प्रेमचंद की कहानी सांसारिक यथार्थवाद और सामाजिक नैतिकता की इस अतार्किक और रहस्यवादी या आप उसे धार्मिक कह लें, समझ के बीच चलनेवाली एक सतत टकराहट को दर्ज करती रहती है। सांसारिक यथार्थवाद अधिक निष्ठुर, अधिक अमानवीय हो सकता है। आश्चर्य नहीं कि बीसवीं सदी में जो जनसंहारक नेता या दल हुए वे प्रायः शुष्क यथार्थवादी थे, बल्कि नास्तिक भी।
कहानी या आख्यायिका आधुनिक साहित्यिक रूप है। उसकी प्रेरणा पश्चिम से मिली है। यह स्वीकार करने में प्रेमचंद को कोई हिचक नहीं है। लेकिन जो प्रेमचंद ऐसी कहानी लिखने बैठते हैं मानो उन्होंने पुराण, दास्तान, मसनवी सबकुछ घोंट रखा है।
इन सबका वजूद जादू, चमत्कार, रहस्य के बिना नहीं और ‘आधुनिक’ चेतना में इनके लिए कोई जगह नहीं। पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, कर्म फल आदि तार्किकता के विरुद्ध हैं। प्रत्येक कार्य का एक कारण इसी संसार में मौजूद है और सजा-जजा भी सांसारिक नियमों से ही तय होगी।
सामाजिक मर्यादाएँ
आस्था, विश्वास या अंधविश्वास का संबंध कतिपय सामाजिक मान्यताओं और मर्यादाओं से है। सामाजिक मर्यादाएँ अन्याय को बरकरार रखती हैं, लेकिन वे एक विभाजन रेखा भी खींचती हैं, शुभ और अशुभ के बीच, करणीय और अकरणीय के बीच जो न्याय के उस सहजबोध से जुड़े हैं जिन्हें समाज मानता है, जाति, वर्ग और सारे विभाजनों के बावजूद। यह जो साझेदारी है, बावजूद सारे विभाजनों के वह एक समाज का और एक साझा सामाजिकता का निर्माण करती है।
वह एक सामाजिक नैतिकता का सृजन भी करती है या अधिक सही है कहना सामाजिक नैतिकता की न्यूनतम रेखा का, जिसके नीचे जाने पर उस समाज का शीराजा, जिस रूप में भी अभी वह ढक्करपेंच ही सही चल रहा है, बिखर जाएगा। वैसे कहा जा सकता है कि इस रूप में इस समाज के घिसटने से बेहतर है इसका टूट जाना या ध्वस्त हो जाना।
प्रेमचंद की कहानी सांसारिक यथार्थवाद और सामाजिक नैतिकता की इस अतार्किक और रहस्यवादी या आप उसे धार्मिक कह लें, समझ के बीच चलनेवाली एक सतत टकराहट को दर्ज करती रहती है।
सांसारिक यथार्थवाद अधिक निष्ठुर, अधिक अमानवीय हो सकता है। आश्चर्य नहीं कि बीसवीं सदी में जो जनसंहारक नेता या दल हुए वे प्रायः शुष्क यथार्थवादी थे, बल्कि नास्तिक भी। नैतिकता भी एक प्रकार की भावुकता मान ली गई और उसे सापेक्षिकता से बाँध दिया गया। वह जाति, समुदाय, वर्ग सापेक्ष है। वह धरातल ही नहीं है जिसपर इन अंतरों के साथ और उनके बावजूद खड़ा रहा जा सके। उसकी बात करना भ्रममात्र पैदा करना है।
प्रेमचंद को हिंदी में आधुनिक कथा चेतना का प्रवर्तक माना जाता है। ऐसे कथाकार जिन्होंने जादू टोना, तिलस्म, ऐयारी और राजा रानी की कैद से कहानी को मुक्त किया।
लेकिन प्रेमचंद में ऐसी कहानियाँ हैं जो उन विश्वासों पर टिकी हैं, जिन्हें अंधविश्वास कहा जा सकता है। करती वे क्या हैं उनके सहारे, यह उन्हें सहानुभूतिपूर्वक पढ़ने पर मालूम हो ही जाता है।
‘बलिदान’ का चुनाव प्रेमचंद की प्रतिनिधि कहानियों के रूप में कोई नहीं करता रहा है। ग़रीब की हाय लेना क्यों महँगा है, यह पहली कहानी मुंशी रामसेवक और उनके परिवार की दुर्गति की कथा तो है ही, वह ग्रामीण और पारंपरिक हिंदू समाज का एक मनोवैज्ञानिक खाका भी है। वैसे तो यह बात कुल मिलाकर प्रेमचंद के कथा साहित्य के बारे में कही जा सकती है कि वह उनके समाज का मनोवैज्ञानिक मानचित्र है।
