एक बहस छिड़ गई है कि क्या आरएसएस की सामाजिक-राजनीतिक रणनीति भारत के विकास में बाधा बनी और चीन से पीछे छूटने का कारण बनी। जानिए इस विश्लेषण में तर्क, आलोचनाएं और संभावित सच्चाई।
साल 2021 में जब चीन ने अपने “कृत्रिम सूर्य” यानी EAST (Experimental Advanced Superconducting Tokamak) का सफल परीक्षण करते हुए हुए उसे 160 मिलियन डिग्री सेल्सियस तक पहुँचाया तो भारत के वैज्ञानिक संस्थानों से कुछ अलग तरह की चौंकाने वाली ख़बरें आ रही थीं। एक IIT के निदेशक गोमूत्र के औषधीय गुणों पर भाषण दे रहे थे, बीएचयू का एक प्रोफेसर शरीर पर गोबर लगाकर कोरोना से बचने का दावा कर रहा था, और बड़े सरकारी वैज्ञानिक मंचों पर 'विमान विद्या' की वैदिक उत्पत्ति’ पर गंभीर बहसें चल रही थीं।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान चीन ने जिस तरह से तकनीकी और सैन्य सहायता के ज़रिए पाकिस्तान की मदद की है, उससे भारत का ख़फ़ा होना स्वाभाविक है। जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ‘छोटी आँख वाले’ गणेश बना कर बेचने वाले (चीन) के सामान के बहिष्कार की अपील कर रहे हैं लेकिन ज़्यादा महत्वपूर्ण यह सोचना है कि ‘छोटी आँख वालों’ ने इतनी बड़ी सफलता हासिल कैसे कर ली कि अमेरिका को चुनौती देते हुए चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। अंतरिक्ष से लेकर ज़मीन तक उसकी तकनीकी बढ़त चौंकाने वाली है। उसके सामान से भारत ही नहीं, दुनिया के बाज़ार पट गये हैं और 'कम गुणवत्ता’ वाली चीज़ों को ‘चीनी माल’ कहने का मज़ाक़ अब ख़ुद मज़ाक़ साबित हो रहा है।
चीन कभी अफ़ीमचियों का देश था जिसे औपनिवेशिक सत्ताओं ने बुरी तरह लूटा-खसोटा था। भारत और चीन की दुनिया लगभग एक साथ ही बदली। भारत को 1947 में आज़ादी मिली जबकि चीन में 1948 में क्रांति हुई। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत ने अहिंसक क्रांति के ज़रिए बहुदलीय व्यवस्था वाला एक लोकतांत्रिक और सेक्युलर गणराज्य बनाया तो चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में एकदलीय कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। चीन को दुनिया ने तानाशाही का स्वरूप माना जबकि विविधिताओं से भरे समाज को लोकतंत्र और सेक्युलरिज़्म के रास्ते पर ले जाने की वजह से भारतीय नेतृत्व की सराहना की। भारत की नैतिक आभा के सामने चीन कहीं नहीं टिकता था। लोकतंत्र की वजह से भारत की सरकारें जवाबदेह थीं जबकि चीन में सत्ता को चुनौती देने वाले विपक्ष की कोई गुंजाइश नहीं थी। फिर भी 1980 तक आर्थिक मोर्चे पर दोनों देश लगभग बराबर थे। दोनों की जीडीपी दो सौ अरब डॉलर के आसपास आँकी जाती थी।
फिर ऐसा क्या हुआ कि भारत ज्ञान, विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में पिछड़ता गया। इसे समझना हो तो बीते चार दशक की राजनीति का निर्मम विश्लेषण ज़रूरी है। और यह विश्लेषण बताता है कि भारत के पिछड़ने के पीछे वही ताक़त है जिसके लिए भारत की आज़ादी की लड़ाई भी कोई अर्थ नहीं रखती थी। वह शक्ति थी आरएसएस या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसके लिए लोकतंत्र, सेक्युलरिज़्म, समाजवाद आदि आधुनिक भारत के बुनियादी संकल्प ‘पराये’ विचार थे। उसे अतीत का ‘गौरवशाली’ भारत चाहिए था जिसके केंद्र में चक्रवर्ती राजा जैसा अधिनायक हो, धर्म-सभा का स्थान लोकसभा से ऊपर हो और राज्यों के अधिकार यानी संघीय ढाँचे की जगह न हो। इसके साथ ही समाज वर्णव्यवस्था के आधार पर संचालित हो। ये कोई कपोल-कल्पित बात नहीं हैं, आरएसएस की वैचारिकी को ‘एकात्म मानववाद’ का कथित दार्शनिक आधार देने वाले दीनदयाल उपाध्याय ने इन पर विस्तार से लिखा है।
