आज की राजनीति में एक नया मुहावरा स्थापित हो रहा है कि राहुल गांधी का समय आ गया है! कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि समय तो मोदी का आया था, राहुल गांधी का तो दौर आएगा। बढ़ती लोकप्रियता के कारण गोदी मीडिया भी राहुल गांधी को दिखाने और उन पर बात करने के लिए मजबूर है। जिस सोशल मीडिया के दम पर नरेंद्र मोदी सत्ता में दाखिल हुए थे, उसी सोशल मीडिया पर राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को बुरी तरीके से मात दे दी है। हाँ, एक फर्क ज़रूर है कि नरेंद्र मोदी की इमेज पीआर कंपनियों के ज़रिए बनाई गई थी जबकि राहुल गांधी ने अपने जीवन संघर्ष, सच्चाई, गंभीरता और जन पक्षधरता से जननायक की छवि को हासिल किया है। आज राहुल गांधी का क्रेज हर समाज और वर्ग में है। बच्चों को दुलारते, उनसे बतियाते राहुल गांधी के वीडियो सोशल मीडिया पर धूम मचा रहे हैं। सहज और निश्छल वात्सल्य भाव से भरे हुए ये वीडियो देखकर लोग रोमांचित और भाव विह्वल हो जाते हैं। नौजवानों की शिक्षा और नौकरी की उम्मीदों का एकमात्र केंद्र राहुल गांधी बन चुके हैं। महिलाओं के लिए राहुल गांधी भाई और बेटे की तरह विश्वसनीय हैं। दलितों के लिए तो राहुल गांधी मसीहा बन ही चुके हैं।
आज अगर यह पूछा जाए कि समूचे देश में दलितों का नेता कौन है तो पत्रकारों से लेकर बुद्धिजीवियों और जनसामान्य की जुबान पर सिर्फ एक ही नाम होगा- राहुल गांधी! इसका सबसे बड़ा सबूत तो रायबरेली में लिंच कर दिया गया हरिओम वाल्मीकि है। 'बाबा वाले गुंडे' जब बेबस और लाचार हरिओम वाल्मीकि को बर्बरता से पीट रहे थे, उस वक्त उसके होठों पर ज़िंदा बचने की उम्मीद के शब्द थे- राहुल गांधी! उस दलित नौजवान के आखिरी साँसों पर दर्ज राहुल गांधी का नाम चीख-चीखकर कह रहा है कि आज दलितों के लिए न्याय की अंतिम आवाज़ राहुल गांधी हैं। जिस समय यह वीडियो आया, बाबा वालों की बर्बरता देखकर पूरा देश थर्रा उठा था, उस समय राहुल गांधी कोलंबिया में थे। उन्होंने तत्काल हरिओम के परिवारजनों से बात की। उन्हें सांत्वना दी और न्याय का भरोसा दिलाया। विदेश से वापस आते ही राहुल गांधी रायबरेली पहुंचे।
राहुल का हाशिए के लोगों से मिलना
राहुल गांधी के बारे में आज एक बात स्थापित हो चुकी है कि वे जो कहते हैं, वह करते हैं। चेतराम मोची से लेकर हरियाणा की किसान महिलाएं इसके उदाहरण हैं। कई बार तो राहुल गांधी अनकहे भी बहुत कुछ करते हैं। माउंटेन मैन दशरथ मांझी के बेटे भगीरथ मांझी को घर बनाकर देना हो या ऑपरेशन सिंदूर के दौरान अनाथ हुए कश्मीर के बच्चों को गोद लेना हो; ये ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने राहुल गांधी को मसीहा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। राहुल गांधी के इस किरदार के आगे नरेंद्र मोदी का तिलिस्म बिखरकर चकनाचूर हो गया है! प्रधानमंत्री मोदी के उलट आज देश को राहुल गांधी पर भरोसा है। राहुल गांधी ने कहे-अनकहे वादे को हमेशा निभाया। हरिओम वाल्मीकि के परिवार से भी उन्होंने कुछ वादे किए। हरिओम के बच्चों की पढ़ाई और उनकी माँ के इलाज का बंदोबस्त करने का वादा करके राहुल गांधी दिल्ली लौट गए। योगी सरकार के धमकाने के बावजूद हरिओम की बहिन ने कहा कि राहुल गांधी हमारे मसीहा हैं! दरअसल, राहुल गांधी सत्ता के लिए नहीं बल्कि सत्य की राजनीति कर रहे हैं। वे मन की नहीं, बल्कि मनुष्यता की राजनीति कर रहे हैं।
