जगद्गुरु ट्रम्प ने भारत-पाक को जो शांति का तोहफ़ा दिया है उसे सजा कर तो क़तई नहीं रखा जा सकता। यह तो ‘जीत गए ट्रम्प, हार गए हम’ जैसा कुछ है। अभी भारत-पाक ने बाँहें ही चढ़ाई थीं कि कथित महाबली ने दोनों को कॉलर पकड़ कर अपने पीछे विनत खड़ा कर दिया। एक रणपिपासु देश को दोनों शरणागत देशों ने, मसीहाई नवाज़ दी। अमेरिका जो देशों को लड़वाता, ख़ुद लड़ता और भागता फिरता है, उसे शांति के पुरोधा का मुखौटा पहना दिया गया। वह कोशिश करके भी ग़ज़ा और यूक्रेन में लड़ाई नहीं रुकवा पाया। ट्रेड वार के उसके प्रहार भी भोथरे ही साबित हुए, और अब चीन ने ट्रेड रौब की उसकी रही-सही रंगत उतार कर रख दी है। दुनिया को एक साथ एक तमाशा, प्रहसन और ट्रेजेडी बना दिया गया है। रूस ने चीन सहित कई राष्ट्राध्यक्षों के साथ उस दूसरे विश्वयुद्ध का जश्न मनाया जिसमें लाखों मारे गए थे, फिर भी यह नाज़ी-फ़ासी और हिटलरवाद से मुक्ति का संग्राम था। विडम्बना यह है कि जश्न मना रहा कोई भी राजनेता उस ऐतिहासिक चमकती विरासत का वारिस नहीं है, कम से कम बड़े माने जाने वाले तो कदापि नहीं… वे सब तो ख़ुद बेरहम तानाशाह हैं।

यह अक्सर लगता है कि ये तमाम विजय-दिवस घाव कुरेदने, उन पर नमक छिड़कने का काम ज़्यादा करते हैं और संबंधों की बहाली में बाधक बनते हैं। ये गर्वीली यादें कटु यादों की ही याद दिलाती हैं। लेकिन युद्ध भी अब एक शानदार नज़ारा है। दोनों देशों की जनता को युद्ध के लिए मदमस्त कर दिया गया था, पारा बेहद पार था, जनता दूसरे देश का स्वाहा देखने के लिए बेताब थी, पढ़े-लिखे प्रबुद्ध सब जोश में अधीर थे, मीडिया युद्धोन्माद में पागल हो चुका था। सबने अपने को सरकार में विलीन कर दिया था। सरकार ही देश थी, एवमेव और महाकाय। दूसरे पर आज़माया जा रहा विध्वंस दरअसल अपनी ताक़त का अपनी जनता के लिए प्रदर्शन था।