गाँव के सांस्कृतिक चरित्र में परिवर्तन ‘बलिदान’ कहानी किसान के ज़मीन से लगाव की कहानी कही जा सकती है। यह वह है, लेकिन उससे कहीं अधिक भी है। प्रेमचंद ने अपनी वाक् कला के सहारे मौजे बेला के सदस्यों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत में आ रही तब्दीली से गाँव के सांस्कृतिक चरित्र में परिवर्तन को नोट किया है:
‘मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो आंखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है।’
प्रेमचंद शायद ही अपने पात्रों की जाति भूलते हों। नाम के साथ जाति न आए तो आप उसके बारे में पूरा जान भी नहीं सकते। इस अंश में तीन अलग-अलग पात्र, तीन भिन्न जातीय परिवेश के। पहले दोनों की औक़ात बदलने का कारण राज्य से उनके रिश्ते की ख़ासियत में हैं हरखचंद्र के हरखू बन जाने के पीछे गाँव की अर्थव्यवस्था में बाहरी हस्तक्षेप है:
‘आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे मटियामेट कर दिया। धीरे-धीरे कारखाना टूट गया, ज़मीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है।’
‘...हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है, केवल दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।’
हैसियत लेकिन सिर्फ आर्थिक ताकत पर निर्भर नहीं। और किसी का बना बनाया व्यक्तित्व भी इतनी आसानी से नहीं टूटता। हरखू अभी भी पुरानी शान बनाए हुए हैं:
‘परन्तु उसके मुख पर अब भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इस पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। भले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं।’
प्रेमोक्तियों में एक: ‘भले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं।’
गाँव भी इतना निर्लज्ज नहीं कि उसे उसकी गद्दी से उतार दे।
‘लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।’
शिष्टाचार और संवेदना में फर्क
हरखू इस कार्तिक में ऐसा बीमार पड़ा कि उसने बचने की उम्मीद छोड़ दी। हर बार बीमार पड़ने पर बिना दवा ठीक हो जाता था, इस बार
‘...उसे दवा की ज़रूरत मालूम हुई। उसका लड़का गिरधारी कभी नीम की सीखे पिलाता, कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़। पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए।’
गाँव के रिश्ते हमदर्दी, चालाकी और उदासीनता के गारे से गढ़े जाते हैं,
गाँव के रिश्ते किस तरह के होते हैं? क्या सभी गाढ़े होते हैं या विरल? नैतिकता का जन्म किस प्रकार के रिश्ते से जुड़ा हुआ है? हाल सब पूछते हैं, दवा लाकर देने की जहमत कोई नहीं उठाता। उस पर प्रेमचंद फिर टिप्पणी करते हैं,
‘...रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना उसे दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से।’
शिष्टाचार और संवेदना में क्या फर्क है? संवेदना किसी से भी हर प्रकार का निवेश चाहती है। भावनात्मक, शारीरिक और आर्थिक। उसके बिना आपकी सहानुभूति मात्र शिष्टाचार है। या मिथ्याचार। वह भावनात्मक कोताही है या चतुराई।
ऐसा न था कि वह बच नहीं सकता था। हरखू के मनोजगत में किसे झाँकने की फुरसत है कि वह पता करे कि आखिर उसने क्यों देह छोड़ दी?