मैं पूर्व में भी कहता रहा हूँ कि राहुल गांधी आज की राजनीति के दलित हैं। सदियों से दलित समाज ब्राह्मणवादियों के बहिष्कार और प्रताड़ना का शिकार रहा है। अपमान, घृणा, और तिरस्कार ने उसके आत्मबल को छलनी कर दिया। वह वंचना की बेड़ियों में कैद हो गया। नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की सरकारों, आरएसएस के स्वयंसेवकों, हिंदुत्ववादी गिरोहों और भाजपा आईटी सेल के दो टकिया ट्विटर एजेंटों द्वारा राहुल गांधी का अपमान, तिरस्कार और चरित्र हनन किया गया। उनका मजाक बनाया गया और गालियां दी गईं। यहां तक कि उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका गांधी को भी अपमानित किया गया। यह राहुल गांधी को कमजोर करने की साजिश थी। लेकिन राहुल गांधी कभी टूटे नहीं।
दलितों की पीड़ा को, महिलाओं की वेदना को, आदिवासियों की बेबसी को और अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना के आगे राहुल गांधी को अपना अपमान छोटा महसूस हुआ।
इस दरमियान राहुल गांधी डॉ. आंबेडकर, ज्योतिबा फुले और बुद्ध को पढ़ ही नहीं रहे थे, उनको समझ भी रहे थे। हिंदुत्ववादियों ने राहुल गांधी की छवि को हिंदू विरोधी बनाने की कोशिश की, लेकिन राहुल गांधी विचलित नहीं हुए। राहुल गांधी ने देश की बहुजन परंपरा के संघर्ष के इतिहास से जो हासिल किया उसे अपनी ताक़त बनाया। बुद्ध के विवेक और करुणा, कबीर की अक्खड़ता और फटकार, ज्योतिबा फुले की तार्किकता और संवेदनशीलता तथा बाबासाहेब आंबेडकर के चेतना और संघर्ष ने राहुल गांधी को उस दानवी संघी सत्ता के सामने लड़ने का साहस दिया। इसका नतीजा है कि निर्भय और निशंक होकर राहुल गांधी देश की बहुजन बौद्धिक विरासत को संजोते और संवारते हुए दलितों वंचितों की लड़ाई लड़ रहे हैं।
बीजेपी-आरएसएस और दलित
90 के दशक में मान्यवर कांशीराम ने उत्तर भारत में दलित केंद्रित बहुजन राजनीति को खड़ा किया। दलितों में एक सामूहिक राजनीतिक चेतना का उभार हुआ। परिणामस्वरूप, मायावती देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। भाजपा के राजनीतिक उभार के बाद दलित राजनीति कमजोर हुई। दरअसल, भाजपा और आरएसएस की हिंदुत्ववादी राजनीति नव ब्राह्मणवाद पर आधारित है। दलितों को गुलाम बनाकर रखने वाली मनुवादी प्रवृति फिर से जीवित हो उठी। ब्राह्मणवादी सामंती ताकतों को राजनीतिक संरक्षण मिलने लगा। परिणामस्वरूप, सामाजिक स्तर पर दलितों के खिलाफ होने वाला अन्याय और अत्याचार बढ़ गया। हिंदुत्ववादी सत्ता ने संविधान में प्रदत्त दलितों के अधिकारों को बेमानी बना दिया। 2024 के लोकसभा चुनाव में तो उन्होंने संविधान मिटाने का ऐलान ही कर दिया। लेकिन राहुल गांधी ने गांधी, नेहरू और आंबेडकर की विरासत को आगे बढ़ाते हुए संविधान की रक्षा का संकल्प लिया। राहुल गांधी ने हाथ में संविधान लेकर जब हिंदुत्ववादी सत्ता को चुनौती दी तो समूचा दलित समाज उनके साथ खड़ा हो गया। नतीजे में, हिंदुत्ववादी सत्ता पराजित हुई। हालाँकि, नरेंद्र मोदी अपनी सरकार बनाने में कामयाब हो गए।
