“जब बैंक में हर ट्रांजेक्शन का रिकॉर्ड दिखाया जा सकता है, तो वोट का क्यों नहीं?”
फिर भी, 100% वीवीपैट मिलान की मांग आज तक पूरी नहीं हुई।
- ECI ने मशीन-रीडेबल रोल्स सार्वजनिक नहीं किये;
- ECI ने काउंटिंग-हॉल के सीसीटीवी फुटेज देने से इनकार किया
आयोग से सवाल करो, तो जवाब देगी भाजपा
मशीन-रीडेबल रोल्स : डाटा न देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में आयोग ने प्राइवेसी चिंताओं को कारण बताया। पर तकनीकी विश्लेषक कहते हैं कि गैर-खोजी पीडीएफ (scanned images) न केवल सत्यापन रोकते हैं, बल्कि मतदाताओं के अधिकारों का भी हनन करते हैं। सरल भाषा में कहें तो सार्वजनिक डाटा को इस तरह बंद कर देना—जिसे एल्गोरिदम सेकंडों में खंगाल लेते—शक पैदा करता है।
काउंटिंग-हॉल/सीसीटीवी-फुटेज — आयोग ने निर्देश दिए हैं कि अनचाहे ‘मैलिशियस’ खातों से बचने के लिए कई रिकॉर्ड 45 दिनों में नष्ट किए जाएँ— और जब समीक्षा मांगी गयी, तो नौकरशाही ने झकझोरने वाला समय दिया: “1 लाख दिनों/≈273 साल” जैसा रेखांकित मजाक-सा जवाब सोशल-स्पेस में फैल गया। अगर फुटेज तक पहुंच बेहद कठिन है तो उसकी ‘अनदेखी’ क्यों? यही शक जन्म देता है।
चुनावी आचार संहिता: MCC (Model Code of Conduct) का आंतरिक मसौदा — चुनाव आयोग ने कई बार दिखावे के तौर पर निषेधात्मक कदम कम, ‘नरम-नोटिस’ ज़्यादा दिए। बिहार के मामले में प्रधानमंत्री का भाषण, जिसे ‘टेलिवाइज़्ड-टीचिंग’ कहा जा रहा है, अस्पष्टता की वजह से कानूनी सीमा के भीतर बताया जा सकता है — पर नैतिक रूप से यह मतदान की आज़ादी पर प्रभाव डालता दिखता है।
बिहार का SIR — सफाई या सफाये की योजना?
जब 65 लाख नामों का ‘नॉन-इंक्लूज़न’ आधिकारिक तौर पर सामने आता है और मशीन-रीडेबल डाटा साझा न किया जाए — तो वही सवाल उभरता है जिसने नेहरू और गांधी को कभी जगाया: क्या संस्थाएं जनता की सेवा के लिए हैं या सत्ता की सुविधा के लिए?
लोकतंत्र और संविधान के साथ विश्वासघात
प्रियंका गांधी ने कहा कि चुनाव आयोग के तीनों अधिकारी जनता का अधिकार छीन रहे हैं। इनके नाम याद कर लीजिए। इन्हें पद के पीछे छिपने मत दीजिए। यहीं तीनों अधिकारी हैं जो लोग लोकतंत्र और संविधान के साथ विश्वासघात कर रहे हैं, उन्हें देश भूलेगा नहीं। इन सभी को आने वाले समय में जवाब देना पड़ेगा। प्रियंका गांधी ने कहा कि संविधान ने जनता को वोट डालने की शक्ति दी है, जिससे सरकार बनाने का निर्णय आप लेते हैं, लेकिन जब BJP को पता चला कि जनता खिलाफ हो रही है, तो उसने आपके अधिकारों को कमजोर करने के लिए ‘वोट चोरी’ करनी शुरू कर दी।
अब सवाल ढेर सारे हैं
1. मतदाता सूची को मशीन-रीडेबल क्यों नहीं बनाया गया?
2. सीसीटीवी-फुटेज मांगा गया तो क्यों कहा कि देखने में “272 साल” लगेंगे?–
3. क्या आयोग बैलगाड़ी युग में जी रहा है। आयोग का जवाब भारत की तकनीकी क्षमता का अपमान है
4. सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बावजूद 100% VVPAT मिलान और खुला ऑडिट क्यों नहीं?
5. बिहार-हरियाणा दोनों जगह प्रभावित नामों पर स्वतंत्र सत्यापन क्यों नहीं किया गया?
6. क्या आयोग सत्ता का रक्षक है या सत्ता-का संचालक?
