जाति जनगणना को लेकर देशभर में चर्चा तेज है, लेकिन इसकी पहली और सबसे अहम परीक्षा बिहार में होने जा रही है। क्या बिहार इस सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की अगुवाई कर पाएगा? जानिए पूरी रिपोर्ट।
जाति जनगणना की घोषणा की पहली राजनीतिक परीक्षा इस साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार विधान सभा चुनावों में होगी। बिहार में यह मुद्दा लंबे समय से गर्म है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने 2023 में जाति सर्वेक्षण करा कर बाजी जीतने की पहली कोशिश की थी। इस सर्वेक्षण के आधार पर अत्यंत पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण बढ़ा कर नीतीश कुमार ने अपने अति पिछड़ा, अति दलित आधार को मज़बूत करने की कोशिश की। लेकिन ‘इंडिया’ गठबंधन के नेता राहुल गांधी के साथ-साथ आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने देश भर में जाति जनगणना कराने के मुद्दे पर बीजेपी और एनडीए को लगातार कठघरे में खड़ा रखा।
बीजेपी लंबे समय तक जाति जनगणना के ख़िला़फ थी और इसे टाल रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण ये माना जा रहा था कि बीजेपी के मुख्य समर्थक सवर्ण हिंदू नाराज़ हो जायेंगे। एनडीए में शामिल बिहार के ज़्यादातर सवर्ण नेता जाति आधारित जनगणना का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विरोध करते रहे हैं।
2023 के जाति सर्वेक्षण के मुताबिक़ बिहार में सवर्ण आबादी 15.52 प्रतिशत है। ओबीसी यानी पिछड़ों की अपेक्षाकृत समृद्ध जातियों की आबादी 27.13 प्रतिशत है। इसमें अकेले यादव 14.26 फ़ीसदी हैं। लेकिन अत्यंत पिछड़ी जातियों की आबादी 36 फ़ीसदी है। पिछड़े और अति पिछड़े मिलाकर 63 प्रतिशत से ज़्यादा हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में बीजेपी बहुत कोशिश के बाद भी यादव और अन्य समृद्ध पिछड़ी जातियों का समर्थन हासिल नहीं कर पायी। सवर्ण और अति पिछड़ों में पैठ के बूते पर बीजेपी इन राज्यों में अपनी बेहतर स्थिति ज़रूर बना पायी।
2021 से टल रही जनगणना 2027 में होने की उम्मीद है। जाहिर है कि बिहार विधानसभा चुनावों तक जनगणना की कोई रूपरेखा भी सामने आना मुश्किल है। लेकिन चुनाव पर इसका असर लगभग तय है। जाति जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग स्वाभाविक रूप से सामने आएगी। सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले के बाद आरक्षण 50 प्रतिशत पर सीमित है। आरक्षण सीमा बढ़ाने पर अनारक्षित सीटों की संख्या कम होगी, इसलिए सवर्ण इसके विरोध में खड़े हैं।
बीजेपी को अपने सवर्ण आधार को बचाने के लिए जबरदस्त कोशिश करनी होगी। जाति की संख्या के आधार पर आरक्षण देने पर यादव और समृद्ध जातियों को भी नुक़सान होगा। इसलिए आरजेडी जैसी पार्टियों को इनका पहले से ज़्यादा समर्थन मिल सकता है।
सबसे फ़ायदे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू रह सकती है जो लंबे समय से अति पिछड़ा और अति दलित की राजनीति कर रहे हैं।
नीतीश को अपनी पार्टी की गिरती शाख को बचाने का एक मौक़ा मिल सकता है। उनके सहारे बीजेपी भी ख़ुद को मज़बूत बना सकती है। लेकिन ये एक बड़ा सवाल बना ही रहेगा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहार जैसी शक्तिशाली जातियों को बीजेपी काबू में कैसे रखेगी। इन जातियों की नज़र प्रशांत किशोर पर भी है, जो सवर्ण हैं और शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को मुद्दा बना रहे हैं। कांग्रेस अपने युवा नेता कन्हैया कुमार के नेतृत्व में ‘रोजगार दो पलायन रोको’ अभियान चला रही है। सवर्ण जातियों को इस तरह के अभियान आकर्षित करते हैं क्योंकि इसका फायदा अभी सबसे ज़्यादा वो ही उठा सकते हैं।