मान्यवर कांशीराम के 2006 में दिवंगत होने और मायावती के वैचारिक विचलन के बाद आरएसएस ने दलितों की सामूहिक चेतना को जातिगत चेतना में बदल दिया। 2007 में मायावती को मिले पूर्ण बहुमत का सारा श्रेय ब्राह्मण समर्थन को दे दिया गया। बसपा सरकार के नीति निर्णयों में आरएसएस के एजेंट ब्राह्मण नेताओं का हस्तक्षेप शुरू हो गया। ब्राह्मण सलाहकारों ने मायावती को केवल जाटव समाज की नेता में बदल दिया। इस प्रकार आरएसएस ने दलितों की सामूहिक चेतना को जातियों में विभाजित कर दिया। दलित राजनीति विखंडित हो गई। दलितों की विभिन्न जातियों के नेताओं को खड़ा करके बीजेपी ने उनका राजनीतिक इस्तेमाल किया। ये नेता महज मुखौटा साबित हुए। उनमें कभी दलित उत्पीड़न के ख़िलाफ़ खड़े होने का साहस नहीं पैदा हुआ। जातियों के नेता खेत में लगे बिजूका बन गए। हालाँकि बिजूका भी जानवरों को डराने का काम करता है। लेकिन ये नेता तो ऐसे बिजूका साबित हुए जो खेत की फसल खुद ही चर गए। अपने समाज के अधिकारों की हत्या करने का इनाम इन्हें व्यक्तिगत लाभ के रूप में मिलता रहा।
राहुल और दलित राजनीति
आरएसएस अपने षड्यंत्र में कामयाब हुआ। दलित राजनीति में आज कोई पासवान नेता है तो कोई जाटव नेता, कोई महार नेता है तो कोई मुसहर नेता, कोई कोरी नेता है तो कोई खटीक, वाल्मीकि नेता। लेकिन कोई दलित नेता नहीं है। जातियों के ऐसे संगठन बन गए हैं, जो सिर्फ अपनी जाति के मुद्दों पर ही मुखर होते हैं। आरएसएस और बीजेपी ने इन संगठनों का भी फायदा उठाया। लेकिन इसी दौर में राहुल गांधी दलित उत्पीड़न और अत्याचार के खिलाफ मुखर हुए। ज़रूरत होने पर वे पीड़ित परिवार के घर भी पहुँचते हैं। राहुल गांधी आज पूरी मुखरता के साथ दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े हैं। पूरी स्पष्टता के साथ वे कहते हैं कि ये लड़ाई सिर्फ राजनीतिक नहीं है बल्कि वैचारिक है। मनुस्मृति को मानने वालों के ख़िलाफ़ हम संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
आरक्षण, शिक्षा और सरकारी नौकरियों जैसे मुद्दों की तो बात राहुल गांधी कर ही रहे हैं, अलबत्ता सबसे बड़ी बात वे खुलकर मनुस्मृति और मनुवादी मानसिकता पर हमले कर रहे हैं। याद कीजिए ये वही भाषा है जिसे कभी मान्यवर कांशीराम बोला करते थे। पूरी बौद्धिकता और संवेदनशीलता के साथ राहुल गांधी आज दलितों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। इसके लिए वे सवर्ण संघियों के निशाने पर तो हैं ही, अपनी पार्टी के भीतर भी उन्हें सामंती सवर्णों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ रहा है। 19वीं शताब्दी में अमेरिका में अश्वेतों के मानवाधिकारों के लिए जो लड़ाई अब्राहम लिंकन ने लड़ी थी, वही लड़ाई आज राहुल गांधी दलितों के संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।