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‘आर्टिकल 15’: सामंतवादी समाज के क्रूर चेहरे को दिखाती फ़िल्म

इन दिनों ‘आर्टिकल 15’ फ़िल्म ख़ासी चर्चा में है। यह फ़िल्म देश भर में काफ़ी सराही जा रही है। लेकिन कुछ जगह इसका विरोध भी किया जा रहा है। विरोध शायद वे ही लोग कर रहे हैं जिन्हें समाज की व्यवस्थाओं में अपना वर्चस्व और स्वामित्व दिखाई देता है। यह वही तबक़ा है जो यह मान चुका है कि इस देश में सामंतवादी व्यवस्थाओं को ऐसे ही बने रहना चाहिए। ऐसे ही हमारा देश वर्ण व्यवस्थाओं में बंधा रहना चाहिए और दलितों, शोषितों, वंचितों पर अत्याचार होते रहने चाहिए।
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अनुभव सिन्हा ने इन सामाजिक कुरीतियों को जिस तरह उजागर करने की कोशिश की है वह अपने आप में क़ाबिले तारीफ़ है और वह भी ऐसे दौर में जहाँ आज हिंदूवादी राष्ट्रवाद हावी है। इस दौर में, जहाँ हर रोज़ दलितों, पीड़ितों, वंचितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों को शिकार बनाया जा रहा हो। जहाँ हर रोज़ मॉब लिंचिग के बहाने मासूमों को मारा जा रहा हो। परन्तु देश की वास्तविक स्थिति इससे भी कहीं ज़्यादा बदतर है। मंडला, डिंडोरी से लेकर बालाघाट, अलीराजपुर, झाबुआ, छिंदवाड़ा में यदि ‘आर्टिकल 15’ के संदर्भ में बात की जाए तो लगता है कि अभी भी इंसान आदिम युग में जी रहा है। जहाँ न कोई व्यवस्था है, न तंत्र, न राजनीति और न ही किसी का ध्यान। 
‘आर्टिकल 15’ फ़िल्म नहीं, एक सवाल है, उन व्यवस्थाओं के प्रति जो सदियों से हमारी परम्पराओं का हिस्सा बना दी गई हैं। जहाँ सवाल नहीं किए जाते। आयुष्मान खुराना के इस किरदार में एक प्रश्न छिपा है, 'कौन हैं ये लोग'? ये लोग वही हैं जो हमारे, आपके लिए अन्न उगाते हैं, चमड़ा बनाते हैं, मकान बनाते हैं, झाड़ू लगाते हैं और सबसे घृणित काम हाथ से हमारा मैला भी उठाते हैं। जी हाँ,  मैला प्रथा आज भी बदस्तूर जारी है देश के कई इलाक़ों में। 
देश कैशलेस हो गया लेकिन मैला प्रथा का दंभ आज भी झेल रहा है। शायद इसलिए क्योंकि वर्ण व्यवस्थाओं के चलते एक वर्ग विशेष को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी गई और वह तबक़ा भी मान चुका है कि यह काम परंपराओं का हिस्सा है और उसे इसे निभाना पड़ेगा।
चंद्रयान 1 और चंद्रयान 2 की चर्चा के बीच एक हिस्सा ऐसा भी है जहाँ इसी देश के अधिवासियों के बच्चों को गिरवी रख दिया जाता है ताकि उन घरों में दो वक़्त की रोटी का इंतजाम हो सके। पिछले 70 सालों में देश ने बहुत कुछ देखा लेकिन ‘आर्टिकल 15’ को मूल रूप से लोगों को स्वीकारते हुए नहीं देखा।
यह फ़िल्म दलित समाज ख़ासकर कि दलित महिलाओं की अस्मिता पर गंभीर सवाल उठाती है। उम्मीद है कि इस फ़िल्म के जरिए देश का युवा ‘आर्टिकल 15’ के अधिकार के मूल को समझकर इसका पालन करने की कोशिश करेगा।

सामंतवादी सोच के जरिए दलितों का शोषण

महिलाओं को लेकर जितनी भी व्यवस्थाएँ बनीं, उनमें उन्हें प्राय: दोयम दर्जे का स्थान ही दिया गया है। महिलाएँ दलितों में भी दलित मानी गई हैं। दक्षिण के मंदिरों में देवदासी प्रथा की शिकार भी दलित महिलाएँ ही हैं। दलित महिलाओं की स्थिति पर अक्सर मीडिया का ध्यान भी तब जाता है जब वे बलात्कार की शिकार होती हैं या उन्हें नग्न, अर्धनग्न करके सड़कों पर घुमाया जाता है। ऐसी शर्मनाक घटनाओं की रिर्पोटिंग के बाद उनका फ़ॉलोअप बहुत ही कम किया जाता है। बात अकेले मीडिया की नहीं है, दरअसल, सारा समाज ही इतना आत्मकेन्द्रित हो गया है कि ऐसी घटनाओं पर तब तक कोई हलचल नहीं मचती, जब तक कि उनका संबंध सत्ता, प्रशासन या ऐसे ही किसी प्रभावशाली तबक़े को प्रभावित न करे।कैसे गढ़ी गई होंगी ये परंपराएँ जो दलित की परछाई से तो कोसों दूर रखती हैं, उसके हाथ का पानी भी नहीं पीने देती, लेकिन दलित की बेटी से संभोग कराती है, वह भी बार-बार। क्या इन व्यवस्थाओं ने यह मान लिया है कि दलित की बहन-बेटियाँ इनकी जागीर हैं। कितना मजबूर रहा होगा वह शूद्र इंसान जिसकी बेटी की अस्मिता भी लूट ली जाती है और उसे ही कटघरे में खड़ा भी किया जाता है।
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ज़रा सोच कर देखिए, कैसा दौर रहा होगा जब एक इंसान सिर्फ़ अपने भोग के लिए दलित की बेटी को जब तक चाहे तब तक रौंदता रहे, जैसे चाहे नोचता रहे और फिर जिंदा लटका दे, मरने के लिए। जिस भाव को सोचकर ही डर लगता है, उसे हज़ारों सालों से दलित महिलाएँ जीती आई हैं। जाएँ और अनुभव करें कि हज़ारों सालों से चली आ रही इस व्यवस्था में क्या आज भी वाक़ई कोई बदलाव हुआ है?
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क़मर वहीद नक़वी
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