‘या तो उसे सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से प्रिय समझता था, अथवा जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी दशा दिनोदिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम के साथ निकाला! क्रियाकर्म बड़े हौसले से किया। कई गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया।’
भ्रामक(!) दर्दमंदी
जिस गिरधारी ने बाप का क्रियाकर्म करने में कसर न छोड़ी, उसने भी दवा की क्यों न सोची? उस वक्त किफायतशारी थी या सिर्फ नाजानकारी? गाँव भर ने, जो किसी का कुछ भी निजी नहीं रहने देता, हरखू को इस तरह क्यों मरने दिया? इसका उत्तर आगे है। बीच में फिर गाँव के भ्रामक(!) दर्दमंदी की सूचना:
‘बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न डफली बजी, न भंग की नालियाँ बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मरता। लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता। वह शहर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।’
लेकिन असल चीज़ है स्वार्थ और यह स्वार्थ ज़मीन के लोभ से आबद्ध है:
‘हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद-पाँस से लदी हुई मेंड-बाँध से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थीं। कोई साल-भर का लगान देने पर तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था।’
जिस गाँव ने हरखू का भोज अभी खाकर डकार भी नहीं ली है, उसे उसके बेटे गिरधारी की फिक्र नहीं। लेकिन लाला ओकारनाथ को है। है न ज़रा अजीब बात?
‘...ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे। उनका विचार था कि गिरधारी के बाप ने खेतों को बीस वर्ष तक जोता है, इसलिए गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे, तो खेत उसी को देने चाहिए।’
अस्तु, जब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और उससे पूछा - खेती के बारे में क्या कहते हो?
गिरधारी ने रोकर कहा - सरकार, इन्हीं खेतों ही का तो आसरा है, जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा।
यह सहानुभूति आखिर सूखा सूखी तो ज़िंदा नहीं रह सकती।
शोषण का सिलसिला
आगे ओंकारनाथ जो कहते हैं उसमें आपको ‘गोदान’ के राय साहब की आत्मस्वीकृति की ध्वनि मिलेगी। शोषण का सिलसिला है जो उसके बनाए रखने का तर्क भी है:
‘ओंकारनाथ चिढ़कर बोले - तुम समझते होगे कि हम ये रुपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंशी बजाते हैं। लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुजरती है, हम भी जानते हैं। कहीं यह चंदा, कहीं वह चंदा; कहीं यह नजर, कहीं वह नजर, कहीं यह इनाम, कहीं वह इनाम। इनके मारे कचूमर निकल जाता है। बड़े दिन में सैकड़ों रुपये डालियों में उड़ जाते हैं। जिसे डाली न दो, वही मुँह फुलाता है। जिन चीजों के लिए लड़के तरसकर रह जाते हैं, उन्हें बाहर से मँगवाकर डालियाँ सजाता हूँ। उस पर कभी कानूनगों आ गए, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया। सब मेरे मेहमान होते हैं। अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सबकी आँखों में काँटा बन जाऊँ। साल में हजार बारह सौ मोदी को इसी रसद-खुराक के मद में देने पड़ते हैं। यह सब कहाँ से आएँ ? बस, यही जी चाहता है कि छोड़कर चला जाऊँ। लेकिन हमें परमात्मा ने इसलिए बनाया है कि एक से रुपया सताकर लें और दूसरे को रो-रोकर दें, यही हमारा काम है। तुम्हारे साथ इतनी रियायत कर रहा हूँ। मगर तुम इतनी रियायत पर भी खुश नहीं होते तो हरि इच्छा। नज़राने में एक पैसे की भी रियायत न होगी। अगर एक हफ्ते के अंदर रुपए दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं तो नहीं। मैं कोई दूसरा प्रबंध कर दूँगा।’
खेत गिरधारी के हाथ से निकल जाते हैं। वे खेत जिनका ‘एक एक परमाणु’ उसके रक्त से सिंचा हुआ है। खेत आखिर क्यों ज़मीन का टुकड़ा भर नहीं हैं?
कल के कल्लू और आज के कालिकादीन ने खेत ले लिए। हरखू की विरासत यों स्वाहा हुई और उसका ज़मीन से विच्छेद उसकी हैसियत के पतन का कारण बना:
‘इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा ? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वार पर जाएँगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान को सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में धन न था, पर मान था। नाई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार ये सब उसका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ ? अब कौन उसकी बात पूछेगा ? कौन उसके द्वार आएगा ? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी।’
किसान के जीवन के वर्णन के लिए क्या इससे अधिक काव्यात्मक भाषा किसी और के पास होगी?