7. वीडियो फुटेज नहीं देने का एक और बहाना किया गया – हम औरतों के वीडियो नहीं दिखा सकते
8. तो मतदान करने आयी मुस्लिम औरतों के बुर्का उठाने की इजाजत किसने दी
9. चुनावी आचार संहिता के उल्लंघनों पर कार्रवाई कम और राजनीति अधिक क्यों
चुनाव आयोग अब निष्पक्ष ‘अंपायर’ नहीं रहा
भारत के चुनाव आयोग को कभी निष्पक्षता का प्रतीक माना जाता था। लेकिन आयोग कथित विसंगतियों पर वैज्ञानिक ऑडिट या स्वतंत्र विश्लेषण की मांग से बचता रहा।
अब यह सवाल आम जनता के मन में उठ रहा है कि — क्या आयोग सत्ता की सुविधा के लिए काम कर रहा है? या चुनाव आयोग मोदी सरकार के जादुई ‘दायरा चक्र’ में लोकतंत्र की सांसें घोंटने में लगा है। विपक्षी दलों का आरोप है कि आयोग अब “जनसंपर्क आयोग” बन गया है, न कि “जनविश्वास आयोग।”
- यह वक्त संतुलन से आगे निकलकर सवाल करने का है।
- यह सिर्फ सुधार का नहीं — पुनर्निर्माण का समय है।
- यह प्रश्न अब जन-आंदोलन का रूप ले चुका है।
- डिजिटल युग में चुनावी पारदर्शिता की चुनौती
चुनाव अब केवल मतपत्र या मशीनों से नहीं, बल्कि डेटा से लड़े जा रहे हैं — व्हाट्सऐप ग्रुप, मोबाइल लिंक्ड वोटर आईडी, और एप्स के जरिए मतदाताओं की मनोवैज्ञानिक प्रोफाइलिंग की जा रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि “डिजिटल मैनिपुलेशन” नया चुनावी हथियार बन चुका है। राहुल गांधी का यह कहना कि “भारत का लोकतंत्र अब सर्वर रूम में कैद है” — इसी खतरे की ओर इशारा करता है।
संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका पर पुनर्विचार
चुनाव आयोग, सीबीआई, ईडी, और मीडिया — ये चार स्तंभ अब सवालों के घेरे में हैं। अगर संस्थाएं सरकार के अधीन हो जाएँ, तो लोकतंत्र केवल नाम का रह जाता है। राहुल गांधी का अभियान इसी सच्चाई को उजागर करने का प्रयास है।
न्यायपालिका का परीक्षण-मंच
अगर आयोग-विरोधी आरोप सार्वजनिक-सुधार विकल्पों और संविधान-चिंताओं के आधार पर हैं — तो न्यायालय को अब स्वतःसंज्ञान लेना होगा।
यह अब तीक्ष्ण प्रश्नों का क्षण है — और इन सवालों की धार सुप्रीम कोर्ट के आगे टिक चुकी है:
- क्या सुप्रीम कोर्ट ECI की निष्पक्षता की जांच करेगा?
- क्या सुप्रीम कोर्ट मतदाता के वोट, और उसको देने के संवैधानिक अधिकार की रक्षा करेगा?
- क्या वह उस अंतिम सुरक्षित गार्ड के रूप में आएगा जो संवैधानिक पवित्रता को बचाए?
- और क्या वह देश को विश्वास दिलाएगा कि न्यायपालिका अभी जीवित है
- या वह भी उस दीवार के समान बन चुका है, जो सिर्फ परदा झकझोरने पर ढह जाती है?
- यदि न्यायपालिका खामोश रही, तो आने वाली पीढ़ियाँ कहेंगी:
- भारत में लोकतंत्र था — लेकिन उसे बचाया नहीं गया।
जनता का नया आंदोलन — वोट बचाओ, देश बचाओ
राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ केवल राजनीतिक अभियान नहीं, बल्कि एक जन-जागरण है। गाँवों में बैठकर चाय के साथ संवाद करने की उनकी शैली ने लोकतंत्र को फिर से जन-आधारित बनाने की कोशिश की है।
लोकतंत्र को बचाना हर नागरिक की जिम्मेदारी
भारत का लोकतंत्र एक मोड़ पर खड़ा है — जहाँ जनता का विश्वास और संस्थाओं की ईमानदारी, दोनों की परीक्षा हो रही है। अगर वोट की पवित्रता पर प्रश्न उठे तो संविधान ही कमजोर पड़ जाएगा। यह सिर्फ राजनीति नहीं, आंदोलन बन चुका है— और आंदोलन में अक्सर निर्णायक मोड़ आता है जब सत्ता-सेतु संस्थाओं में दरार दिखे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की आवाज गूंज रही है -
“The spirit of democracy cannot be imposed from without. It has to come from within.” — Mahatma Gandhi, Young India, 1925.
और नेहरू याद दिला रहे हैं -
“Ultimately, the strength of a democracy is not in its laws but in the honesty of those who implement them.” — Jawaharlal Nehru, लोकसभा 1951.
The soul of the Republic is on trial. It is time for the Supreme Court to deliver its opening statement.