमाल हो।
एक तरफ फर्जी खबरों को रोकने की ज़रूरत है, लेकिन दूसरी तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल भी उतना ही बड़ा है। तो आप क्या सोचते हैं — क्या ये बिल हमें फेक न्यूज से बचाएगा या हमारी आवाज़ को दबाएगा?