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद राजनीतिक अछूत बन चुके आरएसएस के राजनीतिक फ़्रंट जनसंघ को ग़ैर-कांग्रेसवाद की छतरी में जगह मिली। इसके बाद सांगठनिक अनुशासन और चतुराई के बल पर उसने कांग्रेस को हराने के लिए शैतान से भी हाथ मिलाने को आतुर समाजवादियों के प्रभाव और नेताओं को हज़म करके चुनाव-दर चुनाव अपनी शक्ति बढ़ायी।
1977 में जनता पार्टी में विलय भी एक रणनीति के तहत हुआ था जो 1980 में अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के गठन के साथ स्पष्ट हो गयी। लेकिन 1984 में बीजेपी दो सीटों पर सिमट गयी। इसके बाद उसने धर्म और राजनीति को अलग रखने की राष्ट्रीय सहमति को तोड़ दिया और राममंदिर आंदोलन के ज़रिए हिंदू गोलबंदी को राजनीतिक पूँजी बना ली। नतीजा ये हुआ कि 2014 में बीजेपी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में क़ामयाब हुई और 11 साल से आरएसएस के प्रचारक रहे नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी सँभाल रहे हैं।
लेकिन आरएसएस की सत्ता में बढ़ती पकड़ के साथ भारत में अवैज्ञानिकता और अंधविश्वास का बोलबाला भी बढ़ने लगा जो अब चरम पर है। अस्सी के दशक में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कंप्यूटर क्रांति की शुरुआत की तो उनका काफ़ी मज़ाक़ उड़ाया गया। बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकारी दफ़्तरों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में कंप्यूटर के प्रवेश का किस तरह माखौल बनाया था, वह संसदीय बहस के रिकॉर्ड में सुरक्षित है। कल्पना ही की जा सकती है कि कंप्यूटर और अंग्रेज़ी विरोध से जुड़ी माँगों को अगर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने स्वीकार कर लिया होता तो भारत आज कहाँ होता। अमेरिकी सिलिकॉन वैली में भारतीयों का बोलबाला तो सपना ही होता।
बीजेपी ने राममंदिर आंदोलन के ज़रिए समाज के हर क्षेत्र को राममय बनाने का अभियान चलाया। इसके तहत पौराणिक कथाओं को इतिहास बताने की मुहिम इस कदर चली की हाईकोर्ट के जज भी गणेश मूर्ति को दूध पिलाने की लाइन में लगे नज़र आये। मुस्लिमों के प्रति नफ़रत फैलाकर हिंदू समाज को वोट-बैंक बनाने के इस अभियान में अवैज्ञानिकता की जैसी लहर उठी, वह अभूतपूर्व है।
हाल ये है कि प्रधानमंत्री मोदी ने डॉक्टरों के बीच जाकर बताया कि गणेश जी का सिर काटकर हाथी का सिर जोड़ना बताता है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। वे यह भी बताते हैं कि गंदे नाले की गैस से खाना बनाया जा सकता है। या फिर भौतिकी के तमाम नियमों को उलटते हुए बताते हैं कि बादलों की वजह से राडार से बच सकते हैं। कभी ये भी बताते हैं कि महाभारत के दौरान संजय की लाइव कमेंट्री उपग्रह और इंटरनेट की वजह से संभव हुआ था। इन बयानों पर खूब तालियाँ बजती हैं और समाज अवैज्ञानिकता के गहरे गड्ढे में उतरता चला जाता है।
जब देश का प्रधानमंत्री ऐसा बयान दे रहा हो तो वैज्ञानिक संस्थानों में बैठे लोग भी ‘गाय के गोबर से विकिरण रोकने’ और ‘गोमूत्र से कैंसर के इलाज’ जैसे दावों को बढ़ावा देते हैं। इस स्थिति में शोध संस्थानों और वैज्ञानिकों को तो छोड़िए, स्कूल मास्टरों के लिए भी विज्ञान पढ़ाना मुश्किल हो जाता है।