‘अब पहर रात रहे, कौन बैलों को नाँद में लगाएगा। वह दिन अब कहाँ, जब गीत गाकर हल चलाता था। चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज का ढेर सामने रखे हुए अपने को राजा समझता था। अब अनाज को टोकरे भर-भरकर कौन लाएगा ? अब खेती कहाँ ? बखार कहाँ ?’
‘इस प्रकार तीन मास बीत गए और आषाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटाएँ आयीं, पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे। बढ़ई हलों की मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहर जाता, अपने हलों को निकाल देखता, इसकी मुठिया टूट गई है, इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है। देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा हुआ बढ़ई के यहाँ गया और बोला - रज्जू, मेरे हल भी बिगड़े हुए हैं, चलो बना दो। रज्जू ने उसकी ओर करुण-भाव से देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारी को होश आ गया, नींद से चौंक पड़ा, ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आँखें भर आयीं। चुपचाप घर चला आया।
गाँव में चारों ओर हलचल मची हुई थी। कोई सन के बीज खोजता फिरता था, कोई जमींदार के चौपाल से धान के बीज लिये आता था, कहीं सलाह होती, किस खेत में क्या बोना चाहिए। गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था।’
शोषण में आपसी समझदारी
जैसे गाँववालों की निगाह उसके खेतों पर थी, वैसे ही उसके बैलों पर भी। जो ढह रहा है, उसे थूनी लगाकर, सहारा देकर वापस क्यों खड़ा करना, उसके आसपास की जमीन ही क्यों न खोद देना जिससे जो वह कल गिरता, आज ही गिर जाए:
गाँव की अर्थ व्यवस्था में आपसी समझदारी है। और वह है किसान के खिलाफ उनकी जिनके पास पैसा है, मुद्रा जिसने आदमियत सोख ली है और सबसे बलवान बनी हुई है।
अतार्किक भावलोक
बैलों की विदाई, गाय की विदाई, बिछुड़न के दृश्य न जाने कितनी बार प्रेमचंद ने देखे हैं। किसान का भावलोक इस रिश्ते को समझे बिना जाना नहीं जा सकता। उसमें एक गहरी अतार्किकता तो है ही:
‘गिरधारी ने अब तक बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह ! ये मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले, जिनके लिए पहर रात से उठकर छांटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिन्ता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा दिन-भर हरियाली उखाड़ा करता था, ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों के दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं।जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया। जैसे कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी दालान में पड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था !’
गिरधारी यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाता और लापता हो जाता है।
‘रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया। चारपाई पर पड़ा रहा। प्रात:काल सुभागी चिलम भरकर ले गयी, तो वह चारपाई पर न था। उसने समझा, कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा, तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँव के लोग जमा हो गए, चारों ओर खोज होने लगी, पर गिरधारी का पता न चला।’
जीवनदायी नियमों की खोज
और अब प्रेमचंद यथार्थ की परवाह नहीं करते। जिन तर्कों से यथार्थ टिका हुआ है, उनकी नहीं। वे उन गहरे नियमों की खोज करते हैं जो हमें इंसानों के तौर पर जिंदा रख सकते हैं:
गिरधारी की ज़मीन जाते ही उसके परिवार की सामाजिक हैसियत जाती रहती है भले ही आर्थिक हालत सुधर गई हो:
‘गिरधारी को गायब हुए छ: महीने बीत चुके हैं। उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्टे पर काम करता है और 20 रुपये महीना घर आता है। अब वह कमीज और अँगरेजी जूता पहनता है, घर में दोनों जून तरकारी पकती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है, लेकिन गाँव में उसका कुछ भी आदर नहीं। अब वह मजूर है। सुभागी अब पराये गाँव में आये कुत्ते की भाँति दबकती फिरती है। वह अब पंचायत में भी नहीं बैठती, वह अब मजदूर की माँ है।’
गिरधारी ने तो मर्यादा रखी, गाँव ने उसकी परवाह न की। उसका दंड गाँव के सारे मातबर लोगों को अगर दैवी शक्ति न देगी तो और कौन देगा?
यह अतार्किक है, अयथार्थ है लेकिन इससे बढ़कर यथार्थ और हो क्या सकता है?