लिव इन रिलेशन पर पिछले सप्ताह पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का फ़ैसला कई मायनों में विचार करने योग्य है। जस्टिस मदान ने एक घर से कथित तौर पर भागे हुए जोड़े को सुरक्षा प्रदान करने से इनकार करते हुए लिव इन रिलेशनशिप को सामाजिक और नैतिक रूप से ग़लत कहा है। हालाँकि एक दूसरी बेंच ने सुरक्षा देने का आदेश दिया है और यह भी कहा है कि दो वयस्क अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जी सकते हैं। लेकिन इससे लिव इन रिलेशनशिप पर बहस को नई दिशा ज़रूर मिली है।

सहजीवन संबंध अविवाहित रहकर जीवन जीने की चाह रखने वाली औरतों और पुरुषों के लिए जीवन जीने का एक बेहतर विकल्प है। आजकल बहुत काबिल और सफल महिलाएं एक स्तरीय जिंदगी बिना किसी दबाव के जीना पसंद कर रही हैं। उनके लिए सहजीवन अच्छा विकल्प हो सकता है।
हाईकोर्ट के फ़ैसले के पहले सुप्रीम कोर्ट लिव इन रिलेशनशिप को कानूनी ठहरा चुका है। संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अविवाहित रहते हुए साथ रहने को जीवन जीने की स्वतंत्रता से जोड़ा। जाहिर तौर पर भारत जैसे आधुनिक होते समाज के लिए कानून और संवैधानिक संस्थाओं की लोगों के जीवन के संरक्षण के लिए इस तरह की टिप्पणियां मौजूँ हैं।
कानूनी तौर पर लिव इन रिलेशनशिप पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी व्यक्ति के निजी जीवन और उसके अधिकारों को संरक्षण की गारंटी सुनिश्चित करता है। लेकिन पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का पहले वाला फ़ैसला निश्चित तौर पर हैरानी पैदा करता है। ऐसे में पूछा जा सकता है कि क्या अब कोर्ट के लिए जीवन और निजी अधिकारों की सुरक्षा के कोई मायने नहीं है?
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।