कोई भी विद्यार्थी गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत को चुनौती देते हुए कह सकता है कि पृथ्वी तो शेषनाग के फन पर स्थिर है और लक्ष्मण जी शेषनाग के अवतार थे। ऐसी कहानियाँ वह हर रोज़ सुन रहा है। टेलीविजन से लेकर पड़ोस के पार्क में बनाये गये जगर-मगर पंडालों में बाँची जा रही कथाओं का किशोर मन पर यही प्रभाव पड़ता है।
भारत के संविधान ने ‘वैज्ञानिक चेतना’ के प्रसार को दायित्व माना है। आज़ादी मिलते ही पं. जवाहरलाल नेहरू ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक के क्षेत्र में तमाम महत्वपूर्ण शोध संस्थानों की नींव डाली जिनका भारत को भरपूर फ़ायदा मिला। भारत अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ सका, परमाणु विस्फोट कर सका, ब्रह्मोस जैसी मिसाइल बना सका या चंद्रयान भेज सका, तो इसके पीछे इन संस्थानों की दशकों की अथक मेहनत है। लेकिन अगर समाज में वैज्ञानिक चेतना ही नहीं रहेगी तो नये विज्ञानी पैदा कैसे होंगे? मौलिक शोध और अनुसंधान कैसे हो पायेंगे? स्वदेशी तकनीक के ज़रिए आत्मनिर्भरता का सपना कैसे पूरा होगा? एक समय सरकार की ओर से ‘ज्ञान-विज्ञान जत्था’ शहर ही नहीं, गाँव भी भेजे जाते थे ताकि आम लोग अंधविश्वास से मुक्त होकर वैज्ञानिक चेतना से लैस हो सकें। आज कथावाचक भेजे जा रहे हैं।
यही वह परिस्थिति है जिसमें चीन आगे निकलता गया और भारत पीछे छूट गया। भारत शोध और अनुसंधान में जीडीपी का महज़ 0.7% खर्च करता है जबकि चीन का ख़र्च 2.4% है। यह विडंबना ही है कि चीन में अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है लेकिन वह ‘कृत्रिम सूर्य’ बना लेता है जबकि भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी के बावजूद राहु-केतु को लेकर फैलाई गयी सूर्यग्रहण की कहानी पर सवाल उठाने वाले को जेल जाना पड़ सकता है। ये संयोग नहीं कि बीजेपी की राजनीतिक सफलता के साथ स्वतंत्र और आलोचनात्मक चिंतन के लिए विख्यात विश्वविद्यालयों को देशद्रोही बताकर दंडित किया गया। सिर्फ़ सरकार की ओर से उपेक्षा नहीं हुई, जनता के एक बड़े हिस्से को उनका दुश्मन बना दिया गया।
भारत में दुश्मन को मारक तंत्र-मंत्र के ज़रिए नष्ट करने और त्रिकाल-दर्शी होने का दावा करने वाले तांत्रिक और ज्योतिषी भारत के हर शहर में धंधा जमाए हुए हैं। इसे ‘भारतीय संस्कृति’ बताकर आलोचना से परे मान लिया गया है।
लेकिन ऐसे लोग पहलगाम में हमला करने वाले आतंकियों का न पहले न बाद पता बता सके और न तंत्र-मंत्र के ज़रिए आतंकी अड्डों को नष्ट कर सके। इसके लिए वे मिसाइलें ही काम आईं जो वैज्ञानिक सिद्धांतों की देन हैं।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के ज़रिए भारत की चुनौतियाँ बहुत स्पष्ट होकर सामने आई हैं। भारत को सिर्फ़ पाकिस्तान से नहीं, उसके साथ खड़ी चीन की वैज्ञानिक शक्ति से भी मुक़ाबला करना है। इसका जवाब गली-गली सिंदूर बाँटना नहीं है, गाँव-गाँव जन-विज्ञान जत्थे भेजना है। स्कूल-कॉलेज़ों में विज्ञान की पढ़ाई पर ज़ोर देना है। विज्ञान के प्रसार के लिए बने दूरदर्शन के ‘ज्ञान दर्शन’ जैसे चैनल और देश के वैज्ञानिक संस्थानों को सशक्त बनाना है। लेकिन आरएसएस जानता है कि जनता का यह जागरण उसके सारे किये कराये पर पानी फेर देगा। उसे हिंदू समाज को ‘सतयुग’ के सपने दिखाने हैं। जनता सचमुच जाग जाये और ‘कल'युग के महत्व को समझ ले, यह न आरएसएस चाहेगा और न उसे प्रेरणास्रोत मानने वाली मोदी